Book Title: Bharatiya Puralipi Shastra
Author(s): George Buhler, Mangalnath Sinh
Publisher: Motilal Banarasidas

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Page 216
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९८ भारतीय पुरालिपि-शास्त्र थीं । अक्षर प्रायः टांकी से खोदे जाते थे। उत्कीर्णक (engravcr) का इस्तेमाल बहुत कम हुआ है। (मिला. ऊपर पृ. १४) लेख की रक्षा के लिए फलकों के किनारे प्रायः मोटे और उठे हुए बनाये जाते थे ।।25 पहले पट्ट का पहला पृष्ठ और अंतिम पट्ट का अंतिम पृष्ठ कोरा छोड़ देते थे। पट्टों के साथ लगी तांबे की मुद्रा प्रायः ढलाई की होती थीं। इनके ऊपर लेख के अक्षर और राज-चिह्न उभरे होते हैं । वाण के अनुसार 26 हर्ष की राज-चिह्न-युक्त मुद्रा सोने की थी । ___तांबे की अनेक मूत्तियों पर उनके आधारों में दान-लेख खुदे हुए हैं। लोहे पर भी एक अभिलेख खुदा है। यह अभिलेख दिल्ली के पास मेहरौली के लोहस्तंभ पर है।527 ब्रिटिश संग्रहालय में टिन पर लिखी एक बौद्ध पुस्तक भी है । 28 ए. पत्थर और ईट । प्रलेखों को अशोक के शब्दों में चिरठितिक-चिरस्थायी बनाने के लिए अत्यंत प्राचीन काल से पत्थरों पर लिखवाते थे। ये पत्थर नाना प्रकार के बैसाल्ट या ट्रैप के खुरदरे या चिकने खंड, या वालुकाश्म के कलापूर्ण स्तंभ होते थे । महत्त्वपूर्ण बात यह नहीं कि ये प्रलेख सरकारी हैं या गैर-सरकारी, इनमें कोई राजकीय विज्ञप्ति है या दो राजाओं के बीच हुई संधि या दो सामान्य व्यक्तियों के बीच हुए किसी करार का विवरण ही, ये दानलेख या काव्य-वर्णन हैं इसका भी महत्त्व नहीं । चाहे जो भी वर्ण्य हो वह चिरस्थायी होना चाहिये । कभी-कभी तो बड़ी-बड़ी साहित्यिक कृतियाँ भी पत्थरों पर खुदवायी गयी हैं। चाहमान राजा विग्रहराज चतुर्थ और उसके राजकवि सोमदेव के नाटकों के अंश अजमेर में पत्थर पर खुदे मिले हैं ।529 विझौली में एक पूरा जैन स्थल-पुराण ही पत्थर पर खुदा है । इसके कई सर्ग हैं । इसकी एक छाप मुझे फुहरेर और गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने दी थी। ऐसी ईंटें तो बराबर मिलती रहती हैं जिन पर एक अक्षर या कुछ अक्षर लिखे हैं । ऐसे कई नमूने कनिंघम 30 फुहरेर और दूसरे विद्वानों को भारत के 525, देखि. फ्ली. गु. इं. (का. ई. III) 68, टिप्पणी 6. 526. हर्षचरित, 227 (निर्णय सागर प्रेस)। 527. फ्ली गु ई (का इं इं III), 139. 528 देखि, सूची, जन. पालि टेक्स्ट सोसा. 1883, 134. 529. इ. ऐ. XX, पृ. 201 तथा आगे। 530. क., आ. स. रि. I, 97, V, 102. 198 For Private and Personal Use Only

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