Book Title: Baras Anupekkha
Author(s): Kundkundacharya, Vidyasagar, Chunilal Desai, Atmanandji Maharaj Maharaj
Publisher: Satshrut Sadhna Kendra
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हंतूण जीवरासिं महुमंसं सेविऊण सुरपाणं । परदव्वपरकलत्तं गहिउण य भमदि संसारे ॥३३॥
हो क्रूर जीववध भी कर मांस खाता, पीता सुरा मधु चखे तन दास भाता । पापी पराय धन स्त्री हरता सदा है,, संसारमें गिर, सहे दुःख आपदा है ||३||
(संततिम51) જે ક્રૂરતાથી હિંસા કરી માંસ ખાતો, मधु-भय-मत्त अनी निपने वासरतो; ५२-अंगना-पन पणी ५५ छीनपी सेतो, संसा२-धो२-२५24. म&ि ते २४तो. 33
अर्थ- यह प्राणी जीवोंके समूहको मार करके, शहद (मधु) और मांसका सेवन करके, शराब पीके, पराया धन और पराई स्त्रीको छीन करके संसारमें भटकता है।
આ આત્મા જીવરાશિને ક્રૂરતાપૂર્વક હણીને, મધ માંસનું સેવન કરીને, શરાબ-પાન કરીને, પરધન તથા પરસ્ત્રીનું હરણ કરીને સંસારમાં ભટક્યા કરે છે.
३८ बारस अणुवेक्खा
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