Book Title: Anekant 1953 08 Author(s): Jugalkishor Mukhtar Publisher: Jugalkishor Mukhtar View full book textPage 5
________________ किरण ३ ] बि लगि प्रमुख हैं । पाठकोंके समक्ष इन प्राचीन स्थानोंका संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार दिया जाता है - ( १ ) वनवासि - सिरसी से वनवासि १५ मील पर है। नैनोंके परम पुमीत ग्रन्थ पट्खण्डागमके प्रारम्भिक सूत्र, आचार्य पुष्पदन्तके द्वारा इसी पवित्र भूमि में रचे गये थे। इस दृष्टि यह क्षेत्र जैनोंके लिये एक पवित्र तीर्थ खा है। इस प्रसंग में यह भी बतला देना आवश्यक है कि दिगम्बर सम्प्रदायके उपलब्ध साहित्यमें पट्खण्डागम ही आदिम ग्रन्थ है। इससे पूर्व जेनोंके सभी पवित्र आगम ग्रंथ ( अंग और पूर्व ) पूज्य श्राचार्योंके द्वारा कण्ठस्थ ही सुरक्षित रखे गये थे। जैन आगमको सर्वप्रथम लिपिबद्ध करनेका परम श्रेय प्रातः स्मरणीय अाचार्य पुष्पदन्तको ही प्राप्त है। साथ ही साथ, लिपिबद्ध करनेका पुनीत स्थान वही वनवास है । कन्नड भाषाका आदि कवि महाकवि पंप भी इस स्थान पर विशेष मुग्ध था । इसने अपने भारत या 'विक्रमान विजय' में इस प्रदेशकी बड़ी तारीफ की है। महाकवि कहता है कि 'प्रकृति प्रदत्त असीम सौंदर्य से शोभायमान त्याग भोग एवं विद्याका केन्द्र इस वनवासिमें जन्म लेने वाला वस्तुतः महा भाग्यशाली है ।" बड़े खेदकी बात है कि वनवास इस समय एक सामान्य गांव हे । उत्तर दिशाको छोड़ कर यह तीनों दिशाओं में वरदा नहीसे घिरा हुआ है। साथ ही साथ भग्नावशिष्ट एक सूक्ष्मय किजेसे गाँव रुबीदि, कंधु गारवीदि और होलेमबीदि आदि कतिपय मार्गों में विभक्त है । इस समय स्थित जैनोंका मन्दिर कंचुगार रास्ते में है। मन्दिर अधिक प्राचीन नहीं है। साथ ही साथ लकड़ीकी बनी हुई एक सामान्य इमारत है । मन्दिरमें विराजमान मूर्तियाँ भी साधारण हैं । हाँ, तेरुबीदिमें विशाल शिलामय मधुकेश्वर देवालयके नामसे वैष्णवोंका जो मन्दिर विद्यमान है, वह अवश्य दर्शनीय है । यह मूलमें जैन मन्दिर रहा होगा । इस समय इसके लिए सिर्फ दो प्रमाण दिये जाते हैं। एक तो मन्दिर के सामने दीप-स्तम्भ के अतिरिक्त एक और स्तम्भ है जो कि जैन देवालयोंके सामने मानस्तम्भके नामसे अधिकांश पाये जाते हैं। दूसरा प्रमाण मन्दिरके मुख्य द्वार पर गजलक्ष्मी अंडित है। यह भी जैन देवालयोंमें प्रचुर परिमाणमें पाई जाती है । यह बात ठीक ही है कि इस समय तो यहाँ पर Jain Education International उत्तर कन्नडका मेरा प्रवास - [ ७० सर्वत्र हिन्दू चिन्ह ही नजर आते हैं। पर इसमें दे नहीं है कि ये सब चिन्ह बादके हैं। खेद इस बातका है कि यह स्थान जैनोंका एक प्राचीन पवित्र क्षेत्र होने पर भी इस समय वहाँ पर इनके कोई भी उल्लेखनीय चिन्ह दृष्टिगोचर नहीं होते। आजकल यहाँ पर जैनोंके घर भी दो चार ही रह गये हैं । इनकी स्थिति भी संतोषप्रद नहीं है। सुना है कि वनवासिमें किलेके अन्दर और बाहर मिला कर इस समय लगभग ६०० घर हैं और जनसंख्या लगभग ६००० की है । यहाँके जैनमन्दिरमें दूसरीसे सत्रहवीं शताब्दी तकके १२ शिलालेख प्राप्त हुए हैं। ई० पू० तीसरी शताब्दीके बौद्ध ग्रन्थों में भी धनवासिका उल्लेख मिलता है। टोलेमीने भी इसका वर्णन किया है। वस्तुतः प्राचीन कालमें यह बड़े ही महत्वका स्थान रहा है इसका प्राचीन नाम सुधापुर है । सोदे भी सिरसी से ही जाना पड़ा है। सिरसीसे सोदे १२ मील पर है। यह एलापुर जाने वाली मोटरसे जाना होता है। हाँ, मोटरसे उत्तर कर २३ मील पैदल चलना होगा। सोदे भी जैनोंका एक प्राचीन स्थान है। यहाँ पर जैन मठ है। यह मूलमें । कलंकके द्वारा स्थापित कहा जाता है । यहाँ पर भी अठारह समाधियोंको छोड़ कर कोई उल्लेखनीय जैन स्मारक दृष्टिगत नहीं होता । समाधियोंमें भी दो-चारोंको छोड़ कर शेष नाममात्र के हैं । इन समाधियों में एक का लेख पढ़ा जाता है। लेख सोलहवीं शताब्दीका है। मठके पास ही लकड़ीका बना हुआ एक जैन मन्दिर है । । इसकी खड्गासन मूर्ति दर्शनीय है। सामने मुत्तिनकेरेके नामसे भग्नावशिष्ट एक तालाब है । उक्त मन्दिर और यह तालाब एक रानीके द्वारा बनवाये गये कहे जाते हैं 1 वह भी अपने नासिका भूषण ( नथिया को बेचकर इसकी कथा बड़ी रोचक है । कथाका सारांश इस है- सोदेका जैन राजा अनजान में गुब्बि ( पतिविशेष ) का मांस खा गया। मांस वाजीकरण सम्बन्धी औषधिमें वैद्यके द्वारा खिलाया गया था । यह बात II II मालूम हुई। राजाने तत्कालीन सोदेके भट्टारकेजीसे इसका प्रायश्चित माँगा। अदूरदर्शी भट्टारकजीने प्रायश्चित नहीं दिया । फलस्वरूप राजा रुष्ट होकर लिंगायत अर्थात् शैव हो गया । मतान्तरित होने पर राजाने जैनोंपर बड़ा प्रत्याचार किया बल्कि बहुतसे जैनोंको शैव बनाया । बहुतसे * 'बम्बई प्रान्तके प्राचीन जैन स्मारक' ८४ १३१ 1 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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