Book Title: Choubis Tirthankar Part 01
Author(s): 
Publisher: Acharya Dharmshrut Granthmala

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Page 8
________________ वहां राजा महाबल मंत्री स्वयंबुद्ध की प्रतीक्षा कर रहे थे सो स्वयंबुद्ध ने शीघ्र ही जाकर उनके दोनो स्वप्नों का फल कह सुनाया तथा उन्हें समयोपयोगी अन्य भी धार्मिक उपदेश दिये। मंत्री के कहने से राजा महाबल को दृढ़ निश्चय हो गया कि उसकी आयु एक माह रह गई है। वह समय अष्टाछिका व्रत का था, इसलिए उसने जिन मंदिर में आठ दिन का खूब उत्सव कराया एवं शेष बाइस दिन का सन्यास धारण किया। उसे सन्यास विधि मंत्री स्वयंबुद्ध बतलाते रहते थे। लतितांग देव की आयु सुदीर्घ थी इसलिए उसके जीवन में अल्पआयु वाली कितनी ही देवियां नष्ट हो जाती थी उसके स्थान पर दूसरी देवियां उत्पन्न हो जाती थी। इस तरह सुखभोगते हुए ललितांग देव की आयु जब केवल कुछ पल्यों की शेष रह गई तब एक स्वयंप्रभा नाम की देवी प्राप्त हुई। उसके जैसी सुन्दरी देवी जीवन में पहली बार मिली थी, वह उसे बहुत चाहता था एवं वह भी ललितांग को बहुत अधिक चाहती थी। दोनों एक दूसरे पर अत्यंत मोहित थे। 6 183 B K L काएक (C) अन्त में पंच नमस्कार मंत्र का जाप करते हुए राजा महाबल नश्वर मनुष्य शरीर का परित्याग कर ऐशान स्वर्ग के श्रीप्रभ विमान में देव पर्याय का अधिकारी हुआ। वहां उसका नाम ललितांग था। जब उसने अवधि ज्ञान से पूर्व भव का चिन्तवन किया, तब उसने स्वयंबुद्ध का अत्यंत उपकार माना एवं उसके प्रति अपने हृदय से कृतज्ञता प्रकट की। पूर्वभव के भव्य संस्कार से उसने वहां भी जिनपूजा आदि धार्मिक कार्यों में कभी प्रमाद नहीं किया। इस प्रकार ऐशान स्वर्ग में स्वयं प्रभा, कनक लता, | विद्युल्लता आदि चार हजार देवियों के साथ अनेक सुख भोगते हुए रहने लगा। Shiv P C (v) QUEE परन्तु सब दिन किसी के एक से नही होते। धीरे-धीरे ललितांग देव की दो सागर की आयु समाप्त होने को आई अब उसकी आयु सिर्फ छः माह की शेष रह गई तब उसके कण्ठ में पड़ी माला मुरझा गई कल्पवृक्ष कान्ति रहित हो गये। मणि, मुक्ता आदि सभी वस्तुएँ प्रायः निष्प्रभ सी हो गई। अब तो लगता है मेरी आयु मात्र छः माह की शेष रह गयी है। इसके बाद मुझे अवश्य ही नरलोक में उत्पन्न होना पड़ेगा । प्राणी जैसे कार्य करते हैं, वैसे ही फल पाते हैं। मैनें अपना समस्त जीवन | भोग विलासों में बिता दिया। अब कम से कम इस शेष आयु में मुझे धर्म साधन करना परम आवश्यक है। Q 3 0000 यह चिन्तवन कर पहले ललितांगदेव ने समस्त अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना की, फिर अच्युत स्वर्ग में स्थित जिन प्रतिमाओं की पूजा करता हुआ समता सन्तोष से वह समय बिताने लगा अन्त में समाधिपूर्वक पंचनमस्कार मंत्र का जाप करते हुए उसने देव शरीर को त्याग दिया। चौबीस तीर्थकर भाग-1

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