________________ जैन विचारकों ने परार्थ या लोकहित के तीन स्तर माने हैं- 1.द्रव्य लोकहित, 2. भाव लोकहित और 3. पारमार्थिक लोकहित। 1. द्रव्य लोकहित - यह लोकहित का भौतिक स्तर है। भौतिक उपादानों, जैसेभोजन, वस्त्र, आवास आदि तथा शारीरिक सेवा के द्वारा लोकहित करना लोकहित का भौतिक स्तर है, यहां पर साधन भौतिक होते हैं। द्रव्य लोकहित एकांत रूप में आचरणीय नहीं कहा जा सकता। यह अपवादात्मक एवं सापेक्ष नैतिकता का क्षेत्र है। भौतिक स्तर पर स्वहित की पूर्णतया उपेक्षा भी नहीं की जा सकती। यहां तो स्वहित और परहित में उचित समन्वय बनाना ही अपेक्षित है। पाश्चात्य नैतिक विचारणा के परिष्कारित स्वार्थवाद, बौद्धिक परार्थवाद और सामान्य शुभ के सिद्धांतों का विचार क्षेत्र लोकहित का यह भौतिक स्वरूप ही है। 2. भाव लोकहित - लोकहित का यह स्तर भौतिक स्तर से ऊपर स्थित है। यहां पर लोकहित के साधन ज्ञानात्मक या चैत्तसिक होते हैं। इस स्तर पर परार्थ में संघर्ष की सम्भावना अल्पतम होती है। 3. पारमार्थिक लोकहित। - यह लोकहित का सर्वोच्च स्तर है, यहां आत्महित और परहित में कोई संघर्ष नहीं रहता, कोई द्वैत नहीं रहता। यहां पर लोकहित का रूप होता है- यथार्थ जीवनदृष्टि के सम्बंध में मार्गदर्शन करना। . लोकहित और आत्महित में विरोध और संघर्ष तो तब होता है, जब उनमें से कोई भी नैतिकता का अतिक्रमण करता है। भगवान् बुद्ध का कहना यही था कि यदि आत्महित करना है, तो नैतिकता की सीमा में करो और यदि परहित करना है, तो वह भी नैतिकता की सीमा में, धर्म की मर्यादा में रहकर ही करो। नैतिकता और धर्म से दूर होकर किया जाने वाला आत्महित स्वार्थ साधन' है और लोकहित सेवा का निरा ढोंग है। बौद्धधर्म में लोकहित- बुद्ध ने आत्महित और लोकहित-दोनों को ही नैतिकता के क्षेत्र में लाकर परखा और उनमें अविरोध पाया। श्री भरतसिंह उपाध्याय के शब्दों में, 'बुद्ध के मौलिक उपदेशों में आत्मकल्याण और परकल्याण, आत्मार्थ और परार्थ, साधना और सेवा-दोनों का उचित संयोग है। आत्मकल्याण और परकल्याण में वहां कोई विभाजक-रेखा नहीं थी।43 बुद्ध आत्मार्थ और परार्थ के सम्यक् रूप को जानने पर बल देते हैं। उनके अनुसार, यथार्थ दृष्टि से आत्मार्थ और परार्थ में अविरोध है। आत्मार्थ और परार्थ में विरोध तो उसी स्थिति में दिखाई देता है, जब हमारी दृष्टि राग, द्वेष तथा मोह से युक्त होती है। राग, द्वेष और मोह का प्रहाण होने पर उनसे कोई विरोध दिखाई ही (95)