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________________ तुम इतना आग्रह कर रही हो तो चलो तुम्हारे हाथ से एकग्रासलेले जैन चित्रकथा भोजन तो आपने अपने हाथ से बना ही लिया। अब तो हमारी एक ही इच्छा है। कि आप हमारे हाथ से ही भोजन कर लेते तो हमारे सब पाप धुल जाते। और हां पंडित 500रूपये मिल रहे है। मेरा क्या जी इसके लिये आपको बिगड जायेगा इसके हाथ से भोजन कुछ प्रायश्चित करना करने में जैसे मेरे हाथ वैसे इसके पडे तो उसके लिये हाथ बल्कि इसके हाथ तो हमसे हाजिर है आपकी भी कोमल है बेचारीका मन सेवा में 500 रूपये। भी रह जायेगा और असल बात तो यह है कि यहां देखते भी कौन है! पंडित जी ने ग्रास लेने के लिये मुंह खोला तो वेश्या ने ग्रास देने के बजाय गाल पर थप्पड़ जड़ दिया... (यह क्या किया तुमने? तुम बडी दुष्ट हो,पापी हो, तुम्हारा पंडित जी महाराज अब तो सुधार कभी समझ गये होगें पाप का बाप नहो सकेगा। क्या है। “लोभ" जिसने आपको यहां तक गिरा दिया। कि मेरे हाथ से भी भोजन करने को तैयार हो गये। घर लौट जाओ अब बनारस जाने की जरूरत नहीं। इसीलिये तो पं.धनात राय जी ने लिखा है:“लोभ पाप का बापबखाने"
SR No.033223
Book TitleDharm Ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Jain
PublisherAcharya Dharmshrut Granthmala
Publication Year
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Comics, Moral Stories, & Children Comics
File Size9 MB
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