Book Title: Bharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 149
________________ प्रकार जब हम यह कहते हैं कि मेरा धर्म जैन है या उसका धर्म ईसाई है, तो हम एक तीसरी ही बात कहते हैं। यहां धर्म का मतलब है किसी दिव्य-सत्ता, सिद्धांत या साधनापद्धति के प्रति हमारी श्रद्धा, आस्था या विश्वास। अक्सर हम धर्म से यही तीसरा अर्थ लेते हैं। जबकि यह तीसरा अर्थ धर्म का अभिरुढ़ अर्थ है, वास्तविक अर्थ नहीं है। सच्चा धर्म सिर्फ धर्म है, वह न हिन्दू होता है, न जैन, न बौद्ध, न ईसाई, न इस्लाम। ये सब नाम आरोपित हैं। हमारा सच्चा धर्म तो वही है जो हमारा निज-स्वभाव है। इसीलिए जैन आचार्यों ने 'वत्थु सहावो धम्मो' के रूप में धर्म को पारिभाषित किया है। प्रत्येक के लिए जो उसका निज-गुण है, स्व-स्वभाव है, वही धर्म है, स्व-स्वभाव से भिन्न जो भी होगा, वह उसके लिए धर्म नहीं, अधर्म ही होगा। इसीलिए गीता में कहा गया है स्वधर्मे निधनं श्रेयः पराधर्मो भयावहः' (गीता, 3/35) / परधर्म अर्थात् दूसरे के स्वभाव को इसलिए भयावह कहा गया, क्योंकि वह हमारे लिए स्वभाव न होकर विभाव होगा और जो विभाव है, वह धर्म न होकर अधर्म ही होगा। अतः आपका धर्म वही है जो आपका निज-स्वभाव है। किंतु आप सोचते होंगे कि बात अधिक स्पष्ट नहीं हुई। इससे हम कैसे जान लें कि हमारा धर्म क्या है? वस्तुतः हमें अपने धर्म को समझने के लिए अपने स्वभाव या अपनी प्रकृति को जानना होगा। किंतु यहां यह बात भी समझ लेनी होगी कि अनेक बार हम आरोपित या पराश्रित गुणों को भी अपना स्वभाव या प्रकृति मान लेते हैं। अतः हमें स्वभाव और विभाव में अंतर को समझ लेना है। स्वभाव वह है, जो स्वतः (अपने आप) होता है और विभाव वह है, जो दूसरे के कारण होता है, जैसे पानी में शीतलता स्वाभाविक है, किंतु उष्णता वैभाविक है, क्योंकि उसके लिए उसे आग के संयोग की आवश्यकता होती है। दूसरे शब्दों में, जिसे होने के लिए किसी बाहरी तत्व की अपेक्षा है वह सब विभाव है, पर-धर्म है। शीतलता पानी का धर्म है और जलाना आग का धर्म है। पुनः जिस गुण को छोड़ा जा सकता है वह उस वस्तु का धर्म नहीं हो सकता है। किंतु जो गुण पूरी तरह छोड़ा नहीं जा सकता है वही उस वस्तु का स्व-धर्म होता है। आग चाहे किसी भी रूप में हो वह जलाएगी ही, पानी चाहे आग के संयोग से कितना ही गरम क्यों न हो यदि उसे आग पर डालेंगे तो वह आग को शीतल ही करेगा। आप सोचते होंगे कि आग और पानी की धर्म की इस चर्चा से मनुष्य के धर्म को हम कैसे जान पाएंगे ? यहां इस चर्चा की उपयोगिता यही है कि हम स्वभाव और विभाव का अंतर समझ लें, क्योंकि अनेक बार हम आरोपित गुणों को ही स्वभाव मानने की भूल कर बैठते हैं, अक्सर हम कहते हैं उसका स्वभाव क्रोधी है। प्रश्न यह उठता है कि (145)

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