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एस धम्मो सनंतनो
ध्यान की तरफ तुम्हारी दृष्टि जा रही है। धन्य हो कि साधना में रस उमग रहा है। साधु! साधु! ऐसा कहकर अपने आशीषों की वर्षा की। तब ये सूत्र उन्होंने कहे थे: ___शून्य गृह में प्रविष्ट शांत-चित्त भिक्षु को भली-भांति से धर्म की विपस्सना करते हुए अमानुषी रति प्राप्त होती है।'
जो व्यक्ति शून्य गृह में ठहर जाए; जो अपने भीतर निर्विचार हो जाए; जिसके भीतर विचारों की तरंगें न उठती हों। शून्य यानी निर्विचार। जो व्यक्ति शून्य हो जाए, वही शांत-चित्त है।
जो लोग तुम्हें साधारणतः शांत-चित्त दिखायी पड़ते हैं, वह शांति सिर्फ ऊपर से साधी गयी है। क्योंकि भीतर तो विचारों का बवंडर चल रहा है। चुप होने से कोई शांत नहीं होता। न बोलने से कोई शांत नहीं होता; न सोचने से शांत होता है।
तुम ऊपर से बिलकुल पत्थर की मूर्ति बनकर बैठ सकते हो, और भीतर विचार चलते रहें, तो इस पत्थर की मूर्ति बनने से कुछ भी नहीं होगा। ___ एक युवक दीक्षा लेने एक सदगुरु के पास पहुंचा-एक बौद्ध भिक्षु के पास। बौद्ध भिक्षु एक बुद्ध-मंदिर में रहता था। जब वह युवक आया, तो उस.गुरु ने पूछा कि पहले कहीं और कुछ सीखा है? उसने कहा ः हां, पहले मैं एक योगी के पास सीखा हूं। क्या सीखे हो? उस युवक ने जल्दी से पालथी मार ली; पद्मासन में बैठ गया। आंखें बंद कर लीं। दो मिनट तक गुरु देखता रहा। उसने कहा कि अब आंखें खोलो और रास्ता पकड़ो।
युवक ने कहाः रास्ता पकड़ो! मैं आपके पास शिष्य होने आया हूं।
उस गुरु ने कहा : यहां पत्थर की मूर्तियां इस मंदिर में बहुत हैं। हमें और जरूरत नहीं है। इन्हीं को साफ-सम्हाल करते बहुत झंझट हो रही है। यह पद्मासन लगाकर तुम बैठ गए, लेकिन भीतर तुम्हारे मैं पूरा बाजार देख रहा हूं।
पद्मासन लगाने से क्या होगा! शीर्षासन लगाने से भी क्या होगा? भीतर से बाजार बंद होना चाहिए। वही एकमात्र वास्तविक आसन है। शरीर के आसनों में मत उलझ जाना। असली सवाल मन का है; वहां शून्यता होनी चाहिए, तो शांत-चित्त होता है कोई। और जो शांत-चित्त होता है, वही धर्म की विपस्सना कर पाता है।
विपस्सना का अर्थ होता है, लौटकर देखना। पतंजलि के शास्त्र में पतंजलि ने जिसे प्रत्याहार कहा है-पीछे लौटकर जाना; जिसको महावीर ने प्रतिक्रमण कहा है। आक्रमण यानी बाहर जाना, दूसरे पर हमला। प्रतिक्रमण यानी अपने पर आना। जिसको जीसस ने मेटानॉया कहा है-वापसी। उसी को बुद्ध विपस्सना कहते हैं। _ विपस्सना का अर्थ होता है : लौटकर अपने स्रोत को देखना। जब विचारों का जाल हट जाता है और सामने सिर्फ शून्य रह जाता है, तभी तुम लौटकर पीछे देख सकते हो। नहीं तो विचार तुम्हें पकड़े रहते हैं, लौटने नहीं देते। विचारों के उलझाव के कारण तुम अपने मूलस्रोत को देखने से वंचित रह जाते हो।
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