Book Title: Dharmveer Mahavir aur Karmveer Krushna
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Aatmjagruti Karyalay

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Page 25
________________ ( २१ ) प्रकारकी घटनाओं में शत्रुशासन, युद्धकौशल और दुष्टदमनकर्मका कौशल झलक रहा है। यह भेद जैन और वैदिक संस्कृतिके तात्त्विक मेदपर अवलम्बित है । जैन संस्कृतिका मूल तत्त्व या मूलसिद्धान्त अहिंसा है । जो अहिंसाकी पूर्णरूपसे साधना करे या उसकी पराकाष्ठाको प्राप्त हो गया हो, वही जैनसंस्कृतिमें अवतार बनता है। उसीकी अवतारके रूपमें पूजा होती है । वैदिक संस्कृतिमें यह बात नहीं । उसमें तो जो पूर्णरूपसे लोकसंग्रह करे, सामाजिक नियमकी रक्षाके लिये जो स्वमान्य सामाजिक नियमोंके अनुसार सर्वस्व अ. पण करके भी शिष्टका पालन और दुष्टका दमन करे, वहीं अवतार बनता है और अवतारके रूपमें उसीकी पूजा होती है। तत्वका यह भेद कोई मामूली भेद नहीं है । क्योंकि एकमें उत्तेजनाके चाहे जैसे प्रबल कारण विद्यमान हों, हिंसाके प्रसंग मौजूद हों, तो भी पूर्णरूपसे अहिंसक रहना पड़ता है। जब कि दूसरी संस्कृति में अन्त:करणकी वृत्ति तटस्थ और सम होनेपर भी, विकट प्रसंग उपस्थित होनेपर प्राणों की बाजी लगाकर अन्यायकर्ताको प्राणदण्ड तक देकर, हिंसा के द्वारा भी अन्याय का प्रतीकार करना पड़ता है। जब इन दोनों संस्कृतियों में मूलतत्त्व और मूलभावना में ही भिन्नता है तो दोनों संस्कृतियों के प्रतिनिधि माने जाने वाले अवतारी पुरुषों की जीवन-घटनाएँ इस तत्त्व-भेद के अनुसार योजित की जाएँ, यह जैसे स्वाभाविक है उसी प्रकार मानसशास्त्रकी दृष्टिस भी उचित है । यही कारण है कि हम एक ही प्रकार की घटनाओंको उक्त दोनों महापुरुषोंके जीवन में भिन्न भिन्न रूपमें योजित की हुई देखते हैं। अधर्म या अन्यायका प्रतीकार करना और धर्म या न्यायकी प्रतिष्ठा करना, यह तो प्रत्येक महापुरुषका लक्षण होता ही है। इसके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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