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भारतीय पुरालिपि - शास्त्र
के प्राचीन स्तूप से मिला था। ब्रिटिश संग्रहालय में गिलट और चांदी की कलई किये ताड़पत्रों पर लिखी हस्तलिखित पुस्तकें हैं ।
मानी हुई बात है कि बहुमूल्य धातुओं का प्रयोग बहुत कम ही होता था । सबसे अधिक संख्या में ताम्रपट्ट ही मिले हैं। इससे यही सिद्ध होता है कि जब किसी प्रलेख को चिरस्थायी रखना होता था, विशेषकर भूदान-पत्र जो प्राप्ता के लिए स्वत्व - लेख का कार्य करता था, तो उसे ताम्रपट्टों पर ही खुदवाते थे ।
फाहियान ( लग. 400 ई.) के अनुसार बौद्ध - बिहारों में ताँबे पर खुदे दानपत्र थे । इनमें सबसे पुराना बुद्ध के समय का था। 518 यद्यपि फाहियान के इस कथन की पुष्टि होनी शेष है, पर सोहगौरा पट्ट (दे. पू. 65 ) बतलाते हैं कि मौर्य-काल में सरकारी आदेश ताँबे पर खोदे जाते थे । युवाङ च्वाङ के वर्णन में एक अन्य बौद्ध परंपरा भी सुरक्षित है 1" जो यह बतलाती है कि कनिष्क ने बुद्ध के बचन ताँबे के पत्रों पर खुदवाये थे । सायण के वेद भाष्यों के बारे में भी ऐसी ही एक कहानी प्रचलित है, जिसे बर्नेल अविश्वसनीय ठहराता है । 520 किंतु इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि साहित्यिक कृतियों को सुरक्षित रखने के लिए ताँबे का प्रयोग करते थे । त्रिपती में ऐसे पट्ट मिले हैं। बर्मा, और लंका के नमूने ( इनमें कुछ मुलम्में भी हैं ) ब्रिटिश संग्रहालय में सुरक्षित हैं । 521 काशगर से सेंट पीटर्सवर्ग को भेजे गये कुछ काफी आधुनिक ताम्रपट्टों के फोटोग्राफ एस. वान ओल्डेनवर्ग की कृपा से मुझे प्राप्त हुए हैं । इन पर गुरुमुखी और नागरी में सामानों सूचियाँ हैं ।
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जहाँ तक इनके निर्माण की प्रक्रिया का प्रश्न है सोहगौरा का सबसे पुराना ज्ञात ताम्प्रशासन (दे. ऊपर पृ. 65 ) रेत के एक सांचे में ढाला गया है । इस सांचे में ही पहले से अक्षर और प्रतीक चिह्न स्टाइलस या नुकीली लकड़ी से खरोंच दिये गये थे । इसीलिए अक्षर और प्रतीक उभरे हुए हैं । दूसरे सभी ताम्रपट्ट हथौड़ों से पीटकर बनाये गये हैं । कुछ पर तो हथौड़ों की चोटें भी दीखती हैं । इनकी मोटाई और चौड़ाई में भी काफी अंतर है । कुछ बहुत पतले हैं । इन्हें
518. सियुकि ( बील) 1, XXXVIII,
519. देखि ब, ए. सा. इं. पै. 86.
520. मै. मू. ऋग्वे. I, 17.
521. ज. पालि, टेक्स्ट सोसा. 1883, 136.
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