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२५४. इन्द्रियों के विषय चाहे वे भोग्यपदार्थ हों, चाहे ज्ञेय
पदार्थ, ब्रह्मचर्य के विरोधी ही हैं। २५५. बारह भावनाओं के चिंतन का सच्चा फल तो वीतरागता है। २५६. बारह भावनाओं के चिन्तन की एक आवश्यक शर्त यह है
कि उसके चिन्तन से आनन्द की जागृति होनी चाहिए। २५७. वैराग्यवर्धक बारह भावनाएँ मुक्तिपथ का पाथेय तो हैं ही,
लौकिक जीवन में भी अत्यन्त उपयोगी हैं। २५८. वैराग्योत्पादक तत्त्वपरक चिन्तन ही अनुप्रेक्षा है। २५६. निजतत्त्व को पहिचानना ही भावना का सार है। २६०. भोर की स्वर्णिम छटा सम क्षणिक सब संयोग हैं। २६१. पद्मपत्रों पर पड़े जलबिन्दु सम सब भोग हैं। २६२. अनित्यता के समान अशरणता भी वस्तु का स्वभाव है। २६३. पर के शरण की आवश्यकता परतन्त्रता की सूचक है। [
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