________________
जैन-विभूतियाँ
185 को उपलब्ध कराए गए। कुछ वर्षों बाद इस संस्था का 'भारतीय ज्ञानपीठ' में विलीनीकरण कर दिया गया।
प्रेमीजी ने सन् 1912 में 'हिन्दी ग्रंथ रत्नाकर' संस्था की स्थापना की। इस संस्थान ने अनेकों अमूल्य साहित्य ग्रंथ पाठकों को उपलब्ध कराये। प्रेमीजी को राष्ट्र भाषा प्रचार के इस सत्कार्य में अभूतपूर्व सफलता मिली। वे समस्त हिन्दी प्रेमी समाज के प्रियपात्र बन गए। भारत के विभिन्न प्रदेशों में बोली जाने वाली विविध भाषाओं और प्राकृत-अपभ्रंश एवं संस्कृत भाषा विषयक ज्ञान सभी वर्ग के पाठकों को सम्प्रेषित करने में प्रेमीजी सफल हुए। इस ज्ञान यज्ञ में प्रेमीजी को अपना सर्वस्व होम देना पड़ा। वे जिस निष्ठा एवं तल्लीनता से उच्च स्तरीय पुस्तकों के प्रकाशन को समर्पित थे उससे परिवार की सुख-सुविधा भी दांव पर थी। सन् 1932 में उनकी धर्मपत्नि चल बसी। सन् 1942 में प्रेमीजी के सुपुत्र हेमचन्द्र भी चल बसे। प्रेमीजी सतत अपनी साहित्य साधना को समर्पित रहे। अपने कर्तव्य में दत्तचित्त होकर बाहरी तृष्णा और विपदाओं से अकुंठित रहे। इसीलिए वे आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रसिद्ध कृति 'स्वाधीनता' एवं प्रेमचन्द, जैनेन्द्र, चतुरसेन शास्त्री एवं सुदर्शनजी जैसे दिग्गज हिन्दी लेखकों की लोकप्रिय कृतियों को पाठकों तक पहुँचा सके।
जैनेन्द्रजी के 'परख' उपन्यास को सर्वप्रथम प्रकाशित करने का श्रेय प्रेमीजी को हुआ। उससे पहले साहित्य जगत में वे चर्चित नहीं हुए थे। परख का साहसिक कथानक और जैनेन्द्रजी की शैली पाठकों को ग्राह्य होगी भी-इसमें बहतों को संदेह था एवं जैनेन्द्र जी स्वयं आशंकित थे। प्रेमीजी की एक साहित्य-जौहरी की सी इस 'परख' से स्वयं जैनेन्द्रजी आह्लादित हुए। सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य प्रेमीजी के इस संस्थान से "जैन साहित्य का इतिहास' ग्रंथ का प्रकाशन था, जिसमें जैन, न्याय दर्शन, अध्यात्म, योग, व्याकरण, काव्य, अलंकार, भाषा, कर्म सिद्धांत इत्यादि विषयों पर विस्तार से अधिकारी विद्वानों, आचार्यों एवं साधकों के चिंतन प्रस्तुत किये गए। इसके अलावा प्रेमीजी ने कई महत्त्वपूर्ण रचनाएँ साहित्य जगत को दी। उनमें मुख्य हैं विद्युत रत्नमाला, प्रद्युम्नचरित्र, पुण्स्याश्रव कथाकोश, ज्ञान सूर्योदय नाटक, जैन पद संग्रह