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| तेस एवं मण्डल के संचालक पं० सुबोधचन्द भाई को विस्मृत नहीं हो सकता जिन्होंने मुझे ग्रन्थ उपलब्ध किये तथा लम्बे समय तक उपयोग करने के लिए उदारता बतलाई ।
ग्रन्थ की पाण्डुलिपि को महान् साहित्यकार पं० श्री शोभाचन्द्र जी भारिल्ल ने तथा सुप्रसिद्ध इतिहासकार व पुरातत्ववेता श्री अगरचन्द जी नाहटा ने आदि से अन्त तक अवलोकन कर मुझे अपने अनमोल सुझाव दिये तथा परिष्कार किया और साथ ही मेरे आग्रह को सन्मान देकर श्रीयुत नाहटा जी ने मननीय भूमिका लिखी तदर्थ मैं उनका कृतज्ञ हूँ । यहां अमर भारती के यशस्वी सम्पादक स्नेहमूर्ति श्रीचन्द्र जी सुराना 'सरस' को भी भूल नहीं सकता जिन्होंने ग्रन्थ को मुद्रण कला की दृष्टि से ही सुन्दर नहीं बनाया, पर प्रूफ संशोधन कर मेरे भार को हलका किया है । अन्त में उन सभी लेखकों का व ग्रन्थकारों का आभार मानता हूँ कि जिनसे मुझे सहयोग व मार्गदर्शन मिला है ।
जैन भवन
सायन,
बम्बई
दिनाङ्क ५ मार्च १९७१
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- देवेन्द्र मुनि
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