Book Title: Dhammapada 12
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 336
________________ एस धम्मो सनंतनो जाना जाता है जब रहस्य, तो यही जाना जाता है कि जानने को कुछ भी नहीं है। और क्या जाना जाता है! एक आश्चर्यविमुग्ध भाव घेर लेता है। एक अहोभाव घेर लेता है। तुम फिर दौड़ने लगते हो अस्तित्व के पीछे, जैसा बच्चा तितली के पीछे दौड़ता है। तुम फिर से समुद्र के तट पर, जीवन के समुद्र तट पर शंख-सीप बीनने लगते हो। फिर तुम्हारे जीवन में अहर्निश आनंद की वर्षा शुरू हो जाती है। चौथा प्रश्नः मनोमंथन करने पर पता चलता है कि सांसारिक वासनाएं तो नहीं हैं, जो मृत्यु के समय बंधन बनें। लेकिन सत्य पाने की वासना ही बनती जाती है, सो क्या करूं? कृपाकर मार्ग-दर्शन करें। वह भी रोक लेगी। वासना मात्र रोकती है। इससे कुछ भेद नहीं पड़ता कि - वासना किस चीज की। विषय-वस्तु से कोई भेद नहीं पड़ता। तुम धन चाहो कि ध्यान चाहो, चाह का स्वरूप एक है। और चाह रोकती है। तुम पद चाहो कि परमात्मा चाहो, चाह की भ्रांति एक है। चाह का अर्थ क्या होता है? यह समझ लो। चाह का अर्थ होता है : जैसा मैं हूं, वैसा ठीक नहीं हूं। कुछ और होना चाहिए। थोड़ा और धन, थोड़ा और पद, थोड़ा और ध्यान, थोड़ा और सत्य, थोड़ा और परमात्मा। लेकिन थोड़ा और होना चाहिए। जैसा मैं हूं, उससे मैं संतुष्ट नहीं। चाह का अर्थ है-असंतोष। फिर चाह किस बात की है, इससे क्या फर्क पड़ेगा? असंतोष तो रहेगा ही।। तुम गए; एक शांत झील में कंकड़ फेंका-कंकड़, साधारण सा कंकड़-तो लहर उठती है। तुम सोचते हो, कोहिनूर हीरा फेंकोगे, तो लहर नहीं उठेगी! कोहिनूर हीरा फेंको-पानी को क्या फर्क पड़ता है ? तुमने कंकड़ फेंका कि कोहिनूर, पानी को तो कोई भी भेद नहीं है। कोहिनूर पत्थर है, और पत्थर कोहिनूर है। फिर भी लहरें उठेगी। और लहरें उठ जाएंगी तो चांद का जो प्रतिबिंब बन रहा है, वह भ्रष्ट हो जाएगा। चाह पत्थर की तरह गिरती है तुम्हारे भीतर। फिर चाह सोने की हो कि स्वर्ग की—इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। फिर चाह संसार की हो कि परलोक की—इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। ___चाह पत्थर की तरह गिरती है तुम्हारे चित्त में और चित्त कंप जाता है। और चित्त के कंपन के कारण सत्य खो जाता है। सत्य को चाहना हो, तो सत्य को चाह मत 321

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