Book Title: Bhagavana Mahavira aur unka Tattvadarshan Author(s): Deshbhushan Aacharya Publisher: ZZZ Unknown View full book textPage 2
________________ प्रस्तावना संस्कृत भाषा में सूक्ति है "संताः परार्थतत्परा:" सत्पुरुष सदा प्राणियों का कल्याण किया करते हैं। मराठी में संत तुकाराम की यह सूक्ति है "जगात्र कल्याण संता च विभूति'' विश्व में प्रेम, तत्वज्ञान और संयम की त्रिपथगा में स्नान कर जीवन को परम विशुद्ध बनाने वाले वर्तमान परमहंस, विश्वगौरव, दिगम्बर, तत्वज्ञानी, ब्रह्मयोगी, बालब्रह्मचारी आचार्यरत्न पूज्य श्री देशभूषणजी महाराज को अध्यात्मिक साधना, सरस्वती की समाराधना और साहित्य सेवा अपना अनुपम स्थान रखती हैं। तरुण वय में मार (काम) को मार लगाकर निर्दोष शीलपूर्ण जीवन व्यतीत करते हुए इन साधराज ने हिंदी, मराठी, बंगाली, तामिल, कन्नड़ आदि अनेक भाषामों का अच्छा ज्ञान प्राप्त करके श्रेष्ठ रचनामों का तलस्पर्शी परिशीलन और चिंतन किया है । इन लोकोपकारी महात्मा ने भारत की राजधानी दिल्ली के भव्य जीवों के पुण्योदय से कई वर्ष यहाँ व्यतीत किये । इनके अद्भत् पवित्र और आकर्षक व्यक्तित्व के कारण विदेशी व्यक्ति भी इनके सम्पर्क को पाकर अपने जीवन को अहिंसापूर्ण मधुर प्रतिज्ञाओं द्वारा सहज ही समलंकृत किया करते हैं। प्राचार्यश्री ने देश के विविध दर्शनों का अहिंसात्मक दृष्टि के साथ अनेकान्त के प्रकाश में परिशीलन किया है। फलतः इनके पुण्य प्रभाव से सभी धर्मों के लोग लाभान्वित होते हैं। हिन्दू धर्म के संतप्रेमी धनकुबेर यी युगल किशोर जी बिड़ला प्राचार्यश्री के प्रति जीवन भर अप्रतिम भक्त रहे। भारत के साधु चेतस्क तथा पुण्य पुरुष प्रधानमन्त्री श्री लालबहादुर शास्त्री प्राचार्यश्री के जीवन से प्राकर्षित हो उनके प्रति प्रगाह श्रद्धा धारण कर उनसे पाशीर्वाद चाह रहे थे कि प्रधान मन्त्री से बड़ा पद प्राप जैसा निष्कलंक शांतिदायो साधु का जीवन व्यतीत करने का क्या मुझे सौभाग्य प्राप्त होगा? साधुराज श्री देशभूषणजी की वाणी में मधुरता है । उनका जीवन बड़ा सरल और दिव्य है। वे अपने जीवन का एकएक क्षण प्रात्मचितन, सद्विचार अथवा परमार्थ में लगाते हैं। साधुराज की दृष्टि कवि नवलशाह को रचना वर्द्धमान पुराण भगवान महावीर के जीवन पर प्रकाश डालने वाली प्राप को प्रिय तथा उपयोगी लगी। यह रचना प्रचार्यथी को दिगम्बर जैन खंडेलवाल मन्दिर, वंदवाड़ा, दिल्ली में मिली । महाकवि नवलशाह महाराज छत्रसाल के पौत्र तथा पुत्र सभासिंह के समकालीन थे । कबिवर ने संवत् १८२५ अर्थात् १७६८ ई० में विविध छन्दों में इस महाकाव्य का निर्माण किया। साधराज के पवित्र हृदय में यह विचार पाया कि भगवान महावीर के परिनिर्वाण के महोत्सव' से सम्बन्धित २५०० वें वर्ष के पावन प्रसंग की स्मृति में उन देवाधिदेव, प्रेम की गंगा प्रवाहित करने वाले भगवान् महावीर की पीयूषषिणो जीविनी प्रकाश में आने पर भव्यात्मानों का कल्याण होगा तथा यह साहित्य के रूप में चिरस्मरणीय स्मारक रहेगा। हिंदी साहित्य की दृष्टि से रचना का अपना एक विशेष आकर्षण है कि इसमें महावीर प्रभु के जीवन सम्बन्धी घटनामों आदि पर प्रकाश डालने वाले लगभग ४०० अनेक रंगयुक्त चित्र हैं। महापुरुष की रचना की समालोचना अथवा प्राचार्यों के श्रेष्ठ श्रम का साधारण मनुष्य क्या मूल्यांकन करेगा? यथार्थ में यह ग्रन्थ शिरसा वन्दनीय और शिरोधार्य होते हैं। परम संयमी जीवन में संलग्न रहने वाले, सदा व्रत उपवास करने वाले प्राचार्य रत्न श्री देशभूषणजी महाराज ने अपार थम उठाकर इस कल्याणकारी रचना को सानुवाद प्रकाश में लाने की जो कृपा की है उसके प्रति प्रत्येक व्यक्ति और साहित्यकार थद्धा से उनके चरणों में सदा प्रणामांजलि अर्पित करेगा। मातृभाषा कन्नड़ होते हुए भी साधुराज ने राष्ट्रभाषा में विविध ग्रन्थरत्नों का निर्माण संपादन अनुवाद आदि किया है।Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 ... 1014