Book Title: Anekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04 Author(s): Gokulprasad Jain Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 3
________________ मध्यप्रदेश की जैन तीर्थस्थली : मक्सी पार्श्वनाथ D डा. सुरेन्द्रकुमार प्रार्य, उज्जन भारतीय संस्कृति धर्म प्रधान है, और हर धर्म में जैन धर्म में तीर्थ स्थान पर मूर्तियों की प्रतिष्ठा एवं तीर्थ यात्रा की महत्ता प्रतिपादित की गई है। तीर्थ यात्रा उनका पूजन अति प्राचीन काल से प्रचलित है। तीर्थों पर से अनुयायी वर्ग मे भक्ति भाव का प्रादुर्भाव होता है और मन्दिरों का निर्माण किया जाता है एवं मूर्तियों की मात्मा की शांति प्राप्त होती है। ये किसी प्राकृतिक प्रतिष्ठा की जाती है सुषमा की महता के कारण शांत स्थान में निर्मित होते मध्यप्रदेश में जैन पुरातत्त्व का प्रक्षय भंगर है। "तीर्थ" शब्द "तृ" धातु से निकला हुमा है, अर्थात् मध्यप्रदेश भारत वर्ष के मध्य में स्थित, क्षेत्रफल की जिम के द्वारा अथवा जिसके आधार से तरा जाय । जिन- दृष्टि से सबसे बड़ा प्रदेश है। इसमें प्रति प्राचीन जनपद सेन कृत "मादि-पुराण" में प्राता है कि जो इस प्रसार प्रवन्ती प्रदेश है और इसकी राजधानी उज्जयिनी थी। ससार समुद्र से पार करे उसे तीर्थ कहते हैं । यहा जिनेन्द्र इसे ही सातवीं शताब्दी से 'मालवा' कहने लगे। प्राचीन का प्रारूपान श्रवण किया जाता है। जैन धर्म में तीर्थ काल से ही प्रवती प्रदेश में नदी-तटों, वनों के सुरम्य स्थान उस स्थान को कहते है जहां तीर्थकरों ने गर्भ, जन्म, वातावरण मे वीतराग योगी पात्मा के उत्थान के लिए अभिनिष्क्रमण, केवल ज्ञान और निर्वाण कल्याण मे से ध्यानलीन रहा करते थे-पावागिरि, सिद्धवरकूट, चुलकोई कल्याणक हुमा हो अथवा किमी तपस्वी मुनि को गिरि, उज्जयिनी ऐसे ही प्राकृतिक सुषमा के प्रमुख तीर्थ कैवलज्ञान या निर्वाण प्राप्त हुमा हो। दिगम्बर समाज में तीन प्रकार के तीर्थ क्षेत्र प्रसिद्ध मालवा प्रदेश मे अतिशय क्षेत्र तो प्रसिद्ध है ही, परन्तु कला, पुरातत्त्व एवं इतिहास की दष्टि से भी अनेक स्थल (१) सिट क्षेत्र (जहां निर्वाण प्राप्त किया गया हो) महत्त्वपूर्ण है। तीर्थकरो की प्रतिमानों, मानस्तंभ, मन्दिर, (२) कल्याणक क्षेत्र प्रकोष्ठ, जैन ग्रन्थ व जैन चित्रों से ऐसे स्थल अपने पाप (३) भतिशय क्षेत्री मे तीर्थो जैसे महत्त्वपूर्ण स्थल हो गये हैं। उज्जैन मे तो प्रथम कोटि में वे क्षेत्र माते हैं जहां तीर्थकर या जैन धर्म का विकास मौर्य युग (ईसा पूर्व २०० वर्ष) से किसी तपस्वी मुनिराज का निर्वाण हुमा हो जैसे कैलाश, ही हो गया था। कसरावद, महेश्वर, सामेर, उज्जैन, चपा, पावा, ऊर्जयंत और सम्मेद शिखर । मक्सी, कायथा, उन्हेल, झारड़ा, खाचरोद, पानबिहार, दूसरे में हैं जहां किसी तीर्थंकर का गर्भ, जल, मभि- हासामपुरा, बदनावर, इन्दौर व सौढंग, करेड़ी, सखेड़ी. निष्क्रमण और केवल-शान कल्याणक हुमा है। पचोर, जामनेर, अदार, ग्राष्टा, शाजापुर, शुजालपुर' तीसरे अतिशय क्षेत्र है जहां किसी मन्दिर मे या मूर्ति मागर मादि ऐसे स्थान है जहा जैन पुरातत्त्व प्रभूत मात्रा में कोई चमत्कार दिखाई दे, तो वह भतिशय क्षेत्र कह- में है व जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएं, धातुयंत्र, मन्दिर प्रव. लाता है। शेष एवं हस्तलिखित ग्रन्थ सुरक्षित हैं। तीर्थ क्षेत्र की यात्रा से पापों का क्षय मोर पुण्य का गुना, बदनायर, ईसागढ़, पाष्टा, सुसनेर, उदरसी, संचय होता है, प्रात्मशुद्धि होती है और वीतराग मुनियों पचोर मादि स्थानों की तुन्दर तीर्थकर प्रतिमाएं दिगम्बर के पावन चरित्र का श्रवण करके उसे हम अपने जीवन मे जैन पुरातत्त्व संग्रहालय, जयसिंहपुरा, उज्जैन में सुरक्षित उतारने का संकल्प लेते हैं। है। यह संग्रहालय भारत के जैन संग्रहालयों में प्रमुख १.डा.वि.श्री वाकणकर : मालवा के जैन पुरावशेष, श्री महावीर स्मारिका, पु० ३४-४० देखिए लेखक द्वारा लिखित दिगंबर जैन मूर्ति संग्रहालय, जयसिंहपुरा का परिचय, पु. १०)Page Navigation
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