Book Title: Devdravyadisiddhi Aparnam Bechar Hitshiksha Author(s): Sarupchand Dolatram Shah, Ambalal Jethalal Shah Publisher: Sha Sarupchand Dolatram Mansa View full book textPage 4
________________ ( ३ ) न्द्रिय जीवोंको अन्तरंतर्महूर्तमें क्षुधावेदनी सताती है । और गर्मी सर्दी आदि अनेक कष्ट उठाने पड़ते हैं । पञ्चेन्द्रियतियेच योनिमें कभी गधा बनकर उतना भार ढोना-उठाना पड़ता है कि ऊपरका चमड़ा भी उतर जाता है और चौमासेकी मोसम में वर्षादके कारण उसमें कीड़े आदि पड़नेसे भारी वेदना सहनी पड़ती है । इसीतरह सड़े हुए कुत्ते कितना दुःख पाते हैं, जो किसीसे भी अज्ञात नहीं | उन्हें अपने घर के आंगन में भी बैठने नहीं देते । मतलब कि अति दुःखदायक नरक और तिर्यंच गतिके अन्दर अनन्तदुःख जीवने सहन किये हैं और मानव तथा देवयोनि में भी अनेक कायिक तथा मानसिक व्यथाएं होती हैं । गर्भावासका भी दुःख बड़ा भयङ्कर है और मरनेकी वेदना भी कम नहीं है । आघि व्याधि तथा दारिद्र्यादि से पीड़ित प्राणी जहां तहां देखने में आते हैं । गरज़ कि सम्पूर्ण जगत् दुःखमय है, इस दुःखमय संसारका मुख्य कारण कर्म है और कर्मका बन्ध चार हेतुओं से होता है जिनमें मिध्यात्व मुख्य हेतु हैं | जबतक मिथ्यात्त्वका ज़ोर हो तबतक जप, तप, क्रियाकाण्ड, भस्म पर लिंपन या आकाशमें चित्रामकी तरह सर्व निष्फल हैं । इसलिए प्रथम मिध्यात्वको त्यागकर सम्यक्त्वको प्राप्त करना चाहिए । देवाधिदेव जिनेश्वरदेवको देवरूप और पञ्चमहात्रतधारी मुनिको गुरुरूप और वीतरागप्ररूपित दयामय धर्मको ही धर्मरूप मानने से सम्यक्त्व प्राप्त होता है। कितनेक महापुण्योदयसे सम्यक्त्वको पाकर भी पापोदयसे नास्तिकजनों के 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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