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जैन- विभूतियाँ नियोजित करने एवं सत्साहित्य प्रकाशित करने के लिए एक ट्रस्ट बना दिया। समाज ने उन्हें "जैन दर्शन दिवाकर" उपाधि से विभूषित किया। सन् 1926 में उन्होंने अर्थोपार्जन की प्रवृत्तियाँ सर्वथा त्याग दी। सन् 1923 में जब परम्परावादी "दिगम्बर जैन महासभा' ने उनकी उदार नीतियों के अनुरूप सुधार करना अस्वीकार कर दिया तो आपने अखिल भारतीय दिगम्बर जैन परिषद् की स्थापना की एवं सदैव उससे जुड़े रहे ।
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सम्मेद शिखर तीर्थ की रक्षार्थ उनका योगदान, दिगम्बर मुनियों के सार्वजनिक विहार की संवैधानिक स्वीकृति, पुरातत्त्व विषयक आवश्यक कानूनी सहमति वगैरह अनेक धर्म प्रभावक कार्यों में सदैव उनका सक्रिय सहयोग रहा। उन्होंने स्वयं विपुल साहित्य सर्जन किया। उनके Cosmology : Old & New ; Fundamentals of Jainsim; Key to knowledge; Householders Dharma आदि ग्रंथ बहुत लोकप्रिय हुए। काशी के धर्म महामंडल ने उन्हें 'विद्या वारिधि' की उपाधि से सम्मानित किया। लंदन में सर्वप्रथम 'जैन पुरस्तकालय संस्थापित करने का श्रेय उन्हें ही है। विदेशों के अनेक ग्रंथागारों को उन्होंने महत्त्वपूर्ण जैन साहित्य भेंट स्वरूप भिजवाया ।
सन् 1960 में कार्याधिक्य से उनका स्वास्थ्य गिरने लगा। उस समय वे लंदन में थे। उनकी उत्कट इच्छा भारत में ही देह त्याग करने की थी। अत: वहाँ ईलाज कराने से भी मना कर दिया। भारत आने पर मुंबई व दिल्ली में उपचार हुआ, अंत में करांची पधारे। वहीं सन् 1942 में उन्होंने देह त्याग दिया। जैन धर्म एवं समाज के लिए उनका स्वार्थ त्याग व आत्म बलिदान अनुकरणीय है।