Book Title: Dhammapada 12
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 278
________________ अप्प दीपो भव! झटककर खोलते हो, जैसे दरवाजे का कोई कसूर हो। क्रोध में होते हो, तो जूता ऐसा फेंकते हो निकालकर...। ___ एक झेन फकीर था नान-इन। उसके पास एक आदमी मिलने आया। वह बड़े क्रोध में था। घर में कुछ झगड़ा हो गया होगा पत्नी से। क्रोध में चला आया। आकर जोर से दरवाजा खोला। इतने जोर से कि दरवाजा दीवाल से टकराया। और क्रोध में ही जूते उतारकर रख दिए। भीतर गया। नान-इन को झुककर नमस्कार किया। नान-इन ने कहा कि तेरा झुकना, तेरा नमस्कार स्वीकार नहीं है। तू पहले जाकर दरवाजे से क्षमा मांग। और जूते पर सिर रख; अपने जूते पर सिर रख और क्षमा मांग। उस आदमी ने कहाः आप क्या बात कर रहे हैं। दरवाजे में कोई जान है, जो क्षमा मांगू! जूते में कोई जान है, जो क्षमा मांगू! नान-इन ने कहाः जब इतना समझदार था, तो जूते पर क्रोध क्यों प्रगट किया? जूते में कोई जान है, जो क्रोध प्रगट करो! तो दरवाजे को इतने जोर से धक्का क्यों दिया? दरवाजा कोई तेरी पत्नी है? तू जा। जब क्रोध करने के लिए तूने जान मान ली दरवाजे में और जूते में, तो क्षमा मांगने में अब क्यों कंजूसी करता है? ___ उस आदमी को बात तो दिखायी पड़ गयी। वह गया; उसने दरवाजे से क्षमा मांगी। उसने जूते पर सिर रखा। और उस आदमी ने कहा कि इतनी शांति मुझे कभी नहीं मिली थी। जब मैंने अपने जूते पर सिर रखा, मुझे एक बात का दर्शन हुआ कि मामला तो मेरा ही है। __ लोग बिलकुल अप्रौढ़ हैं। बच्चों की भांति हैं। तुम दुख के कारण नहीं देखते। दुख के कारण, सदा तुम्हारे भीतर हैं। दुख बाहर से नहीं आता। और नर्क पाताल में नहीं है। नर्क तुम्हारे ही अचेतन मन में है। वही है पाताल। और स्वर्ग कहीं आकाश में नहीं है। तुम अपने अचेतन मन को साफ कर लो कूड़े-करकट से, वहीं स्वर्ग निर्मित हो जाता है। स्वर्ग और नर्क तुम्हारी ही भाव-दशाएं हैं। और तुम ही निर्माता हो। तुम ही मालिक हो। तो दुख को जो देखेगा, उसके हाथ में दुख को खोलने की कुंजी आ जाती है। और मजे की बात है कि दुख को जो देखेगा, सामना करेगा, वह दुख का अनुगृहीत होगा। क्योंकि हर दुख एक चुनौती भी है। और हर दुख तुम्हें निखारने का एक उपाय भी है। और हर दुख ऐसे है, जैसे आग। और तुम ऐसे हो, जैसे आग में गुजरे सोना। आग से गुजरकर ही सोना कुंदन बनता है। मैं छांव-छांव चला था अपना बदन बचाकर कि रूह को एक खूबसूरत-सा जिस्म दे दूं न कोई सिलवट, न दाग कोई न धूप झुलसे, न चोट खाए 263

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