________________
( २७ ) में चित्रित की गई नजर आती हैं, उन्हें देखते हुए दूसरे पक्षकी संभावनाको छोड़कर तीसरे पक्षकी निश्चितताकी ओर हमाराध्यान
आकर्षित होता है । हमें निश्चितरूपसे प्रतीत होने लगता है कि मूल में चाहे जो हो, परन्तु इस समयके उपलब्ध साहित्यमें जो दोनों वर्णन पाये जाते हैं उनमें से एक दूसरे पर अवश्य अवलम्बित है या एकका दूसरे पर प्रभाव पड़ा है। फिर भले ही वह पूर्णरूपमें न हो, कुछ अंशोंमें ही हो।
(४) ऐसी अवस्थामें अब चौथे पक्षके विषयमें विचार करना शेष रहता है । वैदिक विद्वानोंने जैन वर्णनको अपनाकर अपने ढंग से अपने साहित्यमें उस स्थान दिया है या जैन लेखकोंने वैदिक. पौराणिक वर्णनको अपनाकर अपने ढंगसे अपने ग्रंथों में स्थान दिया
है ? बस, यही विचारणीय प्रश्न है। . जैनसंस्कृतिकी आत्मा क्या है और मूल जैनग्रंथकारोंकी विचार. धारा कैसी होनी चाहिये ? इन दो दृष्टियोंसे यदि विचार किया जाय तो यह कहे बिना नहीं रहा जासकता कि जैन साहित्यका उल्लिखित वर्णन पौराणिक वर्णन पर अवलम्बित है । पूर्ण त्याग, अहिंसा और वीतरागताका आदर्श, यह जैन संस्कृतिकी आत्मा है और मूल जैन ग्रन्थकारोंका मानस इसी आदर्शके अनुसार गढ़ा होना चाहिये । यदि उनका मानस इसी प्रादर्शके अनुसार गढ़ा हुआ हो तभी जैन संस्कृति के साथ उसका मेल बैठ सकता है । जैन संस्कृतिमें वहमों, चमत्कारों, कल्पित आडम्बरों तथा काल्पनिक आकर्षणोंको जराभी स्थान नहीं है। जितने अंशोंमें इस प्रकारको कृत्रिम और बाहिरी पातोंका प्रवेश होता है, उतने ही अंशोंमें जैनसंस्कृतिका आदर्श वि
कृत एवं विनष्ट होता है । यदि यह सच है तो प्राचार्य समन्तभद्रके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com