________________ लंकावतारसूत्र जैसे ग्रंथों में भी कभी ऐसी सेवाभावना का समर्थन नहीं मिलता, जो नैतिक-जीवन के व्यक्तिगत मूल्यों के विरोध में खड़ी हो। लोक-मंगल का जो आदर्श महायान-परम्परा ने प्रस्तुत किया है, वह भी ऐसे किसी लोकहित का समर्थन नहीं करता, जिसके लिए वैयक्तिक-नैतिकता को समाप्त कर दिया जाए। इस प्रकार, सैद्धांतिक-दृष्टि से लोकहित और आत्महित की अवधारणा में हीनयान और महायान में कोई मौलिक विरोध नहीं रह जाता। यद्यपि व्यावहारिक रूप में यह तथ्य सही है कि जहां एक ओर हीनयान ने एकांगी साधना और व्यक्तिनिष्ठ आचार-परम्परा का विकास किया और साधना को अधिकांश रूपेण आंतरिक एवं वैयक्तिक बना दिया, वहां दूसरी ओर महायान ने उसी की प्रतिक्रिया में साधना के वैयक्तिक-पक्ष की उपेक्षा कर उसे सामाजिक और बहिर्मुखी बना दिया। इस तरह, लोक-सेवा और लोकानुकम्पा को अधिक महत्त्व दिया। यहां हम इतना अवश्य कह सकते हैं कि हीनयान और महायान ने जिस सीमा तक अपने में इस एकान्तिक को प्रश्रय दिया है, वे उसी सीमा तक बुद्ध की ध्यम-मार्गीय देशना से पीछे भी हटे हैं। स्वहित और लोकहित के सम्बंध में गीता का मन्तव्य- गीता में सदैव ही स्वहित के ऊ पर लोकहित की प्रतिष्ठा हुई है। गीताकार की दृष्टि में, जो अपने लिए ही पकाता है और खाता है, वह पाप ही खाता है।48 स्वहित के लिए जीने वाला व्यक्ति गीता की दृष्टि में अधार्मिक और नीच है। गीताकार के अनुसार, जो व्यक्ति प्राप्त भोगों को देने वाले देवों को दिए बिना, उनका ऋण चुकाए बिना खाता है, वह चोर है। सामाजिक दायित्वों का निर्वाह न करना गीता की दृष्टि में भारी अपराध है। , गीता के अनुसार, लोकहित करना मनुष्य का कर्तव्य है। सर्व प्राणियों के हितसम्पादन में लगा हुआ पुरुष ही परमात्मा को प्राप्त करता है। वह ब्रह्म-निर्वाण का अधिकारी होता है। जिसे कर्म करने से कोई प्रयोजन नहीं रह गया है, अर्थात् जो जीवन्मुक्त हो गया है, जिसे संसार के प्राणियों से कोई मतलब नहीं, उसे भी लोकहितार्थ कर्म करते रहना चाहिए। 1 श्रीकृष्ण अर्जुन से यही कहते हैं कि लोकसंग्रह (लोकहित) के लिए तुझे कर्त्तव्य करना उचित है। गीता में भगवान् के अवतार धारण करने का उद्देश्य साधुजनों की रक्षा, दुष्टों का नाश और धर्म की संस्थापना है। इस प्रकार, जैन, बौद्ध और गीता इन तीनों परम्पराओं में तीर्थंकर, बुद्ध और ईश्वर का कार्य लोकहित या लोकमंगल ही माना गया है, यद्यपि जैन व बौद्धविचारणाओं में तीर्थंकर एवं बुद्ध का कार्य मात्र धर्म-संस्थापना और लोक-कल्याण (98)