________________ कि समस्त लोक की पीड़ा को जानकर तीर्थंकर धर्मचक्र का प्रवर्तन करते है। यह स्पष्ट है कि कैवल्य की प्राप्ति के पश्चात् तीर्थंकर के लिए कुछ भी करना शेष नहीं रहता है, वे कृत-कल्प होते हैं फिर भी लोकमंगल के लिए ही वे धर्मचक्र का प्रवर्तन कर अपना शेष जीवन लोकहित में समर्पित कर देते हैं। यह भारतीय दर्शन और साहित्य का सर्वश्रेष्ठ उद्गार है। इसी प्रकार बोधिसत्व भी सदैव ही दीन और दुःखीजनों को दुःख से मुक्त कराने के लिए प्रयत्नशील बने रहने की अभिलाषा करता है और सबको मुक्त कराने के पश्चात् ही मुक्त होना चाहता है। भवेयमुपजीव्योऽहं, यावतसर्वे न निर्वृता।' वस्तुतः, भारतीय साधना पद्धतियों का लक्ष्य मोक्ष है, किंतु मोक्ष अकेला पाने की वस्तु ही नहीं है। इस संबंध में विनोबा भावे के उदगार विचारणीय हैं जो समझता है कि मोक्ष अकेला हथियाने वस्तु है, वह उसके हाथ से निकल आता है 'मैं' के आते, ही मोक्ष भाग जाता है, मेरा मोक्ष यह वाक्य, ही गलत है। ‘मेरा' मिटने पर ही मोक्ष मिलता है, ___ -अध्यात्म और विज्ञान,पृ.71 इसी प्रकार वास्तविक मुक्ति अहंकार से मुक्ति है। 'मैं' अथवा अहं भाव से मुक्त होने के लिए हमें अपने आपको समष्टि में, समाज में लीन कर देना होता है। आचार्य शांतिदेव लिखते हैं सर्वत्यागश्च निर्वाण निर्वाणार्थ च में मनः। त्यक्तवयं चेन्मया सर्व वर सत्वेषु दीसतां॥' इस प्रकार यह धारणा कि मोक्ष का प्रत्यय सामाजिकता का विरोधी है, गलत है। मोक्ष वस्तुतः दुःखों से मुक्ति है और मनुष्य जीवन के अधिकांश दुःख मानवीय संवेगों के कारण ही है। अतः मुक्ति, ईर्ष्या, द्वेष,क्रोध, घृणा आदि के संवेगों से मुक्ति पाने में है और इस रूप में वह वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही दृष्टि से उपादेय भी है। दुःख,अहंकार एवं मानसिक क्लेशों से मुक्ति रूप में मोक्ष की उपादेयता और सार्थता को अस्वीकार भी नहीं किया जा सकता है। . कुछ लोग अहिंसा की अवधारणा को स्वीकार करके भी उसकी मात्र नकारात्मक अवधारणा प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं कि अहिंसा का अर्थ दूसरों को पीड़ा नहीं देने तक ही सीमित है, जो दूसरों के दुःख और पीड़ाओं को दूर करने का दायित्व (87)