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६४. ज्ञानी भक्त आत्मशुद्धि के अलावा और कुछ नहीं चाहता । ६५. आत्मार्थी का मूल ज्ञेय निजात्मा है, शेष सब प्रासंगिक । ६६. आत्मार्थी तो आत्मा की रुचि और आराधना से ही होता है। ६७. पुरुषार्थहीनता और भोगों में लीनता मिथ्यात्व की भूमिका में ही होते हैं।
६८. धर्मात्मा के लौकिक कार्य सहज ही सधे तो सधे, पर उनके लक्ष्य से धर्मसाधन करना ठीक नहीं है।
६६. तीव्र कषायी अज्ञानी जीवों से की गई तत्त्वचर्चा उनके क्रोध को ही बढ़ाती है ।
१००. मुक्ति के मार्ग में आत्मानुभव की प्राप्ति का प्रयास ही पुरुषार्थ है ।
१०१. जो सही दिशा में सही पुरुषार्थ करता है, वह उद्यमी पुरुष ही सफल होता है।
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