Book Title: Devdravyadisiddhi Aparnam Bechar Hitshiksha Author(s): Sarupchand Dolatram Shah, Ambalal Jethalal Shah Publisher: Sha Sarupchand Dolatram Mansa View full book textPage 3
________________ (२) सकता है कि हा ! हा! ! एक अज्ञानताके कारण जगद्वासी जीव कितने कठोर दुःखके भागी बन चुके हैं । कितने ही कालतक नरककी असह्य पीड़ा परमाधामीके हाथसे या पारस्परिकविग्रहसे रो रो कर सहन करनी पड़ी। वहांकी भूमिकी उष्णता सहन करनी कुछ सहेल बात नहीं है । यहां जोरसे जलते हुए अग्निके कुंडमें पांव रखना और वहांकी जमीन पर पांव रखना समान है यानी क्षेत्रके स्वभावसेही वहांकी- नरककी जमीन इस प्रकार उष्ण रहती है । ऐसी ज़मीनमें असंख्य वर्षा तक पड़े रहना क्या कम दुःख है ? वहांकी क्षुधाने तो सीमा ही छोड़दी! ढाईद्वीपके अन्नको एक जीव खालेव तो भी क्षुधा शमन नहीं होवे !! इसीतरह शीत व्यथाका भी पार नहीं । वहांके नारकको खूब बरफ़ जमे हुए स्थानपर लेजाएं और वहांपर उसको सुलाकर उसको बरफ़से चारों ओर ढकदेवें तब वह मानता है कि मैं कुछ उष्णतामें आया हूँ । अब आप विचार कीजिए कि वहां किस दर्जहकी शीत व्यथा सिद्ध हुई । मतलब कि नरकमें भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, दुर्गंध, अंधकार, कटाकटी और लडालड़ी ऐसी चलती है कि वहांपर एक क्षणभर भी जीवको सुख नहीं मिलता । तिर्यचकी योनिमें निगोदअवस्थामें अव्यक्तदुःखका पार नहीं है। एक श्वासमें सतरहसे अधिक जन्म मरण करने पड़ते हैं। बादर तथा सूक्ष्म पृथ्वी, अप, तेऊ, वायु, साधारण प्रत्येक वनस्पतिकी योनियोंमें भी बड़ी भारी वेदना सहन करनी पड़ती है। बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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