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जैन-विभूतियाँ 16. उपाध्याय श्री अमर मुनि (1902-1992)
जन्म : गोधाग्राम(हरियाणा),1902 पिताश्री : लालसिंह माताश्री : चमेली देवी दीक्षा : 1917 उपाध्याय पद : 1972 दिवंगति : वैभार गिरि (राजगृह),1992
__उपाध्याय अमरमुनि जी जैसे व्यक्तित्व इतने विराट् और व्यापक होते हैं कि उनको व्याख्यायित करने के लिए शब्द भी कम पड़ते हैं, उपमाएँ भी ओछी लगती हैं, बुद्धि और कल्पना की उड़ान भी उनकी विराट् चैतन्य सत्ता को पकड़ नहीं पाती और वाणी उनकी अर्थवत्ता को यथार्थ व्यंजित नहीं कर सकती। मुनिजी की क्रान्तदर्शी शान्त दृष्टि, सत्यानुलक्षी वैज्ञानिक मेधा, कष्ट, विरोध और प्रतिरोधों के समक्ष अचंचल-अविचल हिमालयीय दृढ़ता, शाश्वत श्रेयोन्मुखी ध्येय के प्रति सर्वात्मना समर्पण भाव, धार्मिक उदारता, सहिष्णुता, सतत प्रसन्नता प्रफुल्लता प्रकट करने वाली सहज मुखमुद्रा और जीव-मात्र की कल्याण कामना लिए हृदय की निर्मलता मुमुक्षुओं का सदैव पथ प्रदर्शन करेगी।
हरियाणा राज्य के 'नारनौल' शहर के निकटवर्ती गोधा गाँव में एक सामान्य किसान-परिवार में 1 नवम्बर सन् 1902 के दिन एक बालक का जन्म हुआ। पिता लालसिंह जी एवं माता चमेली देवी ने अलक्षित भविष्य का अनुमान कर पुत्र का नामकरण किया-अमरसिंह। बड़ा होकर बालक अमरसिंह एक दिन नारनौल आया। वहाँ उसका स्थानकवासी जैन परम्परा के प्रभावशाली आचार्यश्री मोतीराम जी महाराज से सम्पर्क हुआ। आचार्यश्री ने तत्काल बालक के भीतर छिपी तेजस्विता को परख लिया। तभी लालसिंह जी ने कहा-'"गुरु महाराज! यह आपके ही भक्त का कुल-दीपक है।"