Book Title: Bharatiya Puralipi Shastra
Author(s): George Buhler, Mangalnath Sinh
Publisher: Motilal Banarasidas

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Page 226
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०८ भारतीय पुरालिपि-शास्त्र संभवतः कायस्थ का पर्याय मात्र है 583 क्योंकि धर्मशास्त्रों में करण को भी संकर जातियों में रखा है। अन्य नामों में करणिक को कीलहान के अनुसार 'विधि प्रलेखों (करण)' का लेखक मानना होगा। यह संभवतः सरकारी पदवी थी, कोई जाति नहीं। निस्संदेह भारतीय लिपि के विकास और अक्षरों के नये रूपों की ईजाद का आंशिक श्रेय ब्राह्मणों, जैन-मुनियों और बौद्ध-भिक्षुओं को है, पर इसका इससे बहुत अधिक श्रेय पेशेवर लेखकों और लेखक जातियों को है। यह कथन कि रूपों में संशोधन संगतराशों और ताम्रपट्टों के उत्कीर्णकों ने किया है, कम संभाव्य है क्योंकि ऐसे व्यक्ति अपनी शिक्षा-दीक्षा और व्यवसाय के द्वारा इस प्रकार के कार्य के उपयुक्त न थे ।581 जैसा कि अनेक अभिलेखों के अंतिम अंशों से विदित होता है परंपरा यह थी कि पत्थर पर खोदे जाने के लिये प्रशस्तियाँ या काव्य पेशेवर लेखकों को दी जाती थीं। ये इसकी स्वच्छ प्रति तैयार करते थे। इस प्रति के आधार पर ही कारीगर (सूत्रधार, शिलाकट, रूपकार या शिल्पिन) पत्थरों पर प्रलेख खोद देते थे।585 मेरी देख-रेख में भी एक बार यही काम हुआ था । उसमें भी इसी परंपरा का अनुकरण किया गया था। कारीगर को ठीक उस पत्थर के आकार का एक कागज दे दिया गया जिस पर प्रलेख (मंदिर की प्रशस्ति) लिखा था। उसने पहले एक पंडित की देखरेख में पत्थर पर अक्षर बनाये फिर उन्हें खोदा। कई बार प्रशस्तिकार यह भी कहता है कि उन्होंने कारीगर का काम भी किया है: पर ___583. मिला. करणकायस्थ समास, इं. ऐ., XVII, I3; बेंडेल, कै. सं.बु. म. 70, सं. 1364. ___584. ब., आ. स. रि. वे. ई. IV, 79; बु. इं. स्त. III, 2, 40, टिप्पणी; इं. ऐ. XII, 190. ___585. उदाहरणार्थ मिला. ए. ई. I, 45, लेखक रत्नसिंह, प्रतिलेखक क्षत्रियकुमारपाल; संगतराश रूपकार साम्पुल; ए. ई. I, 49; लेखक देवगण, प्रतिलेखक और संगतराश वही; ए. ई. I, 81, लेखक नेहिल; प्रतिलेखक कणिक गौड़ तक्षादित्य; संगतराश, सोमनाथ, टंकविज्ञानशालिन, (अक्षर खोदने में निपुण) इसी प्रकार के विचार ए. ई. I, 129, 139, 211, 279 आदि में मिलते हैं। __586. तालगुड की प्रशस्ति के कवि कुब्ज ने (कीलहान, ए.इं.VIII, 31); और अञ्जनेरी अभिलेख, (इं. ऐ. XII, 127) के कवि दिवाकर पण्डित ने यही कहा है। 208 For Private and Personal Use Only

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