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भारतीय पुरालिपि - शास्त्र
में मिलती है वह है ऊष्म ध्वनियों के लिए प्रायः भ्रांतिमूलक चिह्नों का प्रयोग अशोक के कालसी, शिद्दापुर और बैराट सं० II के आंदेशलेखों, 138 भट्टिप्रोलु कलशों, नागार्जुनी और रामनाथ के गुफा अभिलेखों में और मथुरा के कुषान कालीन अभिलेखों में, यहाँ तक कि सिंहल के दो प्राचीनतम अभिलेखों में प्रायः स के लिए या शका, ष के लिए श और श और ष के लिए स का प्रयोग मिलता है । ऐसी विशृंखलता के कई कारण हो सकते हैं । एक तो यही कि क्लर्क आदि स्कूलों में जो वर्णमाला सीखते थे वह मूलतः संस्कृत के लिए बनी थी । संस्कृत में पुरानी प्राकृतों से अधिक ऊष्म ध्वनियाँ थीं । दूसरे जनता के एक बहुत बड़े वर्ग को व्याकरण की कोई शिक्षा नहीं मिलती थी । अतः इनके उच्चारण प्रमादपूर्ण होते थे ।
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पश्चिमी और दक्षिणी प्राकृतों में संभवतः आज की भाँति तब भी दोनों तालव्य और दन्त्य ऊष्म ध्वनियाँ थीं । संभवतः आज की तरह उस समय भी एक ही शब्द में इन दोनों ध्वनियों के परस्पर विनिमय होने की परंपरा थी । इसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि प्राकृतभाषी जनता में श और स के वास्तविक मूल्य का ज्ञान लुप्त हो गया । स्कूल की वर्णमाला में उन्होंने ष तो पढ़ा जरूर था, पर उनकी बोलचाल की भाषा में इसके अनुरूप कोई ध्वनि न थी । यह चिह्न उन्हें ऊष्म ध्वनि का लगा होगा । पुराने अभिलेखों में पाई जाने वाली इन भूलों का क्या कारण है इसका खुलासा संस्कृत के सर्वकालिक अभिलेखों -- विशेषकर भूमि के दान-पत्रों से जिनके लेखक प्रायः क्लर्क ही हुआ करते थे, आधुनिक प्राकृतों की हस्तलिखित पोथियों, आधुनिक भारत के दफ्तरों के कागज-पत्रों में मिलता है, जहां ऊष्म ध्वनियों के प्रयोग में असंख्य भूलों के दर्शन होते हैं । इस स्पष्टीकरण की पुष्टि इस बात से भी होती है कि यद्यपि इन विभाषाओं में न का प्रयोग ही संमत है पर न के लिए कभी-कभी 140 का प्रयोग भी मिलता है -- एक बार धौली के आदेशलेख में और एक बार जौगड़ में । इन उदाहरणों में भी भूल का कारण यही है कि स्कूल में सभी न और ण दोनों अक्षर पढ़ते थे जिन क्लर्कों ने इन लेखों का मसौदा बनाया था उन्होंन भी ये दोनों वर्ण पढ़े थे । इनमें प्रत्येक ने एक-एक बार भूल से अनावश्यक चिह्नों का प्रयोग किया। इस संबंध में दूसरा मत यह है कि अशोक के आदेश-लेखों में ऊष्म ध्वनियों की
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138. क., इं. अ. (का. ई. ई. I) फल. 14.
139. वही, फल. 15.
140. ब., आ. स. रि. वे. इं. 1. 128, टिप्पणी 49; 129, टिप्पणी 33. 141. से., इं. पि. I, 33 तथा आगे; बा, ए. सा. इं. पै. 2, टिप्पणी 1
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