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भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण
सच्चा सुख समझकर पागल की तरह उसके पीछे दौड़ रहा था, किन्तु एक दिन महान् पुरुषों के संग से उसके ज्ञान नेत्र खुल गये । भेद विज्ञान की उपलब्धि होने से, तत्त्व की अभिरुचि जागृत हुई । सही व सत्य स्थिति का उसे परिज्ञान हुआ ।
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किन्तु कितनी ही बार ऐसा भी होता है कि मिथ्यात्व के पुनः आक्रमण हो जाने से उसके ज्ञान नेत्र धुंधले हो जाते हैं और वह पुनः मार्ग को विस्मृत कर कुमार्ग पर आरूढ हो जाता है, और लम्बे समय के पश्चात् पुनः सत् मार्ग पर आता है । तब वासना से मुंह मोड़कर साधना को अपनाता है, उत्कृष्ट तप व संयम की आराधना करता हुआ एक दिन भावों की परम निर्मलता से तीर्थङ्कर नामकर्म का बंधन करता है और फिर वह तृतीय भव में तीर्थङ्कर बनता है । किन्तु यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जब तक तीर्थङ्कर का जीव संसार के भोग-विलास में उलझा हुआ है, सोने के सिंहासन पर आसीन है तब तक वह वस्तुतः तीर्थंकर नही है, तीर्थङ्कर बनने के लिए, उस अन्तिम भव में भी राज्य - वैभव को छोड़ना होता है । श्रमण बनकर पहले महाव्रतों का पालन करना होता है । एकान्त शान्त, निर्जन स्थानों में रहकर आत्म-मनन करना होता है, भयंकर से भयंकर उपसर्गों को शान्त भाव से सहन करना होता है । जब साधना से ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्म नष्ट होते हैं तब केवल ज्ञान, केवल दर्शन की प्राप्ति होती है | उस समय वे साधु-साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप तीर्थ को संस्थापना करते हैं तब तीर्थङ्कर कहलाते हैं ।
उत्तारवाद :
वैदिक परम्परा का विश्वास अवतारवाद में है । गीता के अभिमतानुसार ईश्वर अज, अनन्त, और परात्पर होने पर भी अपनी अनन्तता को, अपनी माया शक्ति से संकुचित कर शरीर को धारण करता है । अवतारवाद का सीधा सा अर्थ है ईश्वर का मानव के रूप में उतरना - मानव शरीर में जन्म लेना । गीता की दृष्टि से ईश्वर तो मानव बन सकता हैं, किन्तु मानव कभी ईश्वर नहीं बन सकता। ईश्वर के अवतार लेने का एक मात्र उद्देश्य है सृष्टि
४. समवायाङ्ग सूत्र १५७
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