Book Title: Deshi Shabdakosha
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 8
________________ पुरोवाक् भगवान महावीर ने अर्धमागधी प्राकृत में प्रवचन किया था । जनता सरलता से उनकी बात समझ सके- यही प्रयोजन था । जनता के लिए जनता की भाषा में बोलना एक नया काम था । उस समय के अधिकांश धर्माचार्य पंडितों की भाषा में ही बोलते और लिखते थे। उनकी बात बड़े लोगों तक पहुंच पाती थी । पाद - विहार और जनता की भाषा में प्रवचन – इन दोनों प्रवृत्तियों के कारण महावीर जनता के बन गए थे । उनके शिष्य भारत के अनेक प्रान्तों में विहार करते थे और अनेक प्रान्तों के मुमुक्षु उनके शिष्य बनते थे । आगम साहित्य में एक अर्थबोध के लिए अनेक शब्दों एवं धातु-पदों का प्रयोग मिलता है । व्याख्याकारों ने उसका कारण बताया है कि अनेक देशों के शिष्यों को समझाने के लिए अनेक शब्दों और क्रिया-पदों का प्रयोग किया गया । संस्कृत की एक सीमा बन चुकी थी । उसमें विभिन्न देशों में प्रचलित शब्दों के समावेश के लिए अवकाश नहीं रहा । प्राकृत जन-भाषा थी । उसका लचीलापन बना रहा । वह किसी घेरे में नहीं बंधी, इसलिए उसका सम्पर्क देशी शब्दों से बना रहा । देशी शब्द व्याकरण से बंधे हुए नहीं हैं । उनके लिए 'शेषं संस्कृतवत्' - इस सूत्र की कोई अपेक्षा नहीं है । उनके लिए 'प्रकृतिः संस्कृतम्' इस विधि की भी अपेक्षा नहीं है । त्रिविक्रम देव ने प्राकृत के तीन प्रकार बताए हैं- तत्सम तद्भव और देश्य । संस्कृत के समान शब्द 'तत्सम' और संस्कृत की प्रवृत्ति से सिद्ध शब्द 'तद्भव' कहलाते हैं । देश्य और आर्ष शब्द इन दोनों से भिन्न हैं प्राकृतं तत्समं देश्यं तद्भवं चेत्यदस्त्रिधा । तत्समं संस्कृतसमं नेयं संस्कृतलक्ष्मणा ॥ बेश्यमाषं च रूढत्वात् स्वतंत्रत्वाच्च भूयसा । लक्ष्म नापेक्षते तस्य संप्रदायो हि बोधकः ॥ प्रकृतेः संस्कृतात् साध्यमानात् सिद्धाच्च यद् भवेत् । प्राकृतस्यास्य लक्ष्यानुरोधि लक्ष्म प्रचक्ष्महे ॥ ' आचार्य हेमचंद्र ने देशी शब्द की बहुत सुन्दर परिभाषा की है । यह परिभाषा बहुत सार्थक और व्यापक है - १. श्रीत्रिविक्रमदेव, प्राकृतशब्दानुशासनम्, श्लोक ६-८ । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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