Book Title: Bharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

View full book text
Previous | Next

Page 181
________________ नहीं होता है, उसी प्रकार परस्पर भिन्न-भिन्न आचार-विचार वाले धर्ममार्ग भी वस्तुतः विरोधी नहीं होते। यह एक गणितीय सत्य है कि एक केंद्र से योजित होने वाली परिधि से खींची गई अनेक रेखाएं एक-दूसरे को काटने की क्षमता नहीं रखती हैं, क्योंकि उन सबका साध्य एक ही होता है। वस्तुतः उनमें एक-दूसरे को काटने की शक्ति तभी आती है जब वे अपने केंद्र का परित्याग कर देती हैं। यही बात धर्म के सम्बंध में भी सत्य है। एक ही साध्य की ओर उन्मुख बाहर से परस्पर विरोधी दिखाई देने वाले अनेक साधनामार्ग तत्वतः परस्पर विरोधी नहीं होते हैं। यदि प्रत्येक धार्मिक साधक अपने अहंकार, राग-द्वेष और तृष्णा की प्रवृत्तियों को समाप्त करने के लिए, अपने काम, क्रोध और लोभ के निराकरण के लिए, अपने अहंकार और अस्मिता के विसर्जन के लिए साधनारत है, तो फिर उसकी साधना-पद्धति चाहे जो हो, वह दूसरी साधना-पद्धतियों का न तो विरोधी होगा और न असहिष्णु। यदि धार्मिक जीवन में साध्यरूपी एकता के साथ साधनारूपी अनेकता रहे तो भी वह संघर्ष का कारण नहीं बन सकती। वस्तुतः यहां हमें यह विचार करना है कि धर्म और समाज में धार्मिक असहिष्णुता का जन्म क्यों और कैसे होता है? .. वस्तुतः जब यह मान लिया जाता है कि हमारी साधना-पद्धति ही एकमात्र व्यक्ति को अंतिम साध्य तक पहुंचा सकती है तब धार्मिक असहिष्णुता का जन्म होता हैं इसके स्थान पर यदि हम यह स्वीकार कर लें कि वे सभी साधना-पद्धतियां जो साध्य तक पहुंचा सकती हैं, सही हैं, तो धार्मिक संघर्षों का क्षेत्र सीमित हो जाता है। देश और * कालगत विविधताएं तथा व्यक्ति की अपनी प्रवृत्ति और योग्यता आदि ऐसे तत्व हैं, जिनके कारण साधनागत विविधताओं का होना स्वाभाविक है। वस्तुतः जिससे व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास होता है, वह आचार के बाह्य विधि-निषेध या बाह्य औपचारिकताएं या क्रियाकाण्ड नहीं, मूलतः साधक की भावना या जीवन-दृष्टि है। प्राचीनतम जैन आगम आचारांगसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि - जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा। जो आस्रव अर्थात् बंधन के कारण हैं, वे ही परिस्रव अर्थात् मुक्ति के कारण हो सकते हैं और इसके विपरीत जो मुक्ति के कारण हैं, वे ही बंधन के कारण बन सकते हैं। अनेक बार ऐसा होता है कि बाह्य रूप में हम जिसे अनैतिक और अधार्मिक कहते हैं, वह देश, काल, व्यक्ति और परिस्थितियों के आधार पर नैतिक और धार्मिक हो जाता है। धार्मिक जीवन में साधना का बाह्य कलेवर इतना महत्वपूर्ण नहीं होता जितना (177)

Loading...

Page Navigation
1 ... 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216