________________ भारतीय संस्कृति में स्वहित और लोकहित का प्रश्न स्वार्थ और परार्थ की समस्या बहुत पुरानी है। नैतिक चिंतन के प्रारम्भ से ही स्वहित और लोकहित का प्रश्न महत्त्वपूर्ण रहा है। एक ओर चाणक्य कहते हैं - 'स्त्री, धन आदि से बढ़कर अपनी रक्षा का प्रयत्न करना चाहिए। विदुर ने भी कहा है - 'जो स्वार्थ को छोड़कर परार्थ करता है, जो मित्रों अर्थात् दूसरे लोगों के लिए व्यर्थ ही श्रम करता है, वह मूर्ख ही है, किंतु दूसरी ओर यह भी कहा जाता है, स्वहित के लिए तो सभी जीते हैं, जो लोकहित के लिए, परार्थ के लिए जीता है, वस्तुतः उसका जीवन सफ ल है। जिस जीवन में परोपकार वृत्ति नहीं हो, उससे तो मरण ही अच्छा है। पाश्चात्य विचारक हरबर्ट स्पेन्सर ने तो स्वार्थ और परार्थ के इस प्रश्न को नैतिकता की वास्तविक समस्या कहा है, यहां तक कि पाश्चात्य आचारशास्त्रीय विचारणा में तो स्वार्थ की समस्या को लेकर दो दल बन गए। स्वार्थवादी विचारक, जिनमें हाब्स, नीत्शे प्रभृति प्रमुख हैं, यह मानते हैं कि मनुष्य प्रकृत्या केवल स्वार्थ या अपने लाभ से प्रेरित होकर कार्य करता है। वे मानते हैं कि नैतिकता का वही सिद्धांत समुचित है, जो मानव प्रकृति की इस धारणा के अनुकूल हो। उनकी दृष्टि में अपने हित के कार्य करने में ही मनुष्य का श्रेय है, दूसरी ओर बेन्थम, मिल प्रभृति विचारक मानव की स्वसुखवादी मनोवैज्ञानिक प्रकृति को स्वीकार करते हुए भी बौद्धिक आधार पर यह सिद्ध करते हैं कि परहित की भावना ही नैतिक दृष्टि से उचित है। नैतिक जीवन का साध्य परार्थ है। प्रो. मिल केवल परार्थ के बौद्धिक आधार पर सिद्ध कर ही संतुष्ट नहीं हो जाते, वरन् आंतरिक अंकुश (Internal Sanition) के द्वारा उसे स्वाभाविक भी सिद्ध करते हैं। उनके अनुसार, यह आंतरिक अंकुश सजातीयता की भावना है, जो कि मानव में यद्यपि जन्मजात नहीं है, फिर भी अस्वाभाविक या अनैसर्गिक भी नहीं है। दूसरे अन्य विचारक भी, जिनमें बटलर, कोंत, शॉपनहॉवर एवं टालस्टाय आदि प्रमुख हैं, मानव की मनोवैज्ञानिक प्रकृति में सहानुभूति, प्रेम आदि के तत्त्वों की उपस्थिति दिखाकर परार्थवादी या लोकमंगलकारी आचारदर्शन का समर्थन करते हैं। हरबर्ट स्पेन्सर से लेकर ब्रेडले, ग्रीन, अरबन आदि समकालीन विचारकों तक की एक लम्बी परम्परा ने मानव जीवन के विभिन्न पक्षों को उभारते हुए स्वार्थवाद और परार्थवाद में सामान्य-शुभ (Com (90)