________________ स्थितियों में मन दुःख और पीड़ा से भर जावे तो हमें समझ लेना चाहिए कि जीवन में अभी धर्म नहीं आया है। धर्म का सीधा सम्बंध हमारी जीवनदृष्टि और जीवनशैली से है। बाह्य परिस्थितियों से हमारी चेतना जितनी अधिक अप्रभावित और अलिप्त रहेगी उतना ही जीवन में धर्म का प्रकटन होगा। क्योंकि मनुष्य के लिए यह सम्भव नहीं है कि उसके जीवन में उतार और चढ़ाव नहीं आए। सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, मान-अपमान आदि ये जीवन-चक्र के दुर्निवार पहलू हैं, कोई भी इनसे बच नहीं सकता। जीवन-यात्रा का रास्ता सीधा और सपाट नहीं है, उसमें उतार-चढ़ाव आते ही रहते हैं। बाह्य परिस्थितियों पर आपका अधिकार नहीं है, आपके अधिकार में केवल एक ही बात है, वह यह कि आप इन अनुकूल और प्रतिकूल स्थितियों में अपने मन को, अपनी चेतना को निराकुल और अनुद्विग्न बनाए रखें, मानसिक समता और शांति को भंग नहीं होने दें। यही धर्म है। श्री गोयनका जी के शब्दों में - सुख दुःख आते ही रहें, ज्यों आवे दिन रैन। . . तू क्यों खोवे बावला, अपने मन की चैन / अतः मन की चैन नहीं खोना ही धर्म और धार्मिकता है। जो व्यक्ति जीवन की अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपनी चित्त की शांति नहीं खोता है, वही धार्मिक है उसी के जीवन में धर्म का अवतरण हुआ है। कौन धार्मिक है और कौन अधार्मिक है, इसकी पहचान यही है कि किसका चित्त शांत है और किसका अशांत। जिसका चित्त या मन अशांत है वह अधर्म में जी रहा है, विभाव में जी रहा है और जिसका मन या चित्त शांत है वह धर्म में जी रहा है, स्वभाव में जी रहा है। एक सच्चे धार्मिक पुरुष की जीवनदृष्टि अनुकूलं एवं प्रतिकूल संयोगों में कैसी होगी इसका एक सुंदर चित्रण उर्दू शायर ने किया है, वह कहता है - लायी हयात आ गये, कजा ले चली चले चले। न अपनी खुशी आये, न अपनी खुशी गये। जिंदगी और मौत दोनों ही स्थितियों में जो निराकुलता और शांत बना रहता है वही धार्मिक है, धर्म का प्रकटन उसी के जीवन में हुआ है। धार्मिकता की कसौटी पर नहीं है कि तुमने कितना पूजा-पाठ किया है, कितने उपवास और रोजे रखे हैं, अपितु यही है कि तुम्हारा मन कितना अनुद्विग्न और निराकुल बना है। जीवन में जब तक चाह और चिंता बनी हुई है धार्मिकता का आना सम्भव नहीं है। फिर वह चाह और चिंता परिवार की हो या शिष्य-शिष्याओं की, घर और दुकान की हो, मठ और मंदिर की, (152)