________________ की अपेक्षा आध्यात्मिक दृष्टि से श्रेष्ठ है। गीता भी स्पष्टतया यह स्वीकार करती है कि व्यक्ति सामाजिक दृष्टि से स्वस्थान के निम्नस्तरीय कर्मों का सम्पादन करते हुए भी आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से उंचाइयों पर पहुंच सकता है। विशिष्ट सामाजिक कर्तव्यों के परिपालन से व्यक्ति श्रेष्ठ या हीन नहीं बन जाता है, उसकी श्रेष्ठता और हीनता का सम्बंध तो उसके सदाचरण एवं आध्यात्मिक विकास से है। दिगम्बर जैन आचार्य समन्तभद्र रत्नकरण्ड श्रावकाचार में लिखते हैं- सम्यक् दर्शन से युक्त चाण्डाल शरीर में उत्पन्न व्यक्ति भी तीर्थंकरों के द्वारा ब्राह्मण ही कहा गया है। - इसी प्रकार आचार्य रविषेण भी पद्मचरित में लिखते हैं कि कोई भी जाति गर्हित नहीं है, वस्तुतः गुण ही कल्याणकारक होते हैं। जाति से कोई व्यक्ति चाहे चाण्डाल कुल में ही उत्पन्न क्यों न हो, व्रत में स्थित होने पर ऐसे चाण्डाल को भी तीर्थंकरों ने ब्राह्मण ही कहा है", अतः ब्राह्मण जन्म पर नहीं, कर्म/सदाचार पर आधारित हैं। जैन मुनि चौथमलजी निर्ग्रन्थप्रवचनभाष्य में लिखते हैं कि एक व्यक्ति दुःशील, अज्ञानी व प्रकृति से तमोगुणी होने पर भी अमुक वर्ण में जन्म के कारण समाज में ऊंचा व आदरणीय समझा जाए व दूसरा व्यक्ति सुशील, ज्ञानी व सतोगुणी होने पर भी केवल जन्म के कारण नीच व तिरस्कृत समझा जाए, यह व्यवस्था समाज घातक है और मनुष्य की गरिमा व विवेकशीलता पर प्रश्नचिह्न लगाती है। इतना ही नहीं, ऐसा मानने से न केवल समाज के बहुसंख्यक भाग का अपमान होता है, प्रत्युत सदाचार व सद्गुण का भी अपमान होता है। इस व्यवस्था को अंगीकार करने से दुराचारी सदाचारी से ऊपर उठ जाता है, अज्ञान ज्ञान पर विजयी होता है तथा तमोगुण,सतोगुण के सामने आदरास्पद बन जाता है। यह ऐसी स्थिति है, जो गुण ग्राहक विवेकीजनों को सह्य नहीं हो सकती है। वास्तविकता तो यह है कि किसी जाति विशेष में जन्म ग्रहण करने का महत्त्व नहीं है, महत्त्व है व्यक्ति के नैतिक सदाचरण और वासनाओं पर संयम का। जैन विचारणा यह तो स्वीकार करती है कि लोक व्यवहार या आजीविका हेतु प्रत्येक व्यक्ति को रुचि व योग्यता के आधार पर किसी न किसी कार्य का चयन तो करना होगा। यह भी ठीक है कि विभिन्न प्रकार के व्यवसायों या कार्यों के आधार पर सामाजिक वर्गीकरण भी होगा। इस व्यावसायिक या सामाजिक व्यवस्था के क्षेत्र में होने वाले वर्गीकरण में न किसी को श्रेष्ठ, न किसी को हीन कहा जा सकता है। जैनाचार्यों के अनुसार मनुष्य प्राणीवर्ग की सेवा का कोई भी हीन कार्य नहीं है, यहां तक कि मल-मूत्र की सफाई करने वाला कहीं अधिक श्रेष्ठ है। जैन परम्परा में नन्दिषेणमुनि के सेवाभाव की गौरव गाथा लोक-विश्रुत (66)