Book Title: Bharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 200
________________ और प्रकृति को ध्यान में रखकर एक ही रोग के लिए भिन्न-भिन्न रोगियों को भिन्न. भिन्न औषधि प्रदान करता है, उसी प्रकार भगवान् बुद्ध ने अपने अनुयायियों के विभिन्न स्तरों को ध्यान में रखते हुए इन विभिन्न सिद्धांतों का उपदेश दिया है। ऐसा ही उदार दृष्टिकोण वे सांख्य दर्शन के प्रस्तोता महामुनि कपिल और न्यायदर्शन के प्रतिपादकों के प्रति भी व्यक्त करते हैं। कपिल के लिए भी वे महामुनि शब्द का प्रयोग कर अपना आदर भाव प्रकट करते हैं। विभिन्न विरोधी दार्शनिक विचारधाराओं में किस प्रकार संगति स्थापित की जा सकती है इसका एक अच्छा उदाहरण उनका यह ग्रंथ है। .. - 12 वीं शताब्दी के प्रसिद्ध जैनाचार्य हेमचंद्र ने भी इसी प्रकार मार्मिक सहिष्णुता और उदारवृत्ति का परिचय दिया है। उन्होंने न केवल भगवान् शिव की स्तुति में महादेवस्तोत्र की रचना की अपितु शिवमंदिर में जाकर शिव की वंदना करते हुए कहा - जिसने संसार परिभ्रमण के कारणभूत राग-द्वेष के तत्वों को क्षीण कर दिया है, उसे मैं प्रणाम करता हूं चाहे वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो, शिव हो या जिन। जैनों की इस धार्मिक उदारता का एक प्रमाण यह भी है कि महाराजा कुमारपाल और विष्णुवर्धन ने जैन होकर भी शिव और विष्णु के अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया और उनकी व्यवस्था के लिए भूमिदान किया। कुमारपाल के धर्मगुरु आचार्य हेमचंद्र ने न केवल उसकी इस उदारवृत्ति को प्रोत्साहित किया अपितु शिवमंदिर में स्वयं उपस्थित होकर अपने उदारवृत्ति का परिचय भी दिया। हेमचंद्र के समान इस उदार परम्परा का निर्वाह अन्य जैनाचार्यों ने भी किया था, जिसके अभिलेखीय प्रमाण आज भी उपलब्ध होते हैं। दिगम्बर जैनाचार्य रामकीर्ति ने तोकलजी में मंदिर के लिए और श्वेताम्बर आचार्य जयमंगलसूरि ने चामुण्डा के मंदिर के लिए प्रशस्ति-काव्य लिखे। उपाध्याय यशोविजय की धार्मिक सहिष्णुता का उल्लेख हम पूर्व में कर ही चुके है। उनका यह कहना कि माध्यस्थ या सहिष्णु भाव ही धर्मवाद है, धार्मिक सहिष्णुता का मुद्रालेख है। इसी प्रकार जैन रहस्यवादी सन्तकवि आनंदघन भी कहते हैं षडदर्शन जिन अंगभणोजे न्यायषडंग जे साधे रे। नमिजिनवरना चरम उपासक षड्दर्शन आराधे रे॥ अर्थात् सभी दर्शन जिन के अंग हैं और जिन का उपासक सभी दर्शनों की उपासना करता है। जैनों की यह उदार और सहिष्णुवृत्ति वर्तमान युग तक यथार्थतः जीवित है। आज भी जैनों की सर्वप्रिय प्रार्थना का प्रारम्भ इसी उदार भाव के साथ होता है (196)

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