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जैन
चित्र कथा
धर्म के
दश लक्षण
तप
उत्तम
आकिंचन
उत्तम
2.
उत्तम मार्दव
HD.
धर्म के दश
लक्षण
उत्तम
क्षमा
2.
उत्तम शौच
उत्तम
ब्रह्मचर्य
उत्तम
आर्जव
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जैन चित्र कथा आशीर्वाद प्रकाशक
सम्पादक
धर्म के दश लक्षण आचार्य श्री अभिनन्दन सागर जी महाराज आचार्य धर्मश्रुत ग्रन्थमाला
एवं मानव शान्ति प्रतिष्ठान धर्मचंद शास्त्री प्रतिष्ठाचार्य डॉ. मूलचंद जैन, मुजफ्फरनगर बने सिंह जैन मन्दिर गुलाव वाटिका, लोनी रोड, दिल्ली जि. गाजियाबाद (उ. प्र.) 15.00 रु.
शब्द चित्रकार प्राप्ति स्थल
मूल्य
शिवानी आर्ट प्रेस दिल्ली-32
मुद्रक
प्रकाशन वर्ष २००४ चरित्र च पति आचार्ग श्री शान्ति सागर जी
महाराजा (दक्षिण) के संयम वर्ष के पुण्य अवसर पर
प्रकाशित।
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उत्तम क्षमा धर्म
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धर्म के लक्षण
| सास केतुमती क्रोध में भरी पहुंची बहू अंजना के पास और.....
माता जी, जरा मेरी भी तो सुनो ! वह मेरे महल में आये थे! प्रमाण के रूप में देखो यह अंगूठी दे गये है।
हूँ! 22 वर्षो से तो पवन ने तेरा मुंह तक नहीं देखा और तू कहती है वह आया था ढीठ कहीं की, झूठी कहीं की जबान चलाती है। मैं एक पल भी तेरा मुंह नहीं देखना चाहती लेजा अपनी इस दासी वसततिलका को और निकल जा यहां से।
दुष्टा, "यह तुने क्या किया ? कुलकलंकिनी किसको है यह गर्भ ? दूर हो जा मेरी आंखों के सामने से। निकल जा मेरे घर से
शांत हूजिये मां जी, आपकी आज्ञा है तो चली जाती हूँ !
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मालकिन कितनी दुष्ट है तुम्हारी सास! "यह भी नहीं सोचा तेरे पेट में बच्चा है कहां जायेगी तू बेचारी ।
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वंसततिलके ऐसा न कह! उन्होनें मुझे 22 वर्षो तक छोड़े रखा, सास ने घर से निकाल दिया, किसी का भी दोष नहीं है। इसमें ! मैंने अवश्य कोई पाप किया होगा, जिसका फल मुझे ही तो भुगतना पड़ेगा, और कोई भुगतने थोड़े ही आयेगा मुझे किसी के प्रति रंच भी रोष नहीं
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जैन चित्रकथा महाराज, यह राजरानी अंजना बेचारी गर्भवती
सास ने झूठा लांछन लगा कर इसे घर से निकाल दिया-इसके पति ने 22 वर्ष से इससे मुंह फेर रखा है। क्या अपराध, किया है बेचारी ने?
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जो जो किसी पर पड़ती है वह वह सब उसके। अपने किये कार्यों का ही फल होता है। जो उसे अवश्य भोगना पड़ता है। अंजनाने भी पिछले जन्म में अपनी सौत से क्रोधित होकर 22 पल के लिये जिन प्रतिमा को उसके चैव्यालय से हटाकर उसेदर्शनों से वंचित कर दियाथा, उसी का यह फल है।
तो मुनीराज श्री हां हां क्यों नहीं इसके गर्भ में जो देखो वसंते, मैं क्या कहती थी। जो कुछ अच्छा बुरा होता है क्यों इसके दुखों । जीव है वह इसीभव से मोक्षजाने वह सब हमारे किये कर्मों का ही तो फल है। फिर क्यों किसी का अंत भी आयेगा वाला है। और इसके पति का मिलन
पर कोध करना, क्यों किसी या नहीं? भी शीघ्र ही हो जायेगा। और ऐसा
पर दोषारोपण करना! होना भी इसके पूर्व कर्म काही फल Vठीक कहती हो आप। हैं क्यों कि प्रतिमा जी को हटा- ||अब चलो सामने इस गुफा कर इसने बहुत पश्चाताप किया| में चलें प्रसुति का समय) था और पुनः चैत्यालय में
निकट आ गया है। स्थापन करवा दिया था।
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धर्म के लक्षण अंजना ने तेजस्वी बालक को जन्म दिया हनरूद्धीप का राजा प्रतिसूर्य उन्हें अपने नगर ले गया। बेटी की तरह रखा। बालक का नाम रखा हनुमान। पवनञ्जयको पता चला और वह भी मिलने आये...
अंजने मुझे क्षमा कर दो। मैंने तुम्हारे साथ क्या क्या अत्याचार नहीं किया तुमने मुझसे बोलना चाहा, मैंने मुंह फेर लिया। 22 वर्ष तक तुम्हें अकेले तड़पते रहने के लिये छोड़ कर चला गया। यही नहीं मेरे कारण से ही तुम्हें घर से निकाला गया,ना-ना
प्रकार के दुख सहने पड़े।
कैसी बातें करते हैं आप इसमें किसी का भीलेश मात्र दोष नहीं है। दोष है तो बस एक मेरे कर्मों का, जैसा मैंने किया वैसा मैंने भरा। खैर छोड़ो इन बातों को। आप तो,
आनन्द से हैं नत
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इसी प्रकार बड़ी से बड़ी विपत्ति आने पर भी आप भी कोच चाडाल संबच सकतहबाट
आप सोच लें... "तें करम पूरब किये खोटे, सहें क्यों नहीं जीयरा"
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उत्तम मार्दव धर्म
जैन चित्रकथा सौधर्म स्वर्ग में इन्द्र दरबार... अहाहाहा। क्या रुप है उसकारकमाल का रूपादेवों में भी ऐसा रूप नहीं।
स्वामी, किसका रूप? कौन है वह महापुरूष,कहा रहता है वह? हम जायेगें उसे देखने।
वह है भारत क्षेत्र में रहने वाले साल अति सुन्दर चक्रवती सनत्कुमार
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अगले ही दिन दोदेव-मणिकेतुव रत्नचूल आ पहुंचे मनुष्यलोक में...Iसना है स्वर्ग से दो देव आये है मेरा रूप देखने। वाहाखूब। वाकई ऐसा रूप अब
वाकई में हं भी तो ऐसा ही। मेरे समान है भी कोई
ऐसा रूपवान अब चलूमा दरबार में खूब साजतक नहीं देखा जी चाहता है देखते ही रहें। जैसा इन्द्रराज ने कहा था
श्रंगार करके, बढ़िया वस्त्र, बढ़िया से बढ़िया अलंवास्तव मैं वैसा ही निकला। और
कार पहन कर देव देखेंगे तोदेखते रह
जायेंगे मेरे रूप को। हं भी तो मैं कमाल यह,न साज श्रंगार, न
ऐसा ही
सुन्दर! वस्त्र,न आभूषण, बल्कि धूल धूसरित शरीर चलें उनसे
TOOole मिल भी तो लें।
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धर्मके लक्षण
दरबार में चक्रवर्ति बैठे है-दोनों देव आते है। चक्रवर्ति को देख कर माथा धुनते है।
क्यों क्या हुआ? परेशान क्यों हो? क्या कोई कमी है मेरे रूप में? क्या मैं सुन्दर नही हं? क्या मेरा रूप तुम्हें नहीं जंचा?
राजन। ऐसी तो कोई
बात नहीं परन्तु जो कल व्यायामशाला में आपका रूप देखाथा वह रूप
अब कहा?
क्या कहते हो? कल जैसा नहीं राजना हमारी जल से लबालब भरा एक कटोरा मंगाया देवो ने, राजा व नहीं है मेरा रूप? अरे उस समय दिव्य द्रष्टि धोखा नहीं अन्य लोगों को दिखाया फिर एकान्त में ले जाकर उस तो मेरे शरीर पर भी धूल लगी खा सकती। हम आपको कटोरे में एक सींक डुबोकर निकाल ली, जिसके साथ एक थी,न दंग के वस्त्र थे, न कोई। (इसका प्रमाण भी दे
बूंद पानी भी निकल गया तन.. आभूषण! आज तो कल के
सकते है। मुकाबले में मैं कहीं अधिक सुन्दर हं। तुमने जांचने में
राजन पानी ज्यों का अवश्य गलती की है।
त्यों है। कटोरे में या कुछ कमी आई है इसमें?
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इसमें पानी बिल्कुल ज्यों कात्यों है कोई कमी नहीं आई इसमें
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जैन चित्रकथा बस तो राजन। यही है अन्तर हमारी दिव्य द्रष्टि में हाँ हाँ राजन ! रूप ही नहीं,यहां की हर वस्तु क्षणभंगुर है।
और आपकी साधारण द्रष्टि में एक बूंद पानी के नाशवान है। देखते देखते नष्ट हो जाती है। स्त्री-पुत्र धननिकलने पर भी आपको पानीज्यों का त्यों दिखाई धान्य,दासी-दास,वैभव, बल, ऐश्वर्य आदि कोई भी दिया। इसी प्रकार क्षण-क्षण नष्ट होने
तो ऐसी वस्तु नहीं जो टिकी रह सके। फिर किस पर वाले आपके इस रूप में जो
घमंड करना और की बात तो छोडो विधाजान,तप आदि अन्तर आया उसको हमारी
भी तो घमंड करने योग्य नहीं। विद्रष्टि ने देख लिया
परन्तु आपकी साधारण । द्रष्टि नहीं देख पाई।
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हैं।क्या कहा? क्या मेरा स्पक्षण-क्षण विनाशकी और बढ़ रहा है?
सम गया, अब समझ गया। उत्तम मार्दव धर्मका वर्णन करते हुए पं.धानतराय जी ने
भी तो यही कहा है-"जितव्य जोवन धन गुमान,कहां करे जल बुदबुदा
और सब ने देखा सनत्कुमार चक्रवर्ति बन गये नन दिगम्बर साधु
2017
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SATNA
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धर्म के लक्षण साथियों बहुत दिन हो गये हमें
चोरी करते मोटा माल हाथ नही उत्तम! आजर्व धर्म
लगा! आज हम चोरी करने के लिये राजमहल में चलेंगे ! महल के अन्दर मैं जाऊगा आप लोग बाहर सावधान रहना !
मृदुमति चोर अपने साथियों के साथ....
राजमहल में...
प्रिये ! आज मैने मुनिराज से धर्मोपदेश सुना, मुझे तो अब संसार, शरीर, भोगों से डर लगने लगा है अब तो मैं निश्चित रूप से मुनि दीक्षा लूंगा ही !
नाथ! मेरा (क्या होगा, कुछ तो सोचो।
!
जैसी आपकी आज्ञा !
हैं। यह राजा तो अपना सब राज-पाट छोड़ कर मुनिव्रत धारण करने का विचार कर रहे है और मैं मैं कितना पापी हूं चोरी करके • पेट पालता हूं, मुझे धिक्कार है! क्यों न मैं इस पाप के धन्धे को छोड़ दूं, आत्मकल्याण को
• मार्ग पकडूं! बस ठीक है, मेरा द्रढ़ निश्चय है, कि कल प्रातः ही मैं मुनि दीक्षा अवश्य ले लूंगा !.
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जैन चित्रकथा
और मृदुमति बन गये दिगम्बर मुनि एक दिन आहार के लिये
जा रहे थे..
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2000
अहो,हमारे नगर का अहोभाग्य जो ऐसे तपस्वी मुनिराज चारणऋद्धि (धारी मुनिराज आहार के लियेहमारे नगर में आ रहे हैं।
धन्य है ये ऋषिराज देखो चार माह से उपवास से थे। वह जोसामने पर्वत है, वहीं पर ठहरे थे। नगर में अब तक ये आये ही नहीं,आज आहार के लिये उठे है। वह बडा भागी होगा जिसके यहां इनका आहार.
होगा।
ये लोग किसकी प्रशंसा कर रहे हैं। न तो मैं धारणमृद्दीधारी है। और न मैं चार माह का उपवासी। हां सुना था कि पास के पर्वत पर ऐसे एक ऋषिराज ने चातुर्मास किया था। हो सकता है वे यहां
से चले गये हों। परन्तु ये लोग तो मुझे Vवही ऋषिराज समझ कर मेरी इतनी प्रशंसा
कर रहे हैं। मैं चुप रह जाऊं तो क्या हर्ज है।
श्री
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धर्म के लक्षण बस तनिक सी मायाचारी आ गई मन में और चुप रह गये मुनिराज ! न गुरु जी से प्रायश्चित लिया - मायाचारी का परिणाम रंग लाये बिना नहीं रहा । तपस्या बहुत की थी। इसलिये मरण करके पहुंचे छठे स्वर्ग में -
परन्तु देवपर्याय पूरी करके जाना पड़ा तिर्यभ्व पयार्य में....
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तभी तो कहा है
" रचक दगा बहुत दुखदानी'
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जैन चित्रकथा
पंडित जी,आप कौन है। यहां क्यों लेटे है। कहाँ)
जा रहे है?
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मैं बनारस से सब विधायें पढ़कर लौटातो मेरी पत्नि ने पूछा बताओ"पाप का बाप क्या है"मैं इसका उत्तर न दे पाया। इसका उत्तर जानने के
लिये बनारस जा रहा हूं। महाराज मैं एक वैश्याह। आपके ठहरने से मेरा
घर पवित्र हो जायेगा।
आप चिन्ता न करिये, इसका उत्तर आपको मैं दूंगी। कृपया.
आज आप मेरे मकान
में ही ठहरिये। परन्तु यह (तो बताओ तुम हो
कौन?
क्या कहा? मैं और वैश्या के यहां ठहरूं नहीं,नहीं, हरगिज नहीं,मैं ऐसा नहीं कर सकता मुझे तो तुम्हारे चबूतरे पर लैटने से ही बड़ा पाप
लग गया है।
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महाराज मेरी तीव्र इच्छा है कि आज आप मेरे यहाँही भोजन करल। तो मेरा चौका पवित्र हो जाये।
धर्म के लक्षण (घबराइये नहीं पंडित जी। यह लीजिये 100 रुपये। यदि मेरे यहाँ ठहरने से आपको कोई पाप लगे तो
प्रायश्चित कर क्या बिगड
लेना। अच्छा !
जायेगा इसके हम ठहर यहां ठहरने से। और जाते है। 100 रुपये भी तो
मिल रहे है।
छिः छिः क्या कहा? मैं और तुम्हारे यहां भोजन का क्या तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है।
Hai
है तो यह मेरे धर्म के विरूद्ध। परन्तु तुम्हारी भक्ति देखकर चलो मैं
ऐसा कर लूंगा।
भला अपने हाथ से भोजन बना कर रखा लेने मे हर्ज ही क्या है और 200 रूपये की रकम कोई थोडी भी तो नहीं है।
कुद्ध न हुजिये पंडित जी में । सामान मंगाये देती हूं। आप स्वयं भोजन बना कर रखा लीजिये और प्रायश्चित के लिये यह लीजिये 200 रूपये।
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तुम इतना आग्रह कर रही हो तो चलो तुम्हारे हाथ से एकग्रासलेले
जैन चित्रकथा भोजन तो आपने अपने हाथ से बना ही लिया। अब तो हमारी एक ही इच्छा है। कि आप हमारे हाथ से ही भोजन कर लेते तो हमारे सब पाप
धुल जाते। और हां पंडित 500रूपये मिल रहे है। मेरा क्या
जी इसके लिये आपको बिगड जायेगा इसके हाथ से भोजन
कुछ प्रायश्चित करना करने में जैसे मेरे हाथ वैसे इसके
पडे तो उसके लिये हाथ बल्कि इसके हाथ तो हमसे
हाजिर है आपकी भी कोमल है बेचारीका मन
सेवा में 500
रूपये। भी रह जायेगा और असल बात तो यह है कि यहां देखते
भी कौन है!
पंडित जी ने ग्रास लेने के लिये मुंह खोला तो वेश्या ने ग्रास देने के बजाय गाल पर थप्पड़ जड़ दिया... (यह क्या किया तुमने? तुम बडी दुष्ट हो,पापी
हो, तुम्हारा पंडित जी महाराज अब तो सुधार कभी समझ गये होगें पाप का बाप नहो सकेगा। क्या है। “लोभ" जिसने आपको यहां तक गिरा दिया। कि मेरे हाथ से भी भोजन करने को तैयार हो गये। घर लौट जाओ अब बनारस जाने की जरूरत
नहीं।
इसीलिये तो पं.धनात राय जी ने लिखा है:“लोभ पाप का
बापबखाने"
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उत्तम सत्य धर्म]
धर्म के लक्षण
हो न हो यही सत्यघोष जी का मकान होना चहिये क्यों कि इसी मकान पर तो लिवा है
"सत्यमेव जयते"
सत्यमेव जयते व
श्रीमान जी, (क्या आपका ही नाम)
सत्यघोष है?
Prode
aand
हां हां भैया मुझे ही सत्यघोष कहते है! पधारिये, कहिये आप कौन हैं। किस काम से आये हैं।
दो वर्ष बाद...
मेरा नाम समुद्रदन्त है। मुझे एक वर्ष के लियें विदेश जाना है। मेरे पास ये पांच रत्न हैं। आप इन्हें अपने पास रख लीजिये एक वर्ष बाद जब लौटूगां तब ले लूंगा। आपका बड़ा नाम सुना है। आप बड़ें सत्यवादी जो है।
श्रीमान जी, गजब हो गया। मेरा सारा धन नष्ट हो गया। मैं बहुत परेशान हैं। कृपया मेरे पांच रत्न मुझे लौटा दीजिये जो मैं दो वर्ष पहले
आपके पास रख गया था।
कौन हो भाई तुम? मैंने तो तुम्हे पपहिचाना भी नही कैसे रत्न? कुछ पागल हो गये क्या? लांछन लगाते हो। नहीं आती|निकला जाओ यहां से
झूठा
015
"भैया नाम वाम तो कुछ नहीं। हां मैं झूठ कभी नहीं बोलतादेखो मेरे जनेऊ में सदा यह चाकू बंधा रहता है। यदि मुंह से कभी झूठ वचन निकल गया तो चाकू से जीभ काट लूंगा! में इस चक्कर में तो नही पड़ता। परन्तु जब तुम जिद ही कर रहे हो तो रख जाओ।
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अरी दासी जरा पुरोहित जी के घर जा कर उनकी | पत्नी को यह अंगूठी व 'जनेऊ दिखाकर कहना कि पुरोहित जी ने वह 5 रत्न मंगाये हैं! जो एक सेठ उनके यहां धरोहर रख गया था।
जैन चित्रकथा
अरे लोगों जरा मेरी भी सुन लो ! मैं लुट गया। बरबाद हो गया। राजपुरोहित सत्यघोष ने मेरे साथ धोखा किया। वह मेरे पांच रत्न वापिस नहीं लौटा रहा है! है कोई जो मेरा न्याय करे!
अभी लाई महारानी जी !
प्राणनाथ
सुनो तो यह कौन है जो | कह रहा है। कि सत्यघोष उसके पांच रत्न नहीं लौटा रहा है!
AML
रानी के बहुत आग्रह पर राजा ने उस पागल का न्याय रानी को सौंप दिया। रानी ने पुरोहित को चौपड़ खेलने के लिये आमन्त्रित किया और चौपड़ में पुरोहित जी से उनकी अंगूठी व जनेऊ जीत लिये। फिर....
प्रिये आराम से सो जाओ कोई पागल होगा! भला राजपुरोहित जी ऐसा कर सकते है।
In
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दरबार लगा है....
हे वणिक महोदय ये बहुत से रत्न रखे हैं। क्या इनमें से तुम अपने 5 रत्न पहिचान सकते हो ?
हां हां राजन क्यों नहीं ! देखिये कृपासिंधु ये है मेरे पांच रत्न!
महाराज मुझे क्षमा कर दिजिये!
नहीं नहीं राजन इसने धौर अपराध किया है! विश् वासघात -
बहुत बड़ा पाप है। इन्हें
तो काला मुंह करके गधे पर चढ़ा कर देश निकाला दीजिये!
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धर्म के लक्षण राज पुरोहित को काला मुंह करके गधे पर चढ़ा कर देश से बाहर ले जाया जा रहा है। बच्चे कंकड़ पत्थर मार रहे हैं। और प्रजा के लोग उन्हें धिक्कार रहे है। देखली तेरी बगुली
भक्ति विश्वासघात किया। भुगत.
भूठे का उसका फल मुंह काला धिक्कार हैं। बनता फिरता धिक्कार हैं। था सत्यघोष!
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7
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क्या सुन्दर लिखा है।
उन्तम सत्य वरत पालीजे.पर विश्वासघात न कीजे"
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उत्तम संयम धर्म
पालकी आप कैसे उठायेंगे। भगवान महावीर हमारी तरह मनुष्य ही है! अत: पालकी पहले हम उठायेंगे।
मनुष्य और देवों में झगड़ा हुआ न्याय एक वृद्ध पुरुष को सौंपा गया।
जैन चित्रकथा
आज भगवान को वैराग्य
हुआ है! पालकी में बैठाकर भगवान को बन में ले जाने का अधिकार हमारा है! क्यों कि हमी ने इनके गर्भ कल्याण व जन्म कल्याणक
मनाये !
००००.
स्वर्ग से इन्द्र व देवता लोग कुंडलपुर आ गये और जब पालकी में भगवान को विराजमान पालकी पहले उठाने का करके पालकी उठाने लगे तब ....
अधिकार हमारा है। हमने ही भगवान के गर्भ में आने से पहले रत्न बरसाये, हमने ही पांडुक शिला पर ले जाकर इनका जन्माभिषेक किया। अब तुम कैसे कहते हो कि पालकी हम नहीं उठा सकते!
आज का दिन कितना पवित्र हैं। भगवान महावीर को वैराग्य हुआ है। चलो पालकी, में बैठा कर उन्हें वन में ले चलें।
हां हां चलिये।
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भगवान हमारी ही तरह मनुष्य है! हमारी ही तरह माता के गर्भ से आये। हमारी ही तरह इनका जन्म हुआ ! फिर ये बीच में देवता कहां से आ टपके ?
भैया । दलीलें तुम दोनों की ही
मजबूत है! मैंने बहुत विचार
"करने के बाद यही निर्णय किया है कि
। पहले पालकी वही उठाये जो इन जैसा बनने में सामर्थ हो !
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yud
Co
धर्म के लक्षण हे मनुष्यो ! यहां हम लाचार हैं। हम इनकी भूख लगती है। कंठ से अमृत भर जाता है
बस तो निर्णय के अनुसार हम मनुष्य ही पालकी को सर्वप्रथम उठाने के अधिकारी न ?
हुए
भैया । ठीक है । अधिकारी तो तुम ही हो ! परन्तु मैं तुम्हारे सामने झोली पसारता हूं। कुछ क्षणों के लिये मुझे मनुष्य पर्याय दे दो! बदले में चाहे मेरा सारा वैभव ले लो!
कोई किसी को अपनी पर्याय देने में समर्थ है ही नहीं! तुम तो अब यहीं भावना भाओ कि अगले भव में मनुष्य बने ! भगवान की तरह मुनि दीक्षा ले कर, आत्म कल्याण के पथ पर बढ़ते हुए 'मुक्ति प्राप्त करें! क्यों कि बिना संयम के मुक्ति नहीं और बिना मनुष्य हुए पूर्ण संयम नहीं !
तरह संयम धारण कर ही नहीं सकते। हमें इसी प्रकार और इन्द्रियों के विषयों की इच्छा होते ही तृप्ति हो जाती है। हम इच्छाओं को रोक ही नहीं सकते। पूर्ण संयम तो तिर्यञ्चों में भी नहीं है। नारकियों की तो बात ही क्या। इन जैसा तो आप ही बन सकते हो।
(हम अपनी हार स्वीकार करते हैं! उठाओ! पहले तुम्हीं पालकी
उठाओ! तुम
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देखो रे मनुष्यों, तुम्हें वह मनुष्य भव मिला है! जिसके लिये इन्द्र भी तरस रहा है। ऐसे अमुल्य नर जन्म को पाकर भी तुमने इन्द्रिय संयम व प्राणि संयम का पालन नहीं किया तो फिर संसार चक्र में घूमते ही रहोगे, फिर यह नर जन्म मिलना उतना ही कठिन होगा जैसे समुद्र में फेंका रत्न ! संयम धारण करने में देरी न करो। क्यों कि देखो न तीर्थंकर होते हुए भी भगवान महावीर मुक्ति प्राप्त करने के लिए संयम अड्डीकार जा रहे है !
करने
Buy
तर सत्ता
महान पुण्यशाली हो जो मनुष्य
बने !
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जैन चित्रकथा निर्णयानुसार पहले पालकी लेकर भूमिगोचर मनुष्य चले। फिर विद्याधर और अन्त में देव...
povered a way
भगवान ने वस्त्राभूषणों का त्याग किया केश लौंच किया 'नम सिद्धेभ्य'कहा और बढ़ चले उस राह पर जिसके बिना मुक्ति नहीं....
पं. धानत राय जी ने भी तो उत्तम संयम धर्म की महत्ता बतलाते हुए कहां हैं कि वह कैसा हैं?...
"जिस बिना नहि जिनराज सीमें"
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उत्तम तप धर्म
बहुत पहुंचे हुए महात्मा दीखते है ? क्यो न इनकी शरण ग्रहण कर लूँ कल्याण हो जायेगा मेरा!
अहा हा हा! मनचाहा मिल गया! सामने परमपूज्य दिगम्बर साधु कैसे तपस्वी कैसे सौम्यमूर्ति आत्म कल्याण के • लिये मुझे और चाहिये भी क्या ? चलूं उनके चरणो में !
और इस तरह दोनों भाइयो ने घर छोड़ा राज्य घोड़ा वैरागी बने ! परन्तु मार्ग
पकड़ा अलगअलग बारह वर्ष
बाद....
धर्म के लक्षण
महाराज! कृपया मुझे अपना शिष्य बना लीजिये। घर छोड़कर आया हूँ। आत्म कल्याण का इच्छुक हूँ!
बहुत उत्तम विचारा राजपुत्र भगवा वस्त्र धारण करो यहीं रहो तुम्हारा कल्याण होगा !
दुनियां की धधकती आग से निकल कर आपके चरणों में आ गया हूं। मुझे उबारिये ! मुझे भी अपने जैसा बना लीजिये !
गुरूदेव ! बहुत समय हो गया भाई से बिछड़े हुए भाई की खबर लेने जाने की तौर्व ईच्छा है। आज्ञा देने की 'कीजिये
कृपा
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से
वत्स भली विचारी तुमने ! मुनि दीक्षा लिये बिना दुखों छुटकारा पाना कर्मों से मुक्त होना असम्भव है मैं सहर्ष तुम्हे मुनि दीक्षा प्रदान करता हूं। तुम्हारा कल्याण हो !
अब तुम सब विद्याओं में मंत्र मंत्र तंत्र आदि में निपुण हो गये हो ! सहर्ष जाओ। और हां यह रस ताम्बी लेते जाओ इसमें वह रस है। जिससे तांबा सोना बनाया जा सकता है। इसे अपनी तपस्या का ही फल समझो!
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जैन चित्रकथा महाराज आपके छोटे भाई ने यह रस की तूम्बी भेजी है। इस रस से तांबा सोना बन जाता है। इसे ग्रहण किजिये और अपनी सब, दरिद्रता मिटा लीजिये!
Sigdyaalo
भैया! मुझे इसकी
जरूरत ही नहीं है लाये हो तो पटक दो इसे इन पत्थरो पर!
मा.
EN
३
MATRI
OJil
| गुरुदेव आपके भैया की हालत ठीक नहीं है। भैया मैंने तुम्हारे पास एक रस भेजा था जो तुमने पत्थरो पर फिकवा उनके पास तो लंगोटी तक भी नहीं और
दिया खैर मैं खाने की न पूछिये। मैं उनके पास 3 दिन रहा। 'तुम तो कहते थे इससे सोना बनता है। कहां बना बाकी बचा मुझे भी भूखे रहना पड़ा। मुझे तो लगता है सोना?क्या घर इसीलिये छोडा था? क्या वैराग्य रस लेकर मैं
उनका दिमाग भी|| इसीलिये लिया था? क्या कमी थी सोने की घर |स्वयं आपकी
खराब हो गया है। है! क्या गजब किया
सेवा में आया मैं और हां यदी सोना चाहिये तोलो कितना सोना उन्होने पत्थरों पर फिकवा तूम्बी के रसको ।।चाहिये?
है! ले लोन (पत्थरो पर फिकदिया वह अमूल्य रस अब
इसे सोना वा दिया मैं
Hoon
बना कर. क्या करूं मैया का दुखदेखा नहीं जाता बाकी बचा रस मैं
कितना भोला है क्या करता
सुरखी हो
यह इस रस को भी इस स्वयं ले कर उनके पास
लो।
शिला पर फेक देता हूं। जाता हूँ।
(REROIAS
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मुनि शुभचन्द्र ने तपस्वी शुभचन्द्र ने अपनी चरणरज को फेंका शिला पर और वह विशाल शिला स्वर्ण मय हो गई।
All
धर्म के लक्षण
भर्तृहरि ! तप का यह प्रभाव तो कुछ भी नहीं सम्यक तप से तो कर्मों के बंधन भी तड़ तड़ टूट कर गिर पड़ते है! और एक दिन मुक्ति की प्राप्ति हो जाती है। सुना नहीं, तप के विषय में क्या कहां है।" उत्तम तप सब माहि बरखाना, कर्म शैल को वजू समाना"
और भर्तृहरि भी बन गये दिगम्बर मुनि...
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हैं। यह क्या? कमाल की है आपकी तपस्या असली तपस्या तो यह है !
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उत्तम त्याग धर्म
एक दिन
वह पंडित जी
नदी
किनारे
पहुंचे और...
इतने में आ गए सेठ जी...
अजी पंडित जी (यहां क्यों खडे हो ? क्या बात है ?
जैन चित्रकथा
भव्यों ! उत्तम त्याग धर्म के पालन से संसार समुद्र भी पार किया जा सकता है। तभी तो शास्त्रो में त्याग धर्म की अपार महिमा गाई है!
महाराज में गरीब मल्लाह हूं। अगर में फोकट में ही लोगों को पार पहुंचाता रहूं तो मेरी गृहस्थी कैसे
चलेगी ?
महाराज ! अगर हम रुपये पैसे का त्याग कर दें तो एक दिन भी काम न चले त्याग कैसे किया जा सकता है!
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भैया । हमे नदी के उस पार जाना है। पैसे हमारे पास हैं नहीं। अगर तुम हमे उस पार पहुंचा दो तो बड़ी कृपा होगी !
सेठ जी ! बात तो कुछ भी नहीं। हमें नदीं के उस पार जाना है! यह नाविक बिना पैसे लिये नाव में बिठाता ही नहीं। और पैसे हमारे पास हैं नहीं। हम सोच रहे हैं उस पार न सही चलो इसी पार सामायिक
कर लेगें !
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धर्म के लक्षण
भैया यह लो हमारे दोनों के पैसे और ले चलो
उस पार!
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आइये सेठ जी। आइये पंडित जी। बैठिये नाव पर अभीले चलता
हूं उस पार!
उस पार k/महाराज। आप तो कहा करते अब समझा पंडित जी भैया वास्तव में तो हमें राग, द्वेष आदि पहंच कर! है कि त्याग से संसार समुद्र को | वास्तव में त्याग बिना || विकारों का त्याग करना चाहिये जिसे पूर्ण
भी पार किया जा सकता है। कल्या नहीं। जरा त्याग|| रूप से तो गृह त्यागी दिगम्बर मुनि ही कर P
आप से तो यह छोटी सी नदी के विषय में मुझे विस्तृत सकते हैं। परन्तु व्यवहार में दान को त्याग भी पार नहीं हो सकी। रूप से समझाइये तो
कहते है। सही।
का(भैया तुम भूलते हो। नदी जो पार हुई वह त्याग से ही तो हई है।अगर तुम पैसे जैब से निकालकर नाविक को नदेते। यानि अगर तुम पैसो का त्याग न करते तो नदी कैसे पार होती
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परन्तु महाराज यह तो समझाइये कि दान किस किस वस्तु का करना चाहिये और किस किस को दान ! देना चाहिये !
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पंडित जी ! उत्तम त्याग धर्म का पालन पूर्णतया मुनि ही कर सकते हैं। ऐसा आपने बतलाया फिर यह तो बताइये आहार दान व औषधि दान मुनि कैसे करते है। जब कि उनके पास तो ये
वस्तुएं होती ही नहीं !
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जैन चित्रकथा
'दान चार प्रकार का होता है। आहार, औषधि, शास्त्र (ज्ञान), अभय और चार प्रकार के पात्र होते है। जिन्हे दान दिया आता है मुनि, अजिंका, श्रावक व श्राविका
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पंड़ित धानत राय जी ने इस बात को कितने सुन्दर ढंग से कहा है:
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" धनि साधु शास्त्र अभय दिवैया, त्याग राग विरोध को, बिन दान श्रावक साधु दोनों ले हैं नाहिं बोधि को।”
ठीक है भाई ! आहार दान व औषधिदान तो श्रावक ही करते है। मुनियों के तो ज्ञान दान व अभय दान की मुख्यता बतलाई है और असली है राज द्वेष का त्याग। वह तो मुनियों के होता ही है!
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धर्म के लक्षण
भैया। हमारे पास केवल दो लंगोटी है एक पहनते है दूसरी धोकर सुखा देते है। परन्तु कल हमारी लंगोटी चूहे काट गये अब क्या करें।
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उत्तम आकिंचन्याधर्म
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महाराजजी चिन्ता न कीजिये। लंगोटी तो मैं ला देता है। रही चूहों की बात एक बिल्ली पाल लीजाये तो कैसा रहेगा।
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भैया बिल्ली तो तुमने रखवा दी। अब इस बिल्ली को चाहिये प्रतिदिन दूधइसका प्रबन्ध कैसे हो?
भैया गाय तो तुमने रखवा (दी। परन्तु इसके घास का
प्रबन्ध?
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इसके प्रबन्ध के लिये एक गायला देता हूं। फिर. दूधका झंझट ही न रहेगा।
चिन्ता क्यों करते है महाराज। मेरा खेत पड़ा है। उसमें रवेती कीजिये। घास की समस्या ही
न रहेगी।
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घास की भंझट तो मिट गई परन्तु एक परेशानी और आ खडी हुई। इसके साथ अनाज भी बहुत पैदा होता है। उसे कहां रखूं ! उसका क्या करूं?
तुम्हारे कारण मुझे सभी सुरव मिल गये परन्तु यह देखो आज राजदरबार से नोटिस आया है। 10 दिन पहले मेरी गाय पड़ोसी के श्वेत में घुस कर उसके खेती चर गई थी। उसने मेरे ऊपर मुकदमा कर दिया है। कल मुकदमे की तारीख है!
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जैन चित्रकथा
आप बेफिक्र रहिये! आपके लिये एक सुन्दर सा बड़ा सा मकान बनवाये देता हूं। ठाठ से रहिये जो अनाज है वह बाजार में बेचिये। आपके पास धन भी हो जायेगा और सब • सुख सुविधाएं भी !
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अब तो पूरी मौज है भैया! परन्तु यह इतना बड़ा मकान और रहने वाला मैं अकेला खाने को दौड़ता है यह मकान !
इसके लिये एक उपाय ऊंचा है। आपकी शादी एक सुन्दर सी लड़की से कराये देते है। फिर आपको सुख ही सुख न कोई झगड़ा न टंटा
चिन्ता काहे को करते हो महाराज! एक अच्छा सा वकील किये लेते है । घबराइये नहीं मैं भी आपके साथ चलूंगा।
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धर्म के लक्षण क्या तुम्हारी गाय इनके खेत में घुसी? क्या उसने इनके रखेत को नुकसान पहुंचाया? क्या तुम अपना अपराध स्वीकार
करते हो?
श्रीमान जी जो आप कह रहे है सत्य है। इनके खेत में मेरी गाय घुसी। उसने इनके खेत को नुकसान भी पहुंचाया। निसंदेह अपराध मेरा ही है। परन्तु...
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परन्तु क्या?
और लोगों ने देखा साधु नग्न दिगम्बर बनकर आत्म कल्याण के पथ पर बदा चला जारहा था। पं.धानतराय जी की लेखनी का कमाल तो देखिये क्या लिरवा है उन्होने आकिंचन्य के विषय में.. "फांस तनिक सी तन में साले,चाह लंगोटी की दख भाले"
इस सब झंझटणाकी जड़ है यह लंगोटी बस अब मैं इसका भी त्याग करता हूं। यह न रहेगी तो कोई झंझट भी रहेगा।
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उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म
जैन चित्रकथा
मित्र कमठ क्या बात है? आज इतने परेशान क्यों हो? सुना है दो दिन से कुछ खाया पिया भी नहीं। क्या हो गया है तुम्हे?
क्या बताऊंयार कलहंस जब से वसुन्धरी को देखा हैं परेशान हैं। उसके बिना अब जीवित रहना असम्भव है।
क्या कह रहे हो मित्रहोश में तो हो! जानते हो वह कौन है! तुम्हारे छोटे भाई मरूभूति की पत्नी तुम्हारी पुत्री समान इतना बड़ा पाप शर्म नहीं आती।
कुछ भी हो|अगर तुम मुझे जीवित देखना चाहते हो तो तुम्हें वसुन्धरी को मुझसे मिलाना ही होगा।
है। ऐसी तबियत है जेठ जी की। हे भगवान उन पर क्या आपत्ति आई है।वै भी तो यहां पर नहीं है। क्या करूं अब)
सुनो देवी। तुम्हारे जेठ कमठ की तबियत बहुत खराब है। मरणासन है बेचारे बगीचे की कोठी में पड़े है। सब उपाय कर लिये परन्तु ठीक नहीं हो पा
रहे हैं।
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धर्म के लक्षण यह तो तुम जानो देवी पर यदि ऐसा होगया तो आने पर||जब मैने उन्हें कहा वह बार बार मरुभूति उनकी क्या हालत होगी। उन्हें कि मरूभति तो बाहर मरूभूति पुकार रहे है। कहीं अपने बड़े भाई से कितना | गया हुआ है! तो उन्होने ऐसा न हो जाये कि मरुभूति
अधिक प्रेम है। कहा अगर मरूभूति के आने से पहले उनके प्राण
नहीं है तो उसकी पखेरु उड़ जायें।
पत्नी वसुन्धरी से ही कह दो किवह जरा मुझे देख जायें। अब
तो मैं संसार से विदा और क्या
हो रहा हूं! कहा उन्होंने?
क्या ऐसा कहा उन्होने ? अगर मैं नहीं जाती तो वे आ कर मुझ पर बड़े क्रोधित होंगे और कहेंगे कि मैं नहीं था तो कम से कम तुम्हें तो भैया की खबर लेने जाना
चाहिये था।
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भैया चलना तो मुझे जरूर चाहिये। परन्तु उनसे पूछे बिना घर से बाहर जाना)
क्या ठीक रहेगा।
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परन्तु अगर उसने दम तोड़ दिया तो जानती हो मरूभूति कितना बुरा भला कहेगा तुम्हें। आगे
तुम जानो।
बात तो ये ठीक कह रहे है। और मैं किसी और को तो देरंकने नहीं जा रही है।वह मेरे जेठ ही तो है। और जेठ होते है।
पिता तुल्य!
अच्छा भाई चलो।
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जैन चित्रकथा वसुन्धरी पहुंची बगीचे में कमठ को बिल्कुल ठीक देखा तो दंग रह गई समझ गई धोखा है।परकर ही क्या सकती थी। बेचारी कमठ ने पकड़ लिया उसे रोई चिल्लाई परन्तु व्यर्थ कमठ ने वह सब कुछ किया जो नहीं करना चाहिये। मरूभूति के लौटने पर.....
मंत्री मरूभूति जी! तुमने सुना तुम्हारे पीछे तुम्हारे भाई ने क्या किया? अब तो हमें उसे दंड देना ही पड़ेगा।
Wमहाराज वह मेरे बड़े भाई हैं। गलती हो गई होगी उनसे,क्षमा
कर दिजिये उन्हें।
परन्तु महाराज नमाने कमठ का काला मुंह कर के गधे पर बिठा कर देश निकाला दे दिया गया....
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तभी तो पं.घानतराय जी ने सावधान करते हुए।
कहा है:"उन्तम ब्रहम्चर्य मन आनो,
माता बहिन सुता पहिचानोग
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जैन धर्म के प्रसिद्ध महापुरुषों पर
आधारित रंगीन सचित्र जैन चित्र कथा
जैन धर्म के प्रसिद्ध चार अनुयोगों में से प्रथमानुयोग के अनुसार जैनाचार्यो के द्वारा रचित ग्रन्थ जिनमें तीर्थकरो, चक्रवर्ति, नारायण, प्रतिनारायण, बलदेव, कामदेव, पंचपरमेष्ठी तथा विशिष्ट महापुरुषों के जीवन वृत्त को सरल सुबोध शैली में प्रस्तुत कर जैन संस्कृति, इतिहास तथा आचार-विचार से सीधा सम्पर्क बनाने का एक सरलतम् सहज साधन जैन चित्र कथा जो मनोरंजन के साथ-साथ ज्ञान वर्द्धक संस्कार शोधक, रोचक सचित्र कहानियां आप पढ़े तथा अपने । बच्चों को पढ़ावें आठ बर्ष से अस्सी तक के बालकों के लिये एक आध्यामिक टोनिक जैन चित्र कथा
द्वारा आचार्य धर्मश्रुत ग्रन्थमाला एवं मानव शान्ति प्रतिष्ठान
ब्र. धर्मचंद जैन शास्त्री प्रतिष्ठाचार्य
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कुछ क्षण आपसे भी...
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सम्मानीय धर्मानुरागी बन्धु
सादर जयवीर।
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जैन साहित्य में विश्व की श्रेष्ठतम् कहानियों का अक्षय भण्डार भरा है। जिसमें नीति, उपदेश, वैराग्य, बुद्धिचातुर्य, वीरता, साहस, मैत्री, सरलता, अहिंसा, क्षमाशीलता, अपरिग्रह, त्याग, तप, संयम आदि विषयों पर लिखी गई हजारों सुन्दर शिक्षाप्रद रोचक कहानियों में से चुन-चुन कर सरल भाषा-शैली में भावपूर्ण - रंगीन चित्रों के माध्यम से प्रस्तुत करने का एक छोटा-सा प्रयास विगत कई वर्षों - से चल रहा है अब यह जैन चित्र कथा अपने 15वें वर्ष में पदापर्ण करने जा रही
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इन चित्र कथाओं के माध्यम से आपका मनोरंजन तो होगा ही साथ में जैन । इतिहास, संस्कृति, धर्म, दर्शन, और नैतिक जीवन मूल्यों से भी आपका सीधा सम्पर्क होगा।
हमें विश्वास है कि इस तरह की चित्र कथायें आप निरन्तर प्राप्त करना । चाहेगें। अतः आप इस पत्र के साथ छपे सदस्यता पत्र पर अपना पूरा पता साफ-साफ लिखकर भेज दें। सदस्यता शूल्क :तीन वर्ष का-500
___पांच वर्ष का-700 हमारे पुराने अंको को प्राप्त करने के लिए लगभग 25 अंकों को जो वर्तमान ! में उपलब्ध है उनकी राशि 550 रु. है फार्म व ड्राफ्ट/M.0. प्राप्त होते ही हम
आपको रजिस्ट्री से छपे अंक भेज देंगे।
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सम्पादकीय
धर्म के दश लक्षण
आधुनिक युग में भौतिकता की चकाचौंध से विपरीत हो गई है दृष्टि और मति जिनकी। - ऐसे अभागे प्राणी पंचेन्द्रियों के विषयों में आकण्ट डूबे हुए आत्मोत्थान के मार्ग से दूर हो चुके । है। उन्हें अपना हित धर्म से नहीं धन में दिखता है। धन को सब कुछ मान बैठे है, इसलिए - धर्म को तिलांजलि दे दी है। . पयूषण पर्व एक अदभूत पर्व है। इसका उद्देश्य व्यक्ति को तनाव के कारणों से मुक्ति दिलाना।
तनाव के कारण है मनुष्य के अपने विकार । इन विकारों का जन्म अधर्माचरण से होता है, अधर्म से
बचते हुए धर्म का अनुपालन करनेवाला जीव ही निर्विकार बन सकता है यदि व्यक्ति के जीवन में से - क्रोध, मान, माया, लोभ असत्य आदि विकार दूर हो जावे तो जीव को सुख शान्ति की प्राप्ति होती
है। उत्तम क्षमादि भाव वस्तुतः आत्मा के गुण है तथा प्राणी मात्र में पाये जाते है। धर्म का सेवन हम | विषयों का विमोचन किए बिना करेगें तो स्वाद नहीं आयेगा। धर्म की बात भी जितनी बार सुनेंगे तो कभी न कभी उस धर्म की हमारे उपयोग में स्थिरता होगी।
इस कौमिक्स में धर्म के दश लक्षणों को सरलता के साथ प्रस्तुत किया गया है। धर्म और जीवन का गहरा सम्बन्ध है जिस जीव के जीवन में धर्म नहीं वह शव के समान है। जो जीव धर्म को सही रूप में धारण करता है वह शिव बन जाता है, आज की सबसे विकट और जटिल समस्या यही है कि व्यक्ति विविध रूपों में धर्म का नाम लेता है। कई प्रकार की धार्मिक क्रियायें - भी करता है पर फिर भी धर्म उनके जीवन में उतर नहीं पाता। इसका प्रमुख कारण यही है।
कि वह धर्म के अनुकूल अपनी पात्रता विकसित नहीं कर पाता। धर्म को जीवन में उतारने के ! लिए उसके अनुरूप पात्रता विकसित करना आवश्यक है। और यह पात्रता जीवन की सत्यता : कोमलता और सरलता से आती है।
ब्र. धर्मचंद जैन शास्त्री
प्रतिष्ठाचार्य
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________________ परम पू. चारित्र चक्रवर्ति श्री आचार्य शान्तिसागर जी महाराज संयम वर्ष के पुनीत अवसर पर प्रकाशित। आचार्य 108 श्री शांतिसागर जी महाराज आचार्य श्री धर्म सागर जी महाराज जैनाचार्यों द्वारा लिखित सत्य कथाओं पर आधारित जैन चित्र कथा प्रकाशक आचार्य धर्मश्रुतग्रन्थमाला एवं भारतवर्षीय अनेकान्त विद्धत परिषद् संचालक एवं संपादक धर्मचंद शास्त्री श्री दिगम्बर जैन मंदिर, गुलाब वाटिका लोनी रोड, जि. गाज़ियाबाद फोन : 32537240 ब्र. धर्मचंद शास्त्री प्रतिष्ठाचार्य