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धर्म के लक्षण हे मनुष्यो ! यहां हम लाचार हैं। हम इनकी भूख लगती है। कंठ से अमृत भर जाता है
बस तो निर्णय के अनुसार हम मनुष्य ही पालकी को सर्वप्रथम उठाने के अधिकारी न ?
हुए
भैया । ठीक है । अधिकारी तो तुम ही हो ! परन्तु मैं तुम्हारे सामने झोली पसारता हूं। कुछ क्षणों के लिये मुझे मनुष्य पर्याय दे दो! बदले में चाहे मेरा सारा वैभव ले लो!
कोई किसी को अपनी पर्याय देने में समर्थ है ही नहीं! तुम तो अब यहीं भावना भाओ कि अगले भव में मनुष्य बने ! भगवान की तरह मुनि दीक्षा ले कर, आत्म कल्याण के पथ पर बढ़ते हुए 'मुक्ति प्राप्त करें! क्यों कि बिना संयम के मुक्ति नहीं और बिना मनुष्य हुए पूर्ण संयम नहीं !
तरह संयम धारण कर ही नहीं सकते। हमें इसी प्रकार और इन्द्रियों के विषयों की इच्छा होते ही तृप्ति हो जाती है। हम इच्छाओं को रोक ही नहीं सकते। पूर्ण संयम तो तिर्यञ्चों में भी नहीं है। नारकियों की तो बात ही क्या। इन जैसा तो आप ही बन सकते हो।
(हम अपनी हार स्वीकार करते हैं! उठाओ! पहले तुम्हीं पालकी
उठाओ! तुम
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देखो रे मनुष्यों, तुम्हें वह मनुष्य भव मिला है! जिसके लिये इन्द्र भी तरस रहा है। ऐसे अमुल्य नर जन्म को पाकर भी तुमने इन्द्रिय संयम व प्राणि संयम का पालन नहीं किया तो फिर संसार चक्र में घूमते ही रहोगे, फिर यह नर जन्म मिलना उतना ही कठिन होगा जैसे समुद्र में फेंका रत्न ! संयम धारण करने में देरी न करो। क्यों कि देखो न तीर्थंकर होते हुए भी भगवान महावीर मुक्ति प्राप्त करने के लिए संयम अड्डीकार जा रहे है !
करने
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तर सत्ता
महान पुण्यशाली हो जो मनुष्य
बने !