Book Title: Arhat Parshva aur Unki Parampara Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi View full book textPage 4
________________ [ २ ] की हैं, उसके पश्चात् ऋषभ, पार्श्व और अरिष्टनेमि की प्रतिमाओं का क्रम आता है। ऐसा लगता है कि इस काल तक ये ही चार तीर्थकर प्रमुख रूप से मान्य थे और इन्हीं के सम्बन्ध में साहित्यिक विवरण भी लिखे गये थे । कल्पसूत्र भी केवल इन्हीं चारों तीर्थंकरों के सम्बन्ध में संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करता है। उस काल के साहित्यिक एवं पुरातात्त्विक साक्ष्यों में अन्य तीर्थंकरों सम्बन्धी विवरणों का अभाव विचारणीय है। पार्श्व सम्बन्धी इन विवरणों से पार्श्व की ऐतिहासिकता एवं जैन परम्परा में उनका महत्व स्पष्ट हो जाता है। पार्श्व के सम्बन्ध में ई० पू० के अभिलेखीय साक्ष्यों के अभाव से उनकी ऐतिहासिकता पर प्रश्न चिह्न नहीं लगाया जा सकता है, क्योंकि बुद्ध और महावीर के सम्बन्ध में भी एकाध अपवाद को छोड़कर ई० पू० के अभिलेखीय साक्ष्यों का अभाव है। महावीर के सम्बन्ध में एक अभिलेख उनके निर्वाण के ८४ वर्ष पश्चात् का बालडी, राजस्थान से प्राप्त है । मौर्यकालीन अशोक के अभिलेखों में केवल एक स्थान पर ही बुद्ध का नामोल्लेख हुआ है। आज पार्श्व की ऐतिहासिकता के निर्धारण का आधार मात्र साहित्यिक साक्ष्य ही है। दुर्भाग्य से जैन परम्परा के आगमिक ग्रन्थों के अतिरिक्त हमें बौद्ध और वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में भी पार्श्व के नाम का स्पष्ट रूप से कोई उल्लेख नहीं मिलता है। पं०. कैलाशचन्द जी ने लिखा है कि पार्श्व का उल्लेख बौधायन धर्मसूत्र के पूर्व हुए हैं। किन्तु उन्होंने उसका कोई प्रमाण नहीं दिया है। खोज करने पर हमें बौधायन धर्म सूत्र में 'पारशवः' शब्द मिला है किन्तु उसमें वर्णसंकरों के प्रसङ्ग में ही पारशवों की चर्चा है। वहां पारशव का तात्पर्य भिन्न वर्गों के स्त्री-पुरुषों के सम्पर्क से उत्पन्न सन्तानें हैं। ___ 'पारशवः' शब्द का अर्थ पारसी या फारस देश के निवासियों और भारतीयों के सम्पर्क से उत्पन्न सन्तान भी किया जा सकता है । फिर भी इस सम्भावना को पूर्णतया निरस्त नहीं किया जा सकता कि पारशवों का सम्बन्ध पार्श्व के अनुयायी से रहा हो। क्योंकि वैदिक ब्राह्मण श्रमणों को और उनके अनुयायियों को हेय दृष्टि से देखते थे । श्रमणों के अनुयायियों को वर्णसंकर कहने का एक कारण यह होगा कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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