Book Title: Bharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 186
________________ थे। महावीर के पास पहुंचते-पहुंचते उनके वे सभी शिष्य वीतराग और सर्वज्ञ हो चुके थे। गौतम को इस घटना से एक मानसिक खिन्नता हुई। वे विचार करने लगे कि जहां मेरे द्वारा दीक्षित मेरे शिष्य वीतरागता और सर्वज्ञता को उपलब्ध कर रहे हैं वहां मैं अभी भी इसको प्राप्त नहीं कर पा रहा हूं। उन्होंने अपनी इस समस्या को भगवान् महावीर के सामने प्रस्तुत कियागौतम पूछते हैं- हे भगवन् ! ऐसा कौन-सा कारण है, जो मेरी सर्वज्ञता या वीतरागता की प्राप्ति में बाधक बन रहा है? महावीर ने उत्तर दिया - हे गौतम ! तुम्हारा मेरे प्रति जो रागभाव है, वही तुम्हारी सर्वज्ञता और वीतरागता में बाधक है। जब तीर्थंकर महावीर के प्रति रहा हुआ रागभाव भी वीतरागता का बाधक हो सकता है तो फिर सामान्य धर्मगुरु और धर्मशास्त्र के प्रति हमारी रागात्मकता क्यों नहीं हमारे आध्यात्मिक विकास में बाधक होगी? यद्यपि जैन परम्परा धर्मगुरु और धर्मशास्त्र के प्रति ऐसी रागात्मकता को प्रशस्त-राग की संज्ञा देती है, किंतु वह यह मानती है कि यह प्रशस्त-राग भी हमारे बंधन का कारण है। राग राग है, फिर चाहे वह महावीर के प्रति क्यों न हो? जैन परम्परा का कहना है कि आध्यात्मिक विकास की सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त करने के लिए हमें इस रागात्मकता से भी ऊपर उठना होगा। जैन कर्मसिद्धांत में मोह को बंधन का प्रधान माना गया है। यह मोह दो प्रकार का है - (1) दर्शनमोह और (2) चारित्रमोह। जैन आचार्यों ने दर्शनमोह को भी तीन भागों में बांटा है - सम्यक्तव मोह, मिथ्यात्वमोह और मिश्रमोह। मिथ्यात्व-मोह का अर्थ तो सहज ही हमें समझ में आ जाता है। मिथ्यात्व-मोह का अर्थ है-मिथ्या सिद्धांतों और मिथ्या विश्वासों का आग्रह अर्थात् गलत सिद्धांतों और गलत आस्थाओं में चिपके रहना। किंतु सम्यक्त्वमोह का अर्थ सामान्यतया हमारी समझ में नहीं आता है। सामान्यतया सम्यक्त्व-मोह का अर्थ सम्यक्त्व का मोह अर्थात् सम्यक्त्व का आवरणऐसा किया जाता है, किंतु ऐसी स्थिति में वह भी मिथ्यात्व का ही सूचक होता है। वस्तुतः सम्यक्त्वमोह का अर्थ है - दृष्टिराग अर्थात् अपनी धार्मिक मान्यताओं और विश्वासों को ही एकमात्र सत्य समझना और अपने से विरोधी मान्यताओं और विश्वासों को असत्य मानना। जैन दार्शनिक यह मानते हैं कि आध्यात्मिक पूर्णता या वीतरागता की उपलब्धि के लिए जहां मिथ्यात्वमोह का विनाश आवश्यक है वहां सम्यक्त्वमोह अर्थात् दृष्टिराग से ऊपर उठना भी आवश्यक है। न केवल जैन परम्परा में अपितु बौद्ध परम्परा में भी भगवान् बुद्ध के अंतेवासी शिष्य आनंद के सम्बंध में भी यह स्थिति है। आनंद भी बुद्ध के जीवन काल में अर्हत् अवस्था को प्राप्त नहीं कर पाए। बुद्ध के प्रति (182)

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