Book Title: Bharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 178
________________ रक्तप्लावन की इन घटनाओं को धर्म का जामा पहनाया गया और ऐसे युद्धों को धर्मयुद्ध .कहकर मनुष्य को एक-दूसरे के विरूद्ध उभाड़ा गया, फलतः शांति, सेवा और समन्वय का प्रतीक धर्म ही अशांति, तिरस्कार और वर्ग-विद्वेष का कारण बन गया। यहां हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि धर्म के नाम पर जो कुछ किया या कराया जाता है, वह सब धार्मिक नहीं होता। इन सबके पीछे वस्तुतः धर्म नहीं, धर्म के नाम पर पलने वाली व्यक्ति की स्वार्थपरता काम करती है। वस्तुतः कुछ लोग अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए मनुष्यों को धर्म के नाम पर एक-दूसरे के विरोध में खड़ा कर देते हैं। धर्म भावना-प्रधान है और भावनाओं को उभाड़ना सहज होता है। अत: धर्म ही एक ऐसा माध्यम है जिसके नाम पर मनुष्यों को एक दूसरे के विरूद्ध जल्दी उभाड़ा जा सकता है। इसीलिए मतान्धता, उन्मादी और स्वार्थी तत्वों ने धर्म को सदैव ही अपने हितों की पूर्ति का साधन बनाया है। जो धर्म मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने के लिए था, उसी धर्म के नाम पर अपने से विरोधी धर्मवालों को उत्पीड़ित करने और उस पर अत्याचार करने के प्रयत्न हुए हैं और हो रहे हैं। किंतु धर्म के नाम पर हिंसा, संघर्ष और वर्ग-विद्वेष की जो भावनाएं उभाड़ी जा रही हैं, उसका कारण क्या धर्म है ? वस्तुतः धर्म नहीं, अपितु धर्म का आवरण डालकर मानव की महत्वाकांक्षा, उसका अहंकार और उसकी क्षुद्र स्वार्थपरता ही यह सब कुछ करवा रही है। यथार्थ में यह धर्म का नकाब डाले हुए अधर्म ही है। धर्म के सारतत्व का ज्ञान : मतान्धता से मुक्ति का मार्ग दुर्भाग्य यह है कि आज जनसामान्य, जिसे धर्म के नाम पर सहज ही उभाड़ा जाता है, धर्म के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ है, वह धर्म के मूल हार्द को नहीं समझ पाया है। उसकी दृष्टि में कुछ कर्मकाण्ड और रीति-रिवाज ही धर्म है। हमारा दुर्भाग्य यह है कि हमारे तथाकथित धार्मिक नेताओं ने हमें धर्म के मूल हार्द से अनभिज्ञ रखकर, इन रीति-रिवाजों और कर्मकाण्डों को ही धर्म कहकर समझाया है। वस्तुतः आज आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझे। आज मानव समाज के समक्ष धर्म के उस सारभूत तत्व को प्रस्तुत किए जाने की आवश्यकता है, जो सभी धर्मों में सामान्यतया उपस्थित है और उनकी मूलभूत एकता का सूचक है। आज धर्म के मूल हार्द और वास्तविक स्वरूप को समझे बिना हमारी धार्मिकता सुरक्षित नहीं रह सकती है। यदि आज धर्म के नाम पर विभाजित होती हुई इस मानवता को पुनः जोड़ना है तो हमें धर्म के उन मूलभूत तत्वों को सामने लाना होगा, जिनके आधार पर (174) राहा

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