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१५१. भगवान आत्मा ही सम्पूर्ण श्रुतज्ञान का सार है। १५२. पर को जानने में दोष नहीं; परन्तु पर में अटकने में,
उलझने में तो हानि है ही। १५३. सर्वप्रकार से स्नेह तोड़कर स्वयं में ही समा जाने में सार है। १५४. ध्रुवधाम की आराधना आराधना का सार है। १५५. धर्मपरिणत आत्मा को ही धर्मात्मा कहा जाता है। १५६. श्रद्धेय, ध्येय, आराध्य तो एक निज भगवान आत्मा ही है। १५७. भवताप का अभाव तो स्वयं के आत्मा के दर्शन से होता है। १५८. आत्मा के सिद्धि के सम्पूर्ण साधन आत्मा में ही विद्यमान हैं। १५६. सर्वसमाधानकारक तो अपना आत्मा है, जो स्वयं
ज्ञानस्वरूप है। १६०. अरहंत और सिद्ध भगवान निर्मल हैं और त्रिकाली ध्रुव
भगवान आत्मा अमल है।
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