Book Title: Bharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 184
________________ लिखा गया। न महावीर के जीवन में आगम लिखे गए, न बुद्ध के जीवन में त्रिपिटक लिखे गए, न ईसा के जीवन में बाइबिल और न मुहम्मद के जीवन में कुराना पुनः यदि प्रत्येक धर्मशास्त्र में से दैशिक, कालिक और वैयक्तिक तथ्यों को अलग कर धर्म के उत्स या मूल तत्व को देखा जाए, तो उनमें बहुत बड़ी भिन्नता भी दृष्टिगोचर नहीं होती है। आचार के सामान्य नियम- हत्या मत करो, झूठ मत बोलो, चोरी मत करो, व्यभिचार मत करो, नशीले पदार्थों का सेवन मत करो, संचयवृत्ति से दूर रहो और अपने धन का दीन-दुःखियों की सेवा में उपयोग करो- ये सब सभी धर्मशास्त्रों में समान रूप से प्रतिपादित हैं, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि हम इन मूलभूत आधार स्तम्भों को छोड़कर उन छोटीछोटी बातों को ही अधिक पकड़ते हैं, जिनसे पारस्परिक भेद की खाई और गहरी होती है। जैनों के सामने भी शास्त्र की सत्यता और असत्यता का प्रश्न आया था। किसी सीमा तक उन्होंने सम्यक् - श्रुत और मिथ्या-श्रुत के नाम पर तत्कालीन शास्त्रों का विभाजन भी कर लिया था, किंतु फिर भी उनकी दृष्टि संकुचित और अनुदार नहीं रही। उन्होंने ईमानदारीपूर्वक इस बात को स्वीकार कर लिया कि जो सम्यक् - श्रुत है, वह मिथ्या-श्रुत भी हो सकता है और जो मिथ्या-श्रुत है वह सम्यक् - श्रुत भी हो सकता है। श्रुति या शास्त्र का सम्यक् होना या मिथ्या होना शास्त्र के शब्दों पर नहीं, अपितु उसके अध्येता और व्याख्याता पर निर्भर करता है। जैन आचार्य स्पष्टरूप से कहते हैं कि एक मिथ्यादृष्टि के लिए सम्यक् - श्रुत भी मिथ्या - श्रुत हो सकता है और एक सम्यग्दृष्टि के लिए मिथ्या-श्रुत भी सम्यक् - श्रुत हो सकता है। सम्यक् - दृष्टि व्यक्ति मिथ्या - श्रुत में से भी अच्छाई और सारतत्व ग्रहण कर लेता है, तो दूसरी ओर एक मिथ्यादृष्टि व्यक्ति सम्यक् - श्रुत में भी बुराई और कमियां देख सकता है। अतः शास्त्र के सम्यक् और मिथ्या होने का प्रश्न मूलतः व्यक्ति के दृष्टिकोण पर निर्भर है। ग्रंथ और इसमें लिखे शब्द तो जड़ होते हैं, उनको व्याख्यायित करने वाला तो व्यक्ति का अपना मनस् है। अतः श्रुत सम्यक् और मिथ्या नहीं होता है, सम्यक् या मिथ्या होता है उनसे अर्थ-बोध प्राप्त करने वाले व्यक्ति का मानसिक दृष्टिकोण। एक व्यक्ति सुंदर में भी असुंदर देखता है तो दूसरा व्यक्ति असुंदर में भी सुंदर देखता है। अतः यह विवाद निरर्थक और अनुपयोगी है कि हमारा शास्त्र ही सम्यक - शास्त्र है और दूसरे का शास्त्र मिथ्या-शास्त्र है। हम शास्त्र को जीवन से नहीं जोड़ते हैं अपितु उसे अपने-अपने ढंग से व्याख्यायित करके उस विचार-भेद के आधार पर विवाद करने का प्रयत्न करते हैं। परंतु शास्त्र को जब भी (180)

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