Book Title: Dhammapada 12
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 309
________________ एस धम्मो सनंतनो उन्होंने कहाः देख, मंत्र दूंगा-मंत्र-वंत्र है नहीं कुछ-मंत्र दूंगा। लेकिन पहले तू संन्यस्त हो जा। मंत्र के लोभ में वह आदमी संन्यस्त हुआ। लेकिन बुद्ध ने देखा होगा कि इस आदमी में क्षमता तो पड़ी है, बीज तो पड़ा है। वह जो कश्यप बुद्ध के मंदिर में चंदन लगाया था; वह जो भावदशा इसकी सघन हुई थी, वह आज भी मौजूद है। तड़फती है मुक्त होने को। उस पर ही दया की होगी। यह आदमी ऊपर से तो भूल-भाल चुका है। किस जन्म की बात! कहां की बात! किसको याद है! इस आदमी की बुद्धि में तो कुछ भी नहीं है। सब भूल-भाल गया है। इसकी स्मृति में कोई बात नहीं रह गयी है। इसे सुरति नहीं है। लेकिन इसके भीतर ज्योति पड़ी है। __ कल एक युवक नार्वे से आया। मैंने लाख उपाय किया कि वह संन्यस्त हो जाए, क्योंकि उसके हृदय को देखू, तो मुझे लगे कि उसे संन्यस्त हो ही जाना चाहिए। और उसके विचारों को देखू, तो लगे कि उसकी हिम्मत नहीं है। सब तरह समझाया-बुझाया उसे कि वह संन्यस्त हो जाए। तरंग उसमें भी आ जाती थी। बीच-बीच में लगने लगता था कि ठीक। हृदय जोर मारने लगता; बुद्धि थोड़ी क्षीण हो जाती। लेकिन फिर वह चौंक जाता। दो हिस्सों में बंटा है। सिर कुछ कह रहा है। हृदय कुछ कह रहा है। और हृदय की आवाज बड़ी धीमी होती है; मुश्किल से सुनायी पड़ती है। क्योंकि हमने सदियों से सनी नहीं है, तो सनायी कैसे पड़े! आदत ही चूक गयी है। खोपड़ी में जो चलता है, वह हमें साफ-साफ दिखायी पड़ता है। हम वहीं बस गए हैं। हमने हृदय में जाना छोड़ दिया है। तो यह आदमी तो चाहता था मंत्र। मंत्र के लोभ में संन्यस्त हुआ। इसे पता नहीं कि बद्धों के हाथ में तम अंगली दे दो, तो वे जल्दी ही पहंचा पकड़ लेंगे। पकड़े गए कि पकड़े गए। फिर छूटना मुश्किल है। बुद्ध ने उसको समझाया होगा कि अब तू ध्यान कर—तो मंत्र। समाधि लगा-तो मंत्र! ऐसे धीरे-धीरे कदम-कदम उसको समाधि में पहुंचा दिया। जब वह समाधिस्थ हो गया, तो वह तो भूल ही गया मंत्र की बात। कौन न भूल जाएगा! महामंत्र मिल गया। अब तो उसे खुद भी दिखायी पड़ गया होगा कि वह बात ही मूढ़ता की थी कि मैं मंत्र मांगता था। न तो उन्होंने काटा था, न कोई मंत्र था। बड़ी रोशनी के सामने आकर छोटी रोशनी अपने आप लुप्त हो गयी थी। किसी ने कुछ किया नहीं था। बुद्ध कुछ करते नहीं हैं। बुद्ध कोई मदारी नहीं हैं। जब ब्राह्मण उसे लेने के लिए आए, तो वह हंसा और बोला कि तुम लोग जाओ। मैं तो अब नहीं जाने वाला हो गया हूं। मैं तो ऐसी जगह ठहर गया हूं, जहां से जाना इत्यादि होता ही नहीं। मैं समाधिस्थ हो गया हूं। 294

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