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भारतीय पुरालिपि-शास्त्र के चिकाकोल पट्टों का लेखक अंक लेखन की तीन प्रणालियों का इस्तेमाल पट्टों की तिथि लिखने में करता है (देखि, आगे 34 )। कलिंग के गंगों का राज्य उन जिलों के बीच में पड़ता था जिनके एक ओर नागरी का और दूसरी ओर तेलुगूकन्नड़ लिपियों का प्रयोग होता था और वह ग्रंथ लिपि के क्षेत्र से भी बहुत दूर न था। संभवत: इसकी आबादी भी मिली-जुली थी। जनता इन सभी लिपियों का इस्तेमाल करती थी । 341 इसके पहले तो पुरानी पश्चिमी और मध्य भारतीय लिपियों का भी यहाँ प्रयोग होता था । पेशेवर लिपिकों और लेखकों को इन सभी लिपियों पर अधिकार पाना पड़ता था। 31. ग्रंथ लिपि : फलक VII और VIII
अ. पुरागत विभेद तमिल जिलों में 350 ई. के बाद संस्कृत लिपियों के इतिहास की जानकारी के लिए हमें पूरवी तट के पल्लवों, चोलों और पाण्ड्यों के संस्कृत अभिलेख ही उपलब्ध हैं। इनमें पल्लवों के अभिलेखों का इतिहास पुराना है । तदनुरूप पश्चिमी तट के अभिलेखों का अभी तक पता नहीं मिला है। इसी वजह से और इस कारण भो कि अच्छे प्रतिरूपों वाले प्रकाशित पूर्वी प्रलेखों की संख्या बहुत कम है, इसके अक्षरों के क्रमिक विकास का लेखा-जोखा उपस्थित करना असंभव है।
तमिल जिलों की संस्कृत लिपियों को सामान्यतया 'ग्रंथ लिपि' कहते हैं । इसके सबसे पुरागत रूप पलक्कड़ और (? या) दशनपुत 342 के 5वीं या 6ठी शती (?) के पल्लव राजाओं के ताम्रपट्टों पर (फल. VII, स्त. XX, XXI) मिलते हैं । इनसे बहुत मिलते-जुलते रूप धर्मराजरथ के प्राचीन अभिलेख सं. ] से 16 (फल. VII, स्त. XXII ) 313 के हैं। इन अभिलेखों और ऐसे ही कुछ अन्य अभिलेखों 44 में वही लिपि है जिसे पुरानी ग्रंथ लिपि कह सकते हैं । इसका
341. बुगुडा पट्टों से उत्तरी अक्षरों का प्रयोग सिद्ध होता है, ए. ई. III, 41; मिला. ब., ए. सा. इं. पै. 53 और फल. 22 b.
3.42. इं. ऐ. V, 50, 154; मिला. ब. ए. सा. इं. पै. 36 टिप्पणी 2.
343. इस अभिलेख के अतिरिक्त फल. VII, स्तं. XXIV और फल. VIII, स्त. XII के अभिलेखों की प्रतिकृतियों के लिए मैं श्री हुल्श का आभारी हूँ; देखि, उनकी सा इं. ई. III, खंड 3.
341. इं. ऐ. IX, 100; सं. 82, 102, सं. 85; XIII, 48; ए. ई. I,397.
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