Book Title: Anekant 1953 08
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनका त R सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' ORG विषय-सूची श्रीवीतराग-स्तवनम् [श्रमरकवि कृतम् उत्तर कन्नडका मेरा प्रवास-[पं०के० भुजवली शास्त्री आस्मा, चेतना या जीवन-[बा० अनन्तप्रसादजी B.Sc. Eng, प्राचीन जैन साहित्य और कलाका प्राथमिक परिचय -[एन, सी. वाकलीवाल ... E५ हमारी तीर्थयात्रा संस्मरण-[पं० परमानन्द शास्त्री ६ भारत देश योगियोंका देश है-[वा. जयभगवानजी जैन एडवोकेट पानीपत • भारतके अजायबघरों और कला भवनोंकी सूची [या पन्नालालजी अग्रवाल ... = वंगीय जैन पुरावृत्त-[बा० छोटेलालजी जैन कलकत्ता ... ... अगस्त वर्ष १२ किरण ३ सन् १६५ अनेकान्तके ग्राहक बनना और बनाना प्रत्येक साधर्मी भाईका कर्तव्य है Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमहावीरजी में मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीका सातवीं प्रतिमा ग्रहण और ५१२५) रु० का दान तथा वीरशासन जयन्ती समाज को यह जानकर अत्यन्त खुशी होगी कि समाजके वयोवृद्ध साहित्य तपस्वी आचार्य जुगुल - किशोर मुख्तार भगवान महावीर की उस विशिष्ट मूर्ति कं सन्मुख स्वामी समन्तभद्र के रत्नकरण्ड श्रावकाचार में. प्रदर्शित सम्म प्रतिमाके व्रतोंको धारण कर नैष्ठिक श्रावक हुए हैं । यद्यपि वे पहले से ही ब्रह्मचर्य व्रतका पालन करते थे परन्तु वह उस समय प्रतिमा रूपमें नहीं था । व्रत ग्रहण करने के पश्चात मुख्तार साहबने परिग्रह परिमाणव्रतकी अपनी सीमाको और भी सीमित करने के लिए वीरसेवामन्दिर ट्रस्टको दिये गये दान के अतिरिक्त अपने निजी खर्च के लिए रक्खे हुए नमें से भी पाँच हजार एक सौ पच्चीस रुपयों के दानकी घोषणा की। जिसमें से पाँच हजार एक रुपया कन्याओं को छात्रवृत्ति के लिए, १०१) वीर सेवा मन्दिर बिल्डिंग फंड में, ११) तीर्थक्षेत्र कमेटी, २) औषधालय महावोरजीको और पांच पांच रुपया दोनों महिला आश्रमको प्रदान किये । इस तरह यह उत्सव सानन्द सम्पन्न हुआ । मुख्तार साहबका कार्य आत्मकल्याणकी दृष्टिसे समयोपयोगी और दूसरोंके द्वारा अनुकरणीय है । वोर शासन जयन्ती इस वर्षकी वोरशासन जयन्तीका उत्सव श्री महावीरजो (चांदनगांव) में सानन्द मनाया गया । तीथ क्षेत्र कमेटी की ओरसे लाउडस्पीकर वगैरहका सब सब प्रबन्ध था और कमेटी के मंत्री सेठ वधीचन्दजी गंगवाल और सोहनलालजी उत्सव में उपस्थित थे । उत्सव में विभिन्न स्थानोंसे अनेक व्यक्ति पधारे थे जिनमें कुछ स्थानोंके नाम नीचे दिये जाते हैं :जयपुर, रेवाड़ी जिला गुड़गांव, व्याजर, देहली, सरसावा, सहारनपुर, नानौता, एटा, फिरोजाबाद, आगरा, ललितपुर (झांसी) गुना. खेमारी जि० उदयपुर और मेनपुरी जि० एटा आदि स्थानों के सज्जन सकुटुम्ब पधारे थे । इसके अतिरिक्त स्थानीय मुमुक्षु जैन महिलाश्रमकी सचालिका श्रीमती वु० कृष्णावाई जी सपरिवार और कमलाबाई आश्रमकी छात्राएँ और पाठिका एँ उसमें शरीक थीं । मुमुक्षु महिलाश्रमकी छात्राओंने ता० २७की रात्रिको वीर शासन जयन्तोका का उत्सव मनाया था और मुख्तार सा० का अभिनंदन भी किया था उत्सव ता० २६ और २७ को मुख्तार सा० और सेठ छदामीलालजीकी अध्यक्षता में दोनों दिन मनाया गया था, ता० २७ को प्रातःकाल प्रभातफेरी और फंडाभिवादन के वाद भगवान महाarrant पूजनकी गई थी। दोपहर को दोनों ही दिन सभाएँ हुई जिनमें विद्वानोंके अनेक सारगर्भित भाषण हुए जिनमें भगवान महावीरकं शासन और उसकी महत्ता पर प्रकाश डालते हुए उस पर स्वयं आचरण करने की ओर संकेत किया गया। रात्रि में ला० राजकृष्णजी जैनने शास्त्र सभाकी और उसमें व्रत नियम ग्रहण करने तथा दीक्षा लेने की आवश्यकता, उसका स्वरूप तथा महत्ताका विवेचन किया । परमानन्द जैन अनेकान्तका 'पर्युषणांक' कान्तके प्रेमी पाठकों और ग्राहकोंको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि इस वर्ष अनेकान्तका 'पर्यापणांक' निकालने की योजना हुई है । इस में दशलक्षणधर्म पर अनेक विद्वानोंके महत्वपूर्ण लेख रहेंगे । अतः लेखक विद्वानों और कवियोंसे सादर अनुरोध है कि वे अपनी अपनी महत्वपूर्ण रचनायें शीघ्र भेज कर अनुगृहीत करें । क्योंकि इस अङ्कको १२ सितम्बर तक प्रकाशित करने का चार है। साथ ही विज्ञापन दाता यदि अपने विज्ञापन शीघ्र ही भेज सकें तो उन्हें भी स्थान दिया जा सकेगा विज्ञापनके रेट पत्र व्यवहारसे तय करें । निवेदक- परमानन्द जैन प्रकाशक 'अनेकान्त' For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहम् मत्त्वे-सघातक विश्वतत्त्व-प्रकाशक वार्षिक मूल्य ५) . एक किरमा का मूल्य ॥). JA नीतिविरोधध्वंसीलोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः । वर्ष १२. किरण ३ सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' वीरसेवामन्दिर, १ दरियागंज, देहली श्रावण वीरनि० संवत् २४७६, वि. संवत २०१० जुलाई १६५३ - श्रीवीतराग-स्तवनम् (अमरकवि-कृतम् ) जिनपते द्र तमिन्द्रिय-विप्लवं दमवतामवतामवतारणम् । वितनुषे भव-वारिधितोऽन्वहं सकलया कलया कलयावया ॥१॥ तव सनातन-सिद्धि-समागमं विनययतो नयतो नयतो जनं । जिनपते सविवेक मुदित्वराऽधिकमला कमलाकमलासया ॥२॥ भव-विवृद्धिकृते कमलागमो जिनमतो नमतो न मतो मम। .. न रतिदामरभूरुहकामना सुरमणी रमणीरमणीयता ॥३॥ किल यशः शशनि प्रसृते शशी सरकतारक तारकतामितः । व्रजति शोषमतोऽपि महामतो विभवतो भवतो भव-तोयधिः॥४॥ न मनसो मन येन जिनेश ते रसमयः समयः समयत्यसौ। जगदभेदि विभाव्य ततः क्षणादपरता परता परतापकृत ॥५॥ त्वयि बभूव जिनेश्वर शाश्वती शमवता ममता मम ताशी। यतिपते तदपि क्रियते न किं शुभवता भवता भवतारणम् ॥ ६॥ भवति यो जिननाथ मनःशमां वितनुते तनुतेऽतनतेजसि । कमिव नो भविनस्तमसां सुखप्रसविना सविता स शिवारयेत् ॥७॥ परमया रमयाऽरमया-त्तयांऽहिकमल कमलं कसलं भयं । , न नतमानतमो न तमां नमनवरविभा रविभा रविभासुर ॥॥ .. . For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ] अनेकान्त अमरसामरसाऽमर-निर्मिता जिननुतिर्ननु तिग्मरुचेर्यथा । रुचिरौ चिरसौख्यपदप्रदा निहत- मोह तमो रियुवीरते ॥ ६ ॥ इति वेणीकृपाण - अमरकवि कृतं श्रीवीतरागस्तवनम् । नोट- गत वीर शासन - जयन्ती के अवसर पर श्रीमहावीरजी अतिशय क्षेत्र ( चांदनपुर ) के शास्त्र भण्डारका अवलोकन करते हुए कई नये स्तुति-स्तवन वीरसेवामंदिरको प्राप्त हुए हैं जिनमें यह भी एक हैं, जो अच्छा सुन्दर भावपूर्ण एवं अलंकारमय स्तोत्र है । इसके कर्त्ता श्रमर कवि, जिनके लिये पुष्पिकामें 'वेणीकृपाण' विशेषण गया है, कब हुए हैं और उनकी दूसरी रचनाएँ कौन कौन हैं यह अभी अज्ञात है । ग्रन्थ प्रति सं० १८२७ की लिखी हुई है । अतः यह स्तवन इससे पूर्वकी रचना है इतना तो स्पष्ट ही है, परन्तु कितने पूर्वकी है यह अम्वेषणीय है । - सम्पादक उत्तर कन्नडका मेरा प्रवास ( लेखक - विद्याभूषण पं० के० भुजबली शास्त्री, मूडबिद्री ) उत्तर कन्नडकी चौहद्दी इस प्रकार हैं उत्तर में बेल गाम; पूर्व में धारवाड एवं मैसूर; दक्षिणमें मद्रास प्रांतीय दक्षिण कन्नड, पश्चिममें अरब समुद्र और उत्तर पश्चिम में गोवा । यह प्रान्त दीर्घकालसे विश्रुत है । ई० पू० तीसरी शताब्दी में मौर्य सम्राट अशोकने इस प्रान्तान्तर्गत वनवासिमें अपना दूत भेजा था। यहांके प्राप्त अन्यान्य शिलालेखोंसे प्रकट है कि यहाँपर क्रमशः कदंबोंने, रहोंने, पश्चिम चालुक्योंने और यादवोंने राज्य किया है। साथ ही साथ पुष्ट प्रमाणोंसे यह भी सिद्ध है कि यह प्रदेश सुदीर्घ काल तक जैनधर्मका केन्द्र रहा है । एम० गणपतिरावके मत से कदंबोंने ई० पू० २०० से ई० सन् ६०० तक राज्य किया था। हां, बाद में भी इस वंशके राजाओंने शासन किया है अवश्य । पर, चालुक्य, राष्ट्रकूट और विजयनगर के शासकोंकी श्राधीनतामें । दक्षिणके प्राचीन चोल, चेर पाण्ड्य और पल्लव राजाओं की तरह कदंब राजाओं ने भी खास कर मृगेशवर्मासे हरिवर्मा तकके शासकोंने जैनधर्मको विशिष्ट श्राश्रय प्रदान किया था x । मृगेश वर्मा स्वयं जैनधर्मानुयायी था । उसने अपने राज्यके तीसरे वर्ष में जिनेन्द्रके अभिषेक, उपलेपन, पूजन, भग्न संस्कार ( मरम्मत ) और महिमा ( प्रभावना कार्यों के लिए भूमिदान किया था। उस भूमिमें एक विवर्तन भूमि खास कर पुष्पोंके लिए निर्दिष्ट थी । X मृगेश * दक्षिण कन्नड निल्लेय प्राचीन इतिहास पृष्ठ १६ X 'जर्नल व दी मीथिक सोसाइटी' भा० २२, पृ० ६१ [ किरण ३ वर्माका ग्रामदान सम्बन्धी एक दूसरा दानपत्र भी मिलता है । इसीके समान इसका पुत्र रविवर्मा भी पिता मृगेशवर्माकी तरह जैनधर्मका भक्त रहा इसका एक महत्वपूर्ण दानपत्र पलासिका (बेलगाम) में प्राप्त हुआ है । जो कि जैनधर्म में इसके दृढ़ सिद्धान्तको प्रकट करता है । रविवर्माका उत्तराधिकारी हरिवर्मा भी अपने प्रारम्भिक जीवनमें जैनधर्मका श्रद्धालु था । हां, वह अपने अन्तिम जीवनमें शैव हो गया था । इसने भी जैनमन्दिर श्रादिके लिये दान दिया है । सारांशतः कदंबवंशी राजाओं के शासनकाल में जैनधर्म विशेष श्रभ्युदयको प्राप्त हुआ था । श्री बी० एस० रावके शब्दों में कदंबोंके राजकवि जैन थे। उनके सचिव और अमात्य जैन थे, उनके दानपत्रों के लेखक जैन थे और उनके व्यक्तिगत नाम भी जैन थे । साथ-ही-साथ कदंबोंके साहित्यकी रूप-रेखा भी जैन काव्यशैलीकी थी । इस प्रांतके बाद के राष्ट्रकूट और चालुक्य आदि शासकोंका सम्बन्ध भी जैनधर्मसे कितना घनिष्ट रहा, इस बातको इतिहासके अभ्यासी स्वयं भली प्रकार जानते हैं । इसलिए उस बातको फिर दुहराकर इस लेखके कलेवर को बढ़ाना मुझे इष्ट नहीं है। वहांके उल्लेखनीय स्थानोंमें ( १ (३) गेरुसोप्पे ( ४ ) हाडहल्लि ५. * 'जैनीज्म इन साउथ इंडिया' + 'जैन हितैषी' भा० १४, पृ० T २२६. + 'नैन हितैषी भा० १४, पृ० २२७. For Personal & Private Use Only वनवासि (२) सौदे भटकल और (६) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३ ] बि लगि प्रमुख हैं । पाठकोंके समक्ष इन प्राचीन स्थानोंका संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार दिया जाता है - ( १ ) वनवासि - सिरसी से वनवासि १५ मील पर है। नैनोंके परम पुमीत ग्रन्थ पट्खण्डागमके प्रारम्भिक सूत्र, आचार्य पुष्पदन्तके द्वारा इसी पवित्र भूमि में रचे गये थे। इस दृष्टि यह क्षेत्र जैनोंके लिये एक पवित्र तीर्थ खा है। इस प्रसंग में यह भी बतला देना आवश्यक है कि दिगम्बर सम्प्रदायके उपलब्ध साहित्यमें पट्खण्डागम ही आदिम ग्रन्थ है। इससे पूर्व जेनोंके सभी पवित्र आगम ग्रंथ ( अंग और पूर्व ) पूज्य श्राचार्योंके द्वारा कण्ठस्थ ही सुरक्षित रखे गये थे। जैन आगमको सर्वप्रथम लिपिबद्ध करनेका परम श्रेय प्रातः स्मरणीय अाचार्य पुष्पदन्तको ही प्राप्त है। साथ ही साथ, लिपिबद्ध करनेका पुनीत स्थान वही वनवास है । कन्नड भाषाका आदि कवि महाकवि पंप भी इस स्थान पर विशेष मुग्ध था । इसने अपने भारत या 'विक्रमान विजय' में इस प्रदेशकी बड़ी तारीफ की है। महाकवि कहता है कि 'प्रकृति प्रदत्त असीम सौंदर्य से शोभायमान त्याग भोग एवं विद्याका केन्द्र इस वनवासिमें जन्म लेने वाला वस्तुतः महा भाग्यशाली है ।" बड़े खेदकी बात है कि वनवास इस समय एक सामान्य गांव हे । उत्तर दिशाको छोड़ कर यह तीनों दिशाओं में वरदा नहीसे घिरा हुआ है। साथ ही साथ भग्नावशिष्ट एक सूक्ष्मय किजेसे गाँव रुबीदि, कंधु गारवीदि और होलेमबीदि आदि कतिपय मार्गों में विभक्त है । इस समय स्थित जैनोंका मन्दिर कंचुगार रास्ते में है। मन्दिर अधिक प्राचीन नहीं है। साथ ही साथ लकड़ीकी बनी हुई एक सामान्य इमारत है । मन्दिरमें विराजमान मूर्तियाँ भी साधारण हैं । हाँ, तेरुबीदिमें विशाल शिलामय मधुकेश्वर देवालयके नामसे वैष्णवोंका जो मन्दिर विद्यमान है, वह अवश्य दर्शनीय है । यह मूलमें जैन मन्दिर रहा होगा । इस समय इसके लिए सिर्फ दो प्रमाण दिये जाते हैं। एक तो मन्दिर के सामने दीप-स्तम्भ के अतिरिक्त एक और स्तम्भ है जो कि जैन देवालयोंके सामने मानस्तम्भके नामसे अधिकांश पाये जाते हैं। दूसरा प्रमाण मन्दिरके मुख्य द्वार पर गजलक्ष्मी अंडित है। यह भी जैन देवालयोंमें प्रचुर परिमाणमें पाई जाती है । यह बात ठीक ही है कि इस समय तो यहाँ पर उत्तर कन्नडका मेरा प्रवास - [ ७० सर्वत्र हिन्दू चिन्ह ही नजर आते हैं। पर इसमें दे नहीं है कि ये सब चिन्ह बादके हैं। खेद इस बातका है कि यह स्थान जैनोंका एक प्राचीन पवित्र क्षेत्र होने पर भी इस समय वहाँ पर इनके कोई भी उल्लेखनीय चिन्ह दृष्टिगोचर नहीं होते। आजकल यहाँ पर जैनोंके घर भी दो चार ही रह गये हैं । इनकी स्थिति भी संतोषप्रद नहीं है। सुना है कि वनवासिमें किलेके अन्दर और बाहर मिला कर इस समय लगभग ६०० घर हैं और जनसंख्या लगभग ६००० की है । यहाँके जैनमन्दिरमें दूसरीसे सत्रहवीं शताब्दी तकके १२ शिलालेख प्राप्त हुए हैं। ई० पू० तीसरी शताब्दीके बौद्ध ग्रन्थों में भी धनवासिका उल्लेख मिलता है। टोलेमीने भी इसका वर्णन किया है। वस्तुतः प्राचीन कालमें यह बड़े ही महत्वका स्थान रहा है इसका प्राचीन नाम सुधापुर है । सोदे भी सिरसी से ही जाना पड़ा है। सिरसीसे सोदे १२ मील पर है। यह एलापुर जाने वाली मोटरसे जाना होता है। हाँ, मोटरसे उत्तर कर २३ मील पैदल चलना होगा। सोदे भी जैनोंका एक प्राचीन स्थान है। यहाँ पर जैन मठ है। यह मूलमें । कलंकके द्वारा स्थापित कहा जाता है । यहाँ पर भी अठारह समाधियोंको छोड़ कर कोई उल्लेखनीय जैन स्मारक दृष्टिगत नहीं होता । समाधियोंमें भी दो-चारोंको छोड़ कर शेष नाममात्र के हैं । इन समाधियों में एक का लेख पढ़ा जाता है। लेख सोलहवीं शताब्दीका है। मठके पास ही लकड़ीका बना हुआ एक जैन मन्दिर है । । इसकी खड्गासन मूर्ति दर्शनीय है। सामने मुत्तिनकेरेके नामसे भग्नावशिष्ट एक तालाब है । उक्त मन्दिर और यह तालाब एक रानीके द्वारा बनवाये गये कहे जाते हैं 1 वह भी अपने नासिका भूषण ( नथिया को बेचकर इसकी कथा बड़ी रोचक है । कथाका सारांश इस है- सोदेका जैन राजा अनजान में गुब्बि ( पतिविशेष ) का मांस खा गया। मांस वाजीकरण सम्बन्धी औषधिमें वैद्यके द्वारा खिलाया गया था । यह बात II II मालूम हुई। राजाने तत्कालीन सोदेके भट्टारकेजीसे इसका प्रायश्चित माँगा। अदूरदर्शी भट्टारकजीने प्रायश्चित नहीं दिया । फलस्वरूप राजा रुष्ट होकर लिंगायत अर्थात् शैव हो गया । मतान्तरित होने पर राजाने जैनोंपर बड़ा प्रत्याचार किया बल्कि बहुतसे जैनोंको शैव बनाया । बहुतसे * 'बम्बई प्रान्तके प्राचीन जैन स्मारक' ८४ १३१ 1 For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८१ जैन राज्य छोड़कर अन्यत्र भाग गये। भट्टारकजीको राज धानीसे अलग कर दिया। यही कारण है कि उन्हें दूसरे स्थान पर मठ बनवाना पड़ा। वही वर्तमान मठ कहा जाता है । थोड़े समय के बाद एक दिन राजा सख्त वीमार हो गया । बचनेकी श्राशा कम दिखाई दी । उसकी रानीने जो कट्टर जैन धर्मानुयायी रही, यह प्रतिज्ञा की कि इस कष्ट - साध्य बीमारीसे अगर राजा बच गया तो मैं अपने सौभाग्य चिन्ह नासिकाभूषणको बेचकर एक जैन मन्दिर बनवा दूंगी। राजा स्वस्थ हो गया। सुना है कि बादमें रानीने प्रतिज्ञानुसार इस मन्दिरका निर्माण कराया था। साथ-ही-साथ सामनेका तालाब भी । इसलिये इस सरो यरका नाम मुतिनकेरे प्रसिद्ध हुआ। क्योंकि नासिकाभूषण मोतियोंका बना हुआ था । | पूर्वोक मन्दिरके बगखमें एक विशाल शिवाय दूसरा मन्दिर है । इस समय यह वैष्णवोंके वश में है । यह मूलमें जैन मन्दिर ही रहा होगा। इसके सामने मानस्तम्भ मौजूद है। मन्दिरके ऊपर सामने कीर्तिमुख भी मटके श्रास-पास इमारत के बहुतसे पत्थर पड़े हुए हैं। ये सब प्राचीन स्मारकोंके ही मालूम होते हैं। वर्तमान भट्टारक जी भद्रपरिणामी अध्ययनशील व्यवहारकुशल त्यागी हैं । यहाँ पर ताड़पत्रके ग्रन्थोंका संग्रह भी है। पर इसमें कोई अप्रकाशित महत्वपूर्ण प्रन्ध नहीं मिला । प्रन्यान्य स्थानोंके शिलालेखोंकी तरह सोदेके शिलालेख भी बम्बई सरकारकी श्रोरसे प्रकाशित हो चुके हैं। , -- (३ गेरुसोप्पे - इसका प्राचीन नाम महातकीपुर है । होनावरसे पूर्व अठारह मील पर शरावतीके किनारे यह गाँव है । प्रसिद्ध जांग जलपात से भी इतनी ही दूर है । ई० सन् १४०६ से १६१० तक यह गेरुसोप्पेके जैन राजाओंकी राजधानी थी। स्थानीय लोगोंका विश्वास है कि अपने महत्वके दिनों में यहाँ पर एक लाख घर और चौरासी मन्दिर विद्यमान थे । जन श्रुति है कि विजयनगर के राजाओं ( ई• सन् १३३६ - १५५५ ) ने ही गेरुसोप्पेके जैन राजवंशको उन्नत बनाया था । १२वीं शताब्दी के प्रारम्भसे यहाँका राजस्व प्रायः स्त्रियोंके हाथमें ही रहा क्योंकि १६वीं और 10वीं शताब्दी के प्रथम भागके प्राक सभी लेखक गेरुसोप्पे या भटकलकी महारानीका नाम लेते हैं। १७वीं शताब्दी के प्रारम्भमें गेरुसोप्पेकी अन्तिम महारानी भैरादेवी पर विदनूरके वेंकट नायकने हमला अनेकान्त किरण ३ 1 I किया था । इस लड़ाई में वह हार गई। स्थानीय समाचारके अनुसार भैरादेवी १६०८ में मरी ई० सन् १९२३ में इटलीका पात्री लावेले (Denavalle) इस नगरको एक प्रसिद्ध नगर लिखता है। हाँ, उस समय नगर और राजमहल नष्ट हो गये थे। यह नगर काली मिर्च के लिए इतना प्रसिद्ध था कि पुर्तगालियोंने सोयेकी रानीको Pepper queen लिखा है वर्तमान गवसे प्राचीन नगरका ध्वंशावशेष डेढ़ मील पर हैं। इस समय यहाँ पर सिर्फ पाँच जैन मन्दिर हैं वे भी सघन जंगलके बीचमें । उपर्युक्त पाँच मन्दिर पार्श्वनाथं, वर्धमान, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ पद्मावती और चतुर्मुख । इनमें चतुर्मुख बढ़ा सुन्दर है । पद्मावती मन्दिर में पद्मावती तथा अम्बिकाकी मूर्तियाँ और नेमिनाथ मन्दिरमें नेमिनाथकी मूर्ति सर्वथा दर्शनीय है। शेष मूर्तियाँ भी कंलाकी दृष्टि से कम सुन्दर नहीं हैं । चतुमुख मन्दिर बाहरके द्वारखे भीतर के द्वार तक ६३ फुट खम्बा है। मन्दिर २२ वर्ग फुट है। बाहर २४ फुट है । मण्डप और मन्दिरके तरफ द्वारपाल मुकुट सहित वर्तमान हैं । मन्दिर भूरे पाषाणका है। इसके चार बड़े मोठे गोल खम्भे देखने लायक यहाँ है के शिक्षालेख भी प्रकाशित हो चुके हैं। इसमें सन्देह नहीं है कि 'गेरुसोप्पे' एक प्राचीन दर्शनीय स्थान है। द्वारों पर हर 9 '3 ( ४ ) हाडहलि— इसका प्राचीन नाम संर्ग तपुर है । हाडहल्लि भटकलसे उत्तर पूर्व ११ मील पर है यहाँ पर भी तीनों मन्दिरोंके सिवा दर्शनीय वस्तु और कुछ नहीं है। हाँ, जहाँ-तहाँ भग्नावशेष अवश्य दृष्टिगत होते हैं । इन सबसे सिद्ध होता है कि एक जमाने में यह एक वैभवशाली नगर रहा है भग्नावशेषों में मन्दिर, मकान और किला आदि हैं। पर अब अवशिष्ट ये चीजें भी जंगल में विलीन होती जा रही है। इस समय यहाँ पर चारों ओर सघन जंगलका ही एकाधिपत्य है तीन मन्दिरों में से शिलामन एक मन्दिर अधिक सुन्दर है परन्तु साथ ही साथ जीर्ण भी। दूसरा एक मन्दिर भी शिलामय अवश्य है, पर कलाकी दृष्टिसे यह सामान्य है I तीसरा मंदिर मामूली मृणमय है हाँ इसमें विराजमान २४ तीर्थंकरोंकी शिखामय मूर्तियों अवश्य अवलोकनीय है। इसमें बची पद्मावती की मूर्ति भी है, जिसे जैन जैनेसर बड़ी भक्ति से पूजते है। शेष दो मंदिरोंकी मूर्तियाँ भी For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] उत्तर कन्नड़का मेरा प्रवास [७६ कलाकी दृष्टिसे बुरी नहीं हैं। हाँ ये दोनों मंदिर अनंत- लेख, सुन्दर मूर्तियाँ आदि अब 'कन्नड़ संशोधन मंदिर' ' नाथ मंदिरके नामसे प्रसिद्ध हैं। इन मंदिरोंके जीर्णोद्धार- धारवाड़में बम्बई सरकारकी ओरसे रक्षित हैं। की आवश्यकता है. यहाँ पर इस समय पुजारीके मकानके (६) बिलगि-इसका प्राचीन नाम श्वेतपुर है वह अलावा जैनोंका पिफ एक मकान और है यहाँ पर भी सिद्धापुरसे पश्चिम पांच मील पर है । यहांके महत्वपूर्ण कई शिलालेख मिले हैं। ये बम्बई सरकारकी अोरसे प्राचीन जैनस्मारकोंमें पार्श्वनाथमंदिर ही प्रमुख है । प्रकट हो चुके हैं। यह मंदिर कलाकी दृष्टिसे विशेष उल्लेखनीय है। द्राविड़ (५) भट्रकल-इसका प्राचीन नार मणिपुर है। ढंगका यह मंदिर पश्चिम मैसरके द्वार समुद्र (हलेबीडु) यह नगर होनावर तालुकमें होन्नावरसे २४ मील दक्षिण स्थित विष्णु मंदिरसे मिलता है। इसकी नक्काशीका काम अरब समुद्र में गिरने वाली एक नदीके मुहाने पर बसा वस्तुतः दर्शनीय है। कहा जाता है कि बिलिगि नगरको हुआ है। चौदहवीं और सोलहवीं शताब्दीसे यह व्यापार- जैन राजा नरसिंह के पुत्रने बनाया था ! महाराजा नरसिंह का केन्द्र रहा है । कप्तान हेमिलटनने इस नगरका बिलिगिसे पूर्व चारमीज पर होसूरमें लगभग ई. सन् उल्लेख गौरवके साथ किया है। १८वीं शताब्दीके प्रारंभ- १९६१ में राज्य करता था। कहते हैं कि उपयुक्त पश्च ब्राह्मणाक बहुतस मंदिर थे । जन- नाथ मंदिग्को इस नगरको बसाने वाले राजाने ही बनवाण मंदिरोंकी रचना अधिक प्राचीन कालका है । वहाँक जैन- था। यहां पर भी महत्वपर्ण कई शिलालेख हैं। ये शिला मंदिरों में चंद्रनाथ मंदिर विशेष उल्लेखनीय है यह सबसे लेख भी बम्बई सरकारकी पोरसे प्रकट हो चुके हैं। श्रीयुत् बड़ा है, साथ ही साथ सुन्दर भी । मंदिर एक खुले मैदान एम. गणपतिरावके मतसे शा. श. १४०० से १६८१ में स्थित है और उसके चारों तरफ एक पुराना कोट है तक बिलिगिमें जैनोंका ही राज्य था। यहांके शिलालेखोंइसकी लम्बाई १०२ फुट तथा चौड़ाई ४० फुट है। से सिद्ध होता है कि ऐलूर ग्राममें पार्श्वनाथ देवालयको इसमें अग्रशाला, भोग मण्डष तथा खास मंदिर हैं। बनवाने वाला राजा कल्लप्प (चतुर्थ), बिखिगि में पार्श्वमंदिरमें दो खन हैं। प्रत्येक खनमें तीच तीन कमरे हैं। देव जिनालयको निर्माण कराने वाला अभिनव हिरिय इनमें पहले भर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि और भैरव श्रोडेय (अष्टम) और इसी बिलिगिमें शांतिनाथ पार्श्वनाथकी मूर्तियां विराजमान थीं। परन्तु अब वे मूर्तियां देवालयको स्थापित करने वाला राजा तिम्मरण ये तीनों यहां पर नहीं हैं। भोग मण्डप की दीवालोंमें सुन्दर बिलिगिके जैन शासक थे । साथ ही साथ यहांके राजा खिड़कियां लगी है। अग्रशाला का मंदिर भी दो खनका रंग (त्रयोदश). राजा हम्मडि धद्र (चतुर्दश) और राजा है। प्रत्येकमें दो कमरे हैं, जिनमें ऋषभ, अजित, शंभव, रंगप्प पंचदश) भी जैन धर्मानुयायी थे और इनके द्वारा अभिनन्दन तथा चन्द्रनाथ की 'तिमाएँ विराजमान थीं। जैन देवालय, मठ आदि निर्माण कराये गये थे । उपयुक्त ये भी अब वहाँ पर नहीं हैं। सामने १४ वर्गफुट चबूतरे सभी शासकोंदे इन जिनायतनोंको यथेष्ट दानभी दिया पर २१ फुट ऊँचा चौकोर गुबज वाला पाषाणमय सुंदर था ! बिलिगिके शासकोंके राजगुरु संगीतपुरके भट्टाकलंक मानस्तंभ खड़ा है। मंदिरके पीछे १६ फुट लंबा ब्रह्मयक्ष- थे । यद्यपि उत्तर कन्नड़में मंकि, होन्नावर, कुमटा और का खंभा भी है । इस मंदिरको जट्टप्प नायकने बनवाया मुरडेश्वर आदि और भी कई स्थान हैं जिनमें जैन स्मारक था। इसकी रक्षाके लिये निर्माताके द्वारा उस समय बहुतसी पाये जाते हैं और जिनका उल्लेख आवश्यक है । पर जमीनें दी गई थीं, जिनको टीपू सुलतानने ले लिया है। लेख बूद्धिके भयसे इस समय उन स्थानोंके सम्बन्धमें शांतिश्वर मंदिर भी लगभग इस मंदिरके समान था। कुछ भी न लिख कर, यह लेख यहाँ पर समाप्त किया पर अब वह मुसलमानोंके हाथ में है। पार्श्वनाथ मंदिरमें जाता है। अन्तमें मैं भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभाके इस समय मूर्तियां अवश्य हैं। यह मंदिर ५८ फुट लंबा ___ महामन्त्री श्रीमान् परसादीलालजी पाटनी दिल्लीको और १८ फुट चौदा है। यह शा० श. १४६५ में बना धन्यवाद देना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ जिनकी था। यहां बहुतसे शिलालेख मिले हैं। इन्हें बम्बई कृपासे गत '५२ के अप्रैल मासमें इन स्थानोंका दर्शन सरकारने प्रकाशित कराया है। इस प्रांतके अनेक शिला- कर सका। For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा, चेतना या जीवन (ले० अनंत प्रसादजी B. Se. Eng. 'लोकपाल' ) संसार में हम दो प्रकार की वस्तुएँ देखते हैं । एक निर्जीव और दूसरी सजीव । सजीवोंका भी बाहरी शरीर या रूप आकार निर्जीव वस्तुओं, धातुओं या रसायनों का हुआ होता है। सजीवोंमें चेतना, ज्ञान और अनुभूति रहती है जबकि निर्जीव वस्तुएँ एकदम श्रचेतन, ज्ञान और जड़ होती हैं। मानव, पशु पक्षी, कृमिकीट पतंग, मछली, पेड़ पौधे इत्यादि जानदार, सजीव या जीवधारी हैं. पहाड़, मदी, पृथ्वी, पत्थर, सूखी लकड़ी. शीशा. धातुएँ, जहाज, रेल, टेलीफोन, रेडियो, बजली, प्रकाश, हवा, बादल, मकान, इत्यादि मिर्जीव बस्तुएँ हैं । दोनों की विभिन्नताएँ हम स्वयं देखते, पाते और अनुभव करते हैं। एक टेलीफोनके खंभेके पास यदि कोई गाना बजाना करे तो खंभे को कोई अनुभूति नहीं होगी - वह जड़ है | टेलीफोनके यन्त्रों और तारों द्वारा कितने संवाद जाते आते हैं पर वे यन्त्र या तार उन्हें नहीं जान सकते न समझ सकते हैं— उनमें यह शक्ति ही नहीं है । पर यदि मनुष्यसे कोई बात कही जाय तो वह तुरन्त उस पर विचार करने लगता है और उसके अनुसार उसके शारीरिक और मानसिक कार्य-कलाप अपने आप होने लगते हैं । एक पशु कोई चीज या रोशनी देखकर या आवाज सुनकर बहुतसी बातें जान जाता है जबकि कोई निर्जीव वस्तु ऐसा कुछ नहीं करती न कर सकती है। एक आईने में प्रतिविम्ब कितने भी पढ़ते रहें आईना स्वयं उनके बारेमें कोई अनुभूति नहीं करता पर एक मानवकी आखों में वेही प्रतिविम्ब तरह तरह के विचार उत्पन्न करते हैं । जीव धारियोंक मारने पीटने दबाने, बेधने, जलाने आदिसे पीड़ा या दुखका अनुभव होता है जबकि निर्जीवोंको वैसा कुछ भी नहीं होता । लोहे या चान्दीके लम्बे लम्बे तार खींच दिए जाते हैं या चदरें तैयार कर दिए जाते हैं, शीशेके टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाते हैं धातुओंको श्रागकी तापमें गला दिया जाता है पर उन्हें जराभी पीड़ा कष्ट आदि होते नजर नहीं आते क्योंकि उनमें ज्ञान या चेतना एकदमही नहीं है। जैसे निर्जीव बस्तुओं की किस्में रूप गुणादिकी विभिन्नताको लिए हुए श्रगणित, असंख्य और अनंत हैं उसी तरह जीवधारियोंकी संख्या और किस्में भी रूप, गुणादि एवं चेतनाकी कमीवेशी श्रादिकी विभिन्नताको लिए हुए अगणित, असंख्य और अनंत हैं। जीवधारियोंका विभाग उनकी चेतनाकी कमीवेशीके अनुसार जैन शास्त्रोंमें बड़ी सूक्ष्म रीति से किया हुआ मिलता है। एक इन्द्रिय बाले, दो इन्द्रियों वाले, तीन इन्द्रियों वाले, चार इन्द्रियों वाले, पाँच इन्द्रियों वाले तथा पाँच इन्द्रियोंमें मन बाले और बे वाले करके कई मुख्य विभाग किए गए हैं। एक इन्द्री वाले जीव वे हैं जिनमें चेतना ज्ञान या अनुभूति कमसे कम रहती है- ये प्रायः जड़ तुल्य ही हैं - फिरभी इनमें जीवन और मृत्यु है और शरीर के साथ चेतना भी है—भलेही वह चेतना सूक्ष्मातिसूक्ष्म अथवा कमसे कम हो पर रहती अवश्य है । यही चेतना जड़ या निर्जीव और सजीव या आनदारके भेदको बनाती तथा प्रदर्शित करती है | चेतनाही जीवका लक्षण या पहिचान है। प्रश्न यह उठता है कि निर्जीवों में यह ज्ञान - अनुभूतिमई चेतना क्यों नहीं रहती हैं और सजीवोंमें कहांसे कैसे क्यों हो जाती या रहती है ? विभिन्न दर्शनों और मतावलम्बियों ने इस समस्याको हल करनेके लिए विभिन्न विचारोंका श्राविष्कार कर रखा है। धर्मों और संप्रदायोंका मतभेद प्रथमतः यहीं से आरम्भ होता है और संसार के सारे भेदभावों एवं झगड़ोंकी जड़भी हम इसे ही कह सकते हैं। मनुष्यने अनादिकाल से अबतक ज्ञान विज्ञान में कितनी वृद्धि की पर यह प्रश्न अबभी ज्योंका त्यों जटिलका जटिलही बना रहा। श्राधुनिक विज्ञानभी अबतक इसका समाधानात्मक एवं निर्णयात्मक कोई निश्चित उत्तर या हल नहीं दे सका है । जितना जितना विद्वानोंने इसे सुलझाने और समझने-समझानेकी चेष्टाकी यह उतनाही अधिकाधिक उलझता और गूढ होता गया । जैनदर्शनने इस समस्याका बड़ाही विधिवत, व्यवस्थित वैज्ञानिक, परस्पर अविरोधी बुद्धिपूर्ण, सुतर्कयुक्त For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] भात्मा, चेतना या जीवन [८१ और श्रृंखलाबद्ध समाधान संसारके सामने बड़े प्राचीन रहना बड़ाही हानिकारक है। सुज्ञान या सही ज्ञानसे कालसे रखा है-परन्तु धार्मिक कट्टरता द्वेष-विद्वेष, ही व्यक्तिकी और मानवताकी सच्ची उन्नत्ति हो सकती है। छोटे बड़ेकी भावना तथा सुज्ञानकी कमी और तरह तरहके दूसरे कारणोंसे यह शुद्ध ज्ञान कुछही लोगों तक सीमित जो कुछ हम इस विश्व या संसारमें देखते या पाते हैं उस सबका अस्तित्व (Existance) है। यह अस्तित्व रह गया तथा संसारमें फैल नहीं सका। अब इस तर्क वह प्रत्यक्ष सत्य है जिसका निराकरण करना या जिसे बुद्धि-सत्यके युगमें इस शुद्ध, सही सुज्ञानको स्वकल्याण और मानव कल्याणके लिए विशद रूपसे विश्व में फैलाना नहीं मानना भ्रम तथा गलती है। कुछ नहीं (शून्य, हमारा कर्तव्य है। Vacum) से कोई वस्तु (Matter) न उत्पन्न हो सकती है न बन या बनाई जा सकती है। मिट्ठीसे ही घड़ा विविध स्थानों, समयों, वातावरणोंमें पैदा होने बनाया जा सकता है या बन सकता है बिना वस्तुके पलने और रहनेके कारण मनुष्य की प्रवृत्तियोमें महान् आधारके वस्तु या वास्तविक कुछ नहीं हो सकता। संसार विभेद और अन्तर तथा विभिन्नताएँ रहती हैं। योग्यता, में जो कुछ है वह सर्वदासे था और सर्वदा रहेगा-यही शिक्षा और ज्ञानकी कमी-बेशीभी सभी जगह सभी वैज्ञानिक, सुतर्कपूर्ण और बुद्धियुक्त सत्य है। इसके विपव्यक्तियोंमें रहती ही हैं। इन विविध कारणोंसे विचार धर्म रीत कोईभी दूसरी धारणा ग़लत है। वस्तुओंके रूप और दर्शनकी विविधता होना भी स्वाभाविक ही है । यदि परिवर्तित होते या अदलते बदलते रहते हैं । मिट्टीके ये स्वयं स्वाभाविकरूपमें ही विकसित होते तो कोई हर्ज कणोंको इकट्ठा कर पानीकी सहायतासे निर्माण योग्य नहीं था-अंतमें विकासके चरमोत्कर्षपर सब जाकर एक बनाकर घड़े का उत्पादन होता है और पुन: घड़ा टूट फूट जगह अवश्य मिल जाते, पर सांसारिक निम्न स्वार्थ और कर ठिकरों या कणों इत्यादिमें बदल जाता है। हो सकता अहंकारने ऐसा होने नहीं दिया-यही विडम्बना है। है कि यह हमारा संसार (पृथ्वी) किसी समय बर्तमान करीब करीब सभी अपनेको सही और दूसरेको कमवेश जलते सूर्य की तरह ही कोई जलता गोला रहा हो या धूलग़लत कहते हैं। एक दूसरेकी बात समझ कर एक दूसरेसे कणों और गैसों का 'लोन्दा' रहा हो और बादमें इनमें मिलजुल कर एक निश्चित अंतिम मार्ग निकालना लोग शक्लें बनती गई हों, तरह तरहके रूप होते गए हों। पसन्द नहीं करते-संसारकी दुर्दशाओंका जनक और शकलों और रूपोंका बनना बिगड़ना तो अबभी लगा हो मुख्य स्रोत विरोधाभास रहा है। सारा संसार एक बहुत हुआ है । उस 'गोले' या 'लोन्दे' में जीव और अजीव बड़े परिवारकी तरह एक है और मानवमात्र एक दूसरेसे दोनोंही सूक्ष्म या स्थूल रूपमें रहे ही होंगे । वस्तुओंके संबन्धित निकटतम रूपसे उस परिवारके सदस्य हैं । अब सूचम और स्थूल रूप एक दूसरेके संगठनऔर विघटनसे तो विज्ञानके बहुव्यापी विकास और यातायातके साधनोंकी बनते बिगड़ते रहते हैं। सर्वथा नया कुछभी पैदा नहीं उन्नतिके कारण मानवमात्र और अधिक एक दूसरेके हो सकता न पुरानेका सर्वथा नाश हो सकता है संयोग, निकट आ गये हैं और आते जाते हैं। हर एकका कल्याण वियोग, संघठन विघठम और परिवर्तन इत्यादि द्वारा ही हर एक दूसरे और सबके कल्याणमें ही सन्निहित है। हम कुछ नया उत्पन्न हुआ देखते या पाते हैं और पुरानेका अब तो मानवमात्रके कल्याण द्वाराही अपना कल्याण विनाश हुआ सा दीखता है । पर वास्तव में उसका होना समझकर सबको विरोधों और अज्ञान तथा कुज्ञानको विनाश नहीं होता, वह अपनी सत्ताको सदा कायम रखता जहांतक भी संभव हो सके दूर करना ही पहला कर्तव्य है इसीसे वह ध्र व भी कहलाता है। प्रत्येक पदार्थ बाह्य होना चाहिए। परिण मनसे अपने स्वाभाविक गुणको नहीं छोड़ता, किंतु तर्क और बुद्धि की कसौटी पर कसकर जो सिद्धांत वह ज्यों का त्यों बना रहता है । यदि उसके अस्तित्वसे ठीक, सही और सत्य जंचे उसेही स्वीकार करना और इन्कार भी किया जाय तो फिर पदार्थोकी इयत्ता बाकीको भ्रमपूर्ण या मिथ्या घोषित करके छोड़नाही बुद्धि- (मर्यादा) कायम नहीं रहती। चेतम, अचेतन पदार्थ अपने कहा जा सकता है-अन्यथा केवल रूढ़ियोंको पकड़े अपने अस्तित्वसे सदाकाल रहे हैं और रहेंगे। For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२] अनेकान्त [किरण ३ अचेतन जड़ पदार्थोंसे कुर्सी, मेज, तख्त, किवाड़, सत्ता' का नहीं रहना ही है और चेतना रहने यां पाए छड़ी, खड़ाऊँ, डेक्स, सन्दूक-आदि विविध वस्तुएं बनाये जाने का अर्थ उस 'सत्ता' का रहना ही है इसी 'सत्ता जाने पर भी उनकी जड़ता और पुद्गलपने (Matter) को-जिसका गुण चेतना है या जिसके विद्यमान रहनेसे का प्रभाव नहीं होता, प्रत्यत बह सदाकाल ज्योंका त्यों किसी शरीरमें चेतना रहती है भारतीय दार्शनिकोंने बना रहता है। इससे ही उसके सदाकाल अस्तित्वका I n 'आत्मा' या 'जीव' कहा है श्रास्माका ही अपना गुण पता चलता है । चेतना जड़ वस्तुओं का गुण नहीं चेतना है । जहाँ श्रात्मा होगा वहाँ चेतना होगी नहाँ है किन्त वह तो जीवका असाधारण धर्म जो उसे भात्मा नहीं रहेगा वहाँ चेतना नहीं होगी। पर यह चेतना नपा नावारीमानका भी किसी शरीर या किसी रूपी वस्तुमें (जिसे हम शरीर अस्तित्व जुदा जुदा है। अतः अचेतनके अस्तित्व कहते हैं) ही पाई जाती है कि बिना शरीरके कहीं भी (existance) के समान उसका भी 'अस्तित्व' चेतना यों ही अपने श्राप परिलक्षित नहीं होती। इसका है और सर्वदासे था तथा सर्वदा रहेगा। अचेतन वस्तुओं अर्थ यह होता है कि संसार में बिना किसी प्रकारके शरीरके और चेतन देहधारियों (वस्तुओं) में इतना बड़ा विभेद आधारके आत्मा या चेतनाका होना या पाया जाना सिद्ध प्रत्यक्ष रूप से हम पाते हैं कि यह मानना ही पड़ता है कि नहीं होता। चेतना और वस्तु शरीरका संयुक्तरूपही हम 'चेतना' कोई ऐसा गुण है जो जड़-वस्तुओंका अपना जीवधारी के रूपमें पाते हैं। परन्तु चूंकि चेतना निकल गुण नहीं हो सकता-क्योंकि यदि जड़ वस्तुओंमें चेतना- जाने पर भी शरीर ज्योंका त्या बना रहता है. उसका का गुण स्वयं रहता तो हर एक सूक्ष्म या स्थूल जड़ विघटन नहीं होता है इससे हम मानते हैं कि चेतनाका वस्तुमें चेतना और अनुभूति,ज्ञान थोड़ा या अधिक अवश्य आधार कोई अलग 'सत्ता' है जो वस्तुके साथ रहते हुए रहता या पाया जाता . पर ऐसी बात नहीं है। इससे भी उससे अलग होती है या हो सकती है। इस तरह हमको मानना पड़ता है कि चेतनाका, प्राधार या कारण जड़ वस्तुकी और भात्माकी अलग अलम अवस्थिति जो कुछ भी हो उसका एक अपना अस्तित्व है और चेतना (existence) और 'सत्ताएँ' मानी गई। उसका स्वाभाविक गुण है जो केवल मात्र जड़में सर्वश हर एक वस्तुके गुण उस वस्तुके साथ सर्वदा उसमें अदृश्य या अनुपस्थित (Absent) है। किसी भी रहते हैं-गुण वस्तुको कभी भी छोड़ते नहीं । दो वस्तुयें जीवधारीको लीजिये-उसका जन्म होता है और मृत्यु मिलकर कोई तीसरी वस्तु जब्र बनती है तब उस तीसरी होती है। मृत्युके समय हम यह पाते हैं कि जीवधारीका वस्तुके गुणभी उन दोनों वस्तुओंके गुणोंके संयोग और शरोर या बाह्य रूप तो ज्यों का त्यों रहता है पर चेतना सम्मिश्रणके फलस्वरूपही होते हैं-बाहरसे उसमें नये लुप्त हो गई होती है । शरीरके चेतना रहित हो जानेको गुण नहीं आते । इतनाही नहीं पुनः जब वह तीसरी ही लोकभाषामें मृत्यु कहते हैं। जब तक किसी शरीरमें वस्तु विघटित होकर दोनों मूल वस्तुओं या धातुषोंमें चेतना रहती है उसे जीवित या जीवनमुक्त कहते हैं। परिणत हो जाती है तो उन मूल वस्तुओंके गुणभी शरीर तो वस्तुओं या विभिन्न धातुओंसे बना रहता है अलग अलग उन वस्तुओंमें ज्योंके त्यो संयोगसे पहले और यदि चेतना शरीरको बनाने वाले धातुओंका गुण जैसे थे वैसेही पाए जाते हैं-न उनमें जरासी भी कमी रहता तो शरीरसे चेतना कभी भी लुप्त नहीं होती-पर होती है न किसी प्रकारकी वृद्धि ही । यही वस्तुका स्वभाव चूकि हम यह बात प्रत्यक्ष रूपसे देखते या पाते हैं इससे या धर्म है और सृष्टिका स्वतःस्वाभाविक नियम । इसमें हमें मानना पड़ता है कि चेतना शरीरका निर्माण करने विपरीतता न कभी पाई गई न कभी पाई जायगी। की वस्तुओं या धातुओं का अपना गुण नहीं हो सकता। दो एक रसायनिक पदार्थोंका उदारहण इस शाश्वत तब चेतनाका माधार या श्रोत क्या है या वह कौनसी 'सत्य' को अधिक खुलासा करनेमें सहायक होगा। तूतिया 'सत्ता' है जो जब तक शरीरमें विद्यमान रहती है तब तक (नीला थोथा Copper Sulphate या Cuson) उसमें चेतना रहती है और वह सत्ता हट जाने पर में तांग, गंधक और प्राक्सिजन निश्चित परिणामोंमें चेतना नहीं रहती-अथवा चेतना नहीं रहनेका अर्थ उस मिल्ने रहते हैं। तूतियाके गुण इन मिश्रणवाली मूल For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] आत्मा, चेतना या जीवन [८३ धातुओं या रसायनोंके गुणोंके मिश्रित फलस्वरूप अपने भी उनके अपने गुणही उनमें अलग अलग रहेंगे। अथवा विशेष होते हैं:-पर पुनः जब किसी प्रक्रिया या प्रक्रियाओं ६-७ धातुभोंके किसी सम्मिश्रित वस्तुसे दो दो तीन तीन द्वारा इन विभिन्न मूल धातुओंको अलग अलग कर दिया धातुनोंकी सम्मिश्रित वस्तुएं अलग अलग निकलें तब भी जाता है तो उनके अपने गुण हर धातुके अलग अलग उन अलग अलग हुए छोटे सम्मिश्रणोंमेंभी वे ही गुण उन धातुओंमें पूर्णतः पाए जाते हैं या स्वभावतः ही रहते पाये जायंगे जो उनके बनाने वाली धातुओंको यदि अलगहैं। अब दूसरा उदाहरण लीजिए-गंधकका तेजाब से उन्हीं अनुपातोंमें अलग मिलाकर वैसाही कोई सम्मि(Sulphuric acid, HD So 4) इसमें हाइड्रोजन, श्रण कभी बनाया जाता। इत्यादि । सारांश यह कि गंधक और आक्सिजनका संमिश्रण (Compounding) किसी भी वस्तुका गुण, शुद्ध दशामें सर्वदा वही रहता है। रहता है, इसके भी अपने विशेष गुण होते हैं पर इसको जो उसका गुण है; मिश्रणकी दशामेंभी मिश्रित वस्तुका बनाने वाली मूल धातुएँ या रसायनें अलग अलग कर दी गुण सर्वदा वही रहता है जो उस मिश्रणका होता है; जानेपर पुनः अपने मूल गुणोंके साथही पाई जाती हैं जब भी मिश्रणसे वह वस्तु पुनः मूलरूपमें निकलती है तो न जरा कम न जरा अधिक, सब कुछ ज्योंका त्यों। गंधक वह अपने मूलगुणोंके साथही होती है और एक मिश्रण और आक्सिजन दोनों ही । उपरोक्त) दोनों सम्मिश्रणों निकलकर दूसरा मिश्रण बनाने पर अथवा विभिन्न (Compounds ) में शामिल थे। दोनों सम्मिश्रणोंके मिश्रणोंके संघटन या विघटनोंकी संख्या चाहे कितनी भी गुण अलग अलग विभिन्न थे। पर जब गंधक और क्यों न हो मूल वस्तुओं या धातुओंके मूलगुण सर्वदा प्राक्सिजन पुनः सम्मिश्रणोंमें से निकल गए या अलग ज्योंके स्यों उनमें सम्मिलित रहते हैं और विभिन्न कर लिए गए तो उनमें गंधक और पाक्सिजनके अपने मिश्रणोंके गुण भी सर्वदा वे ही गण होते हैं जो विशेष अपने गुण ही रहे। एक तीसरा उदाहरण लीजिए:- धातुओं, वस्तुओं या रसायनोंके विशेष परिमाणोंमें मिलाए जल (H20)। इसमें हाइड्रोजन और पाक्सिजनका जाने पर कभी भी हों या होते हैं। ये स्वयं सिद्ध प्रकृति मिलाप होता है। जलके गुण हम बहुत कुछ देखते, पाते या सृष्टि (Nature or Creation) के स्वाभाविक या जानते हैं। जल एक तरल या द्रव ( Liquid) (Fundamental) नियम हैं। ये शास्वत, सत्य पदार्थ है, जबकि इसके बनाने वाले दोनों अंश (Cons- और 'ध्रुव हैं। इनमें विश्वास न करना या कुछ दूसरी tituents) गैस या वायुरूपी पदार्थ हैं । सबके गुण तरहकी बातें सोचना समझना भ्रम, अज्ञान, ग़लती अलग २ निश्चित हैं। शुद्ध अबस्थामें इनके अपने गुणामें या ज्ञानको कमीके कारण ही हो सकता है। आधुनिक जरा भी फर्क कभी भी कहीं भी किसी प्रकार भी नहीं विज्ञानने इन तथ्यों या सत्योंका प्रतिपादन ध्रुव या पड़ सकता। इतनाही नहीं सम्मिश्रण होने के पहले, निश्चित और सर्वथा संशय रहित रूपसे कर दिया सम्मिश्रणकालमें एवं सम्मिश्रण विघटित होने पर हर है-इसमें कोई शंका या पाशंका या अविश्वासकी जगह मूलधातुके गुण सर्वदा ज्योंके त्यों उन धातुओंके कणोंमें ही नहीं रह गई है । वस्तुका अपना गुण या अपने गुण रहते हैं उनसे अलग नहीं होते न कमवेश होते हैं। हां, हजारों लाखों वर्षों में भी नहीं बदलते सर्वदा-शास्वत रूपसम्मिश्रणकी अवस्थामें उन्हीं गुणोंके पापसमें संयुक्त रूप से वस्तु और गुण एकमेक रहते हैं । खनिज पदार्थोंको से संघबद्ध हो जाने के कारण सम्मिश्रित वस्तुके गुण का ही लीजिए लोहे वाले पत्थर ( Iron pyrites ) और निर्माण अपने माप गुणोंके सम्मिश्रण या संघबद्धताके आलुमीनियम वाले पत्थर (बौक्साइट Bauxite)न फलस्वरूप ( As a resultant) हो जाता है। पर जाने सृष्टिके प्रारम्भमें जब पृथ्वी जमकर ठोस पदार्थके पुनः संघबद्धता टूटने या विघटन होने अथवा मिश्रित रूपमें पृथ्वी हुई तबसे कब बने थे पर अब भी उनके गुण धातुओंके अलग अलग हो जानेपर वे मूलगुण भी पुनः ज्यों के त्यों हैं। सभी धातुओं और पदार्थों के साथ यही ज्योंके त्योंही अलग अलग हो जाते हैं या पाए जाते हैं। बात है । गन्धक या प्राक्सिजन या हाइड्रोजन या तांबासम्मिश्रित या संघबद्ध वस्तुके प्रांशिक विघटन स्वरूप के सम्मिश्रणके दो उदाहरण ऊपर दिये गये हैं । गन्धक कोई एक या दो मूलधातुएँ ही अलग अलग निकलें तब इत्यादिके जो गुण आजसे हजारों वर्ष पहले थे वे ही For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४] अनेकान्त [किरण अब भी हैं और वे ही आगे भी सर्वदा रहेंगे । गुण भी एक पशु शरीरसे नहीं हो सकते। एक पशु-शरीरके कार्य बस्तुके परिवर्तनके साथ ही बदल सकते हैं अन्यथा नहीं। एक पक्षी-शरीरसे नहीं हो सकते । एक पक्षीके कार्य कृमिवस्तुकी शुद्ध अवस्थाके गुण वस्तुकी शुद्ध अवस्थामें कीट शरीर धारियोंसे नहीं हो सकते इत्यादि । जीवात्मा सर्वदा एक समान ही पाए जायेंगे कभी भी कमवेश नहीं। शरीरके साथ एक मेक रहकर शरीरको चेतना मात्र प्रदान जब वस्तुओंका सम्मिश्रण होता है तब उनके गुणोंका करता है पर उसकी शरीरकी कार्य क्षमताको बदल नहीं समन्वय होकर नए गुण परिलक्षित होते हैं पर मूल वस्तु- सकता । के मूलगुण सर्वदा मूलवस्तुमें पूर्ण रूपसे सन्निहित "जीव" (आत्मा) की चेतना भी शरीरकी बनावट रहते हैं-न अलग हो सकते हैं न कमवेश । एवं सूक्ष्मता स्थूलताके अनुसार कमवेश रहती है। सूक्ष्म आत्माका गुण चेतना और जड़ वस्तुओंका गुण जड़त्व एकेन्द्रिय जीवोंमें ज्ञानचेतना इतनी कम रहती है कि हम (अचेतना) भी अनादिकालसे उनके साथ हैं और रहेंगे। उन्हें जड़तुल्य ही मान लेते हैं। जैसे जैसे शारीरिक दोनोंमें संयोग होनेके कारण उनके गुणोंका समन्वय होकर क्रमोन्नति रूपमें (Evolution by stages) होता जीवधारियोंके गुण विभिन्न रूपोंमें हम पाते हैं पर हर जाता है आत्माकी चेतनाका बाह्य विकास भी उसी अनुसमय आत्माके गुण आत्मामें ही रहते हैं और शरीरको रूप बढ़ता जाता है। एकेन्द्रियमें भी कितनी ही किस्में हैं. बनाने वाली जड़ वस्तुओं और रसायनोंके गुण जड़ वस्तुओं जिनमें एक शरीरसे दूसरे शरीर में ज्ञान चेतनाकी उत्तरोत्तर और रसायनोंके कारणों और संघोंमें ही रहते हैं। संयोगके वृद्धि पाई जाती है। एकेन्द्रियसे द्वीइन्द्रिय इत्यादि करके कारण न तो आत्माका चेतनगुण जड़ वस्तुओंमें चला उत्तरोत्तर पंचेन्द्रियोंमें सबसे अधिक आत्मचेतना बाह्य जाता है न जड़ वस्तुका गुण (जड़त्व) आत्मामें और रूपमें परिलक्षित होती है। उनमें भी मन वाले जीवों में और जब भी दोनों अलग अलग होते हैं अपना अपना पूराका सर्वोपरि मानवोंमें चेतना अधिकसे अधिक उन्नत अवस्थामें पूरा गुण लिए हुए ही अलग होते हैं। मिलती है इसे अंग्रेजी में विकाशवाद ( Evolution) विभिन्न जीवधारियोंके कार्य कलाप उनके शरीरकी कहते हैं जिसकी हम अपने जैनशास्त्रों में वर्णित 'उध्द बनावटके अनुसार ही होते हैं और हो सकते हैं । एक गति' से तुलना लगा सकते हैं। (अगले अंकमें समाप्त.।) गाय गायके ही काम कर सकती है, एक चींटी चींटीके इस विषयकी थोड़ी अधिक जानकारीके लिए मेरा ही काम कर सकती है-एक सिंह सिंहके ही काम कर लेख "शरीरका रूप और कर्म" देखें जो ट्रैक्टरूपमें सकता है-अन्यथा होना कठिन और असंभव एवं अस्वा- अमूल्य अखिल विश्व जैनमिशन, पो. अलीगंज, जि. भाविक है। एक मानव-शरीरसे जो कार्य हो सकते हैं वे एटा, उत्तर प्रदेशसे मिल सकता है। सूचना अनेकान्त जैन समाजका साहित्य और ऐतिहासिक पत्र है उसका एक एक अंक संग्रहकी वस्तु है। उसके खोजपूर्ण लेख पढ़नेकी वस्तु हैं। अनेकान्त वर्ष ४ से ११वें वर्ष तककी कुछ फाइलें अवशिष्ट हैं, जो प्रचारकी दृष्टिसे लागत मूल्यमें दी जायेंगी। पोस्टेज रजिस्ट्री खर्च अलग देना होगा। देर करनेसे फिर फाइलें प्रयत्न करने पर भी प्राप्त न होंगी। अतः तुरन्त प्राडर दीजिये। मैनेजर-'अनेकान्त' १ दरियागंज, देहली जैनसमाजका ५० वर्षका इतिहास बाबू दीपचन्द्रजी जैन संपादक वर्धमान ११०१ से १६५० तकका तैयार कर रहे है। जिन भाइयोंके पास इस सम्बन्धमें जो सामग्री हो वह कृपया उनके पास निम्न पते पर तुरन्त भेजनेकी कृपा करें। बाबू दीपचन्द जैन, सम्पादक वर्धमान, तेलीवाड़ा, देहली. For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन साहित्य और कलाका प्राथमिक परिचय (एन० सी० वाकली वाल) साहित्य और कलामें जैन समाजकी हजारों वर्ष अधिकाधिक मिलती चली गई और अाज अनेक स्थानों प्राचीनकालकी संस्कृति भरी पड़ी है। जैनधर्मका पर देखा जा सकता है कि दक्षिणके कई स्थानों में जैन प्रचार बोकी भांति विदेशों में नहीं हुआ था किन्तु संस्कृतिका ही. एक प्रकाशसे लोप हो गया है। उधरके वह भारतवर्ष में ही सीमित रहा। इस देशमें धार्मिकता, अनेक मन्दिरोंकी अवस्था अतिशय शोचनीय हो गई है। विद्वेष और विदेशी आक्रमणोंके कारणों के कारण जैन- उन मंदिरोंमें जो ग्रंथ रहे होंगे या हैं उनकी अवस्थाका साहित्य और जैनकलाका रोमांचकारी हनन हुश्रा वह तो ___ अनुमान, सहज ही किया जा सकता है। उत्तर व मध्य एक अोर, किन्तु स्वयं जैन धर्मावलम्बियोंकी असावधानी भारतमें कागज पर लिखनेकी प्रथा प्रचलित होनेके वाद और स्वामित्वलालसासे भी विशेष कर साहित्यका विनाश भी दक्षिण भारतमें ताड़पत्र और भोजपत्रका उपयोग और प्रतिबंध हुआ। फलतः अनेक महत्वपूर्ण प्राचीन बहुत समय तक होता रहा था और उन ताड़पत्रों पर रचनाओंका अभी तक पता नहीं लग पाया है और अनेक लगातार तेल ब्रश न करनेके कारण उनकी आयु कृतियों परसे जैनत्वकी छाप मिट चुकी है। असमय में क्षीण हो जाना अनिवार्य है; चूहों, कीड़ों और फिर भी जैन साहित्य इतना विशाल और समद्ध है सर्दी पानीसे भी वहांके ग्रंथोंका विनाश काफी मात्रामें कि ज्यों ज्यों उसको बंधनमुक्त किया जा रहा है या प्राप्त होगया होगा, जबकि वे असावधानी और अवहेलनासे करनेका प्रयत्न किय जाता रहा है त्यों त्यों अनेक महत्व ग्रसित हुये होंगे । फिर भी भट्टारकोंके अधिकारमें व कुछ पूर्ण रचनायें उपलब्ध होती रही हैं परन्तु यह कार्य अभी मंदिरों और व्यक्तियोंके संग्रहालयों में एक बड़ी राशिमें अब तक बहत मंदगतिसे ही चल रहा है। उत्तर भारत और भी प्रथ मौजूद हैं परंतु उनको प्राप्त करमेमें या वहीं पर मध्य भारतमें. जहाँ कि विद्वानोंने विरोधके बावजूद ग्रन्थ उनकी सुरक्षाका समुचित प्रबंध करने में शीघ्रता नहीं की प्रकाशनमें प्रगति जारी रखी और जैनग्रन्थोंको बधनमुक्त जायगा ता भय ह जायगी तो भय है कि जैनसमाज इस अमूल्य निधिसे कराने, संग्रहालय स्थापित कराने एवम् जिनवाणीके सदाके लिये हाथ धो बैठेगी। उद्धारके प्रति समाजमें चेतना लानेका कार्य अनवरत किया, जिस किसी वस्तु पर जैनधर्म और जैनपुरातत्व.वहां भी अब तक सभी भण्डारोंकी सूचियाँ एकत्र नहीं सम्बन्धी कोई लेख उपलब्ध हो वही साहित्य है। अतएव हो सकी। कहां कहां किन किनके अधिकारमें कुल मिला- ग्रन्थोंके साथ साथ शिलालेख, ताम्रपत्र, पट्टावलियां, कर कितने हस्तलिखित ग्रन्थ हैं इसका मोटा ज्ञान भी गुर्वावलियां, मूर्तिके नीचेका उत्कीर्ण भाग, चरणपादुकाअभी तक प्राप्त नहीं हुा । और दक्षिण प्रान्तका हाल तो के लेख, ऐतिहासिक पत्र आदि सभी सामग्री साहित्यके और भी अधिक चिन्तनीय है। दक्षिण की कनड़ी, तेलगू इस व्यापक अर्थमें समावेशित है। समय निर्णय, तत्त्व आदि लिपियोंमें बड़ी संख्यामें दिगम्बर जैन साहित्य है विचार आदिकी दृष्टिसे यह सभी सामग्री अत्यन्त महत्व और वह उत्तर व मध्य भारतकी अपेक्षा प्राचीन भी है रखती है और भारतीय इतिहासका प्रत्येक अध्याय इस .परन्तु उसमेंसे थोड़े ही साहित्यकी प्रतिलिप देवनागरी में पुरातत्व को प्रकाशमें न लानेसे अपूर्ण रहता है। हो पाई है। दक्षिण भारतकी भाषा और लिपि शेष अतएव साहित्यका मूल्यांकन उस पर लगी हुई भारतकी भाषा और लिपिसे अत्यन्त क्लिष्ट और असम्बद्ध लागत परसे नहीं किया जा सकता हैं। यदि लेखकोंका होने के कारण इधरकी प्रगतिका प्रभाव उधर बहुत ही कागज कलम स्याहीका मूलप्रतिका और स्थानका साधन कम मात्रामें पढ़ा, उधरके जैनबंधुओंसे इधरके जैन- जुटाकर आज एक ग्रंथकी प्रतिलिपि १०.) के खर्चसे हो नोंका सम्पर्क भी कम पड़ता गया, उनके सामाजिक सकती हैं सो उसमें सालभरका समय, उसको मूल प्रतिके वीति रिवाज और पूजा विधानकी क्रियाये उधरके साथ मिलाकर शुद्ध करने में विद्वानके कार्य और देखरेखर अन्य धर्मावलम्बियोंके रीति-रिवाज और क्रियाकाण्डसे का मूल्य मिलाकर उसका जो मूल्यांकन हो सकता है उससे Jain Education Intomational For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ अनेकान्त [किरण ३ सौ गुणा मूल्य भी उसकी प्राचीनतर प्रतिके लिये ऐति- उन सभी व्यक्तियोंने स्वीकारकी है जिनने छपे ग्रंथको हासिक दृष्टि से यथेष्ट नहीं है। यह अगाध सम्पत्ति जो स्वाध्याय करते करते कारणवश उसी प्रथकी प्राचीन पूर्वाचार्यों मुनियों, भट्टारकों, विद्वानों और अन्य पूर्वजोंने प्रतिसे स्वाध्याय करना शुरू किया है। हस्तलिखित ग्रंथ संसारके प्राणियोंके कल्याणकी भावनासे अपने ध्यान परसे स्वाध्याय करने में प्राचीनताकी छाप बनी रहती है स्वाध्याय और आत्म चितवनको गौण करके समाजके और इसका सबसे बड़ा लाभ यह है कि ग्रंथोंकी देख रेख हाथोंमें सौंपी है उसकी रक्षाका उपाय न करना वास्तवमें बराबर रहनेसे चुहे, दीमक, कीड़ और सर्दी आदि उपद्रवोंसे अपने पूर्वजोंकी, धर्मकी और भगवान केवलीकी अवहेलना ग्रंथ बचे रहते हैं। अतएव जिनवाणीको हमेशा उपयोगकी करना है क्योंकि श्र तज्ञानको तीर्थकर भगवानके समान वस्तु समझकर हस्तलिखित ग्रंथों परसे पठन पाठन करनेकी ही पूजनीय माना गया है । साहित्यकी किसी भी प्रथाको प्रोत्साहन देना आवश्यक है। एक तो प्रतिलिपि अजोड़ वस्तुका विनाश होने के कारण धर्मसे लेकर देश करानेमें खर्च बहुत आता है, दूसरे लेखकोंका और मूल शुद्ध तकका और कभी कभी संसार तकका अहित हो सकता प्रतिका मिलना कठिन होनेसे हस्तलिलित ग्रंथोंकी कहींसे है। यदि कुन्दकुन्द स्वामीको कुछ अनुपलब्ध कृतियोंकी मांग आती है तो वह सहजही ठीक रीतिसे और ठोक भाँति समयसारादि कृतियां भी विनष्ट होगई होती तो समय पर पूरी नहीं हो पाती है इस कारण दिन दिन अनेक सैद्धान्तिक शंकायें जो विद्वानोंके मनमें उठा करती छापेके ग्रंथोंपरसे पठन पाठनका रिवाज बढ़ता जा रहा है। हैं वे या तो उठती ही नहीं, या उनका समाधान प्रमाण परन्तु अनेक कारणोंसे ऐसा होना ठीक नहीं है । यदि पूर्वक तुरन्त हो जाता। इसी प्रकार होता रहा तो हस्तलिखित ग्रंथोंकी लिपिका ग्रन्थ रचना किन्हीं खास व्यक्ति, समुदाय या फिरके पढ़ना भी कुछ वर्षों बाद कठिन हो जायेगा । आज भी के लिये नहीं किन्तु प्राणीमात्रके हितके लिये की गई है, बहुतसे पंडित प्राचीन प्रतियोंकी लिपि पढ़नेमें असमर्थ ज्ञानोपार्जन द्वारा अात्मस्वरूपको पहचानने और प्रात्म रहते हैं कारण उनको अभ्यास नहीं है। अतएव जहां कल्याणके विमित्त तत्पर होने से ही शास्त्रोंकी सच्ची भक्ति तक संभव हो, मंदिरोंमें, शास्त्रसभाओंमें, उदासीनाश्रमोंमें होती है और वह ज्ञानोपार्जन शास्त्रोंकी आलमारीके और मुनिसंघोंमें शास्त्र स्वाध्याय हस्तलिखित प्रति परसे सामने अयं चढ़ाने और स्तुति पढ़नेसे नहीं, उनके पटन होना चाहिये। पाठनसे होती है। अतएव उनके पठन पाठनकी सुविधाका इस सुरक्षात्मक दृष्टिसे ग्रंथोंकी किसी एक स्थान पर अधिकसे अधिक प्रसार करना ही जिनवाणीके प्रति अनेकानेक प्रतियोंका जमाव करने की अपेक्षा जहां जहां सच्ची श्रद्धा और भक्ति है। इसके प्रतिकूल उनके पठन जिन ग्रंथोंकी आवश्यकता हो वहां वहां आवश्यकतानुसार पाठन पर रोक लगाने और उनको तालोंमें बंद कर उन पर प्रतियोंका विकेन्द्रीकरण होना चाहिये । स्वामित्व स्थापित करनेके परिणाम स्वरूपमें जो अवस्था यह तभी हो सकता है जबकि छोटे बड़े सभी स्थानोंके उत्पन्न हुई, वह वर्णातीत है। मंदिरों, भंडारों व व्यक्तियोंके श्राधीन हस्तलिखित ग्रंथोंकी रोकथाम और तालाबन्दीके कारण पठन पाठनकी सूची प्राप्तकी जाय और उन पृथक् पृथक् सूचियों परसे प्रणालीमें हास हुआ उसके साथही अब मुद्रणकलाके एक सम्मिलित सूची ग्रन्थ कमसे कम तैयार हो जिससे पता युगमें बहुतसे ग्रन्थ छप जानेके कारण हस्तलिखित ग्रन्थों लगे कि किस प्रन्थकी कुल मिलाकर कितनी प्रतियाँ हैं, परसे पठन पाठनकी प्रथा उठती जा रही है। परन्तु यह वे कहां कहां हैं किस अवस्थामें हैं, वे जहां हैं वहां उनका न भूलना चाहिये कि हस्तलिखित ग्रंथ परसे स्वाध्याय पठन पाठनके लिये उपयोग होता है या नहीं, यदि नहीं करने में प्राचीन समयके कागजकी बनावट, स्याहीकी तो अन्य स्थान पर उनकी आवश्यकता है या नहीं। यदि चमक, अक्षरकी सुंदरता व सुघड़ता तत्कालीन लेखन- अन्य स्थान पर उनकी आवश्यकता हो तो या तो अन्यकला और परिपाटीके प्रत्यक्ष दर्शनसे हृदयमें जो श्रद्धा, स्थानके अनावश्यक ग्रंथोंके द्वारा या उसका उचित मूल्य भक्ति और भावशुद्धिका उदय और संचार होता है वह निर्धारण द्वारा या वापसीके करारपर थको एक स्थानसे मुद्रित ग्रंथपरसे नहीं हो सकता है। इस कथनकी सत्यता दूसरे स्थान भिजवानेकी व्यवस्था होनी चाहिये । प्राचीनतर For Personal Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन साहित्य और कलाका प्राथमिक परिचय ( = विवेक बुद्ध (१) वीरता (१०) शिष्ट सभ्य रहन सहन (११) धर्म प्रभावना ( १२ ज्ञान प्रचार (१३) उच्च सहवास्त्र (१४) राजनीतिज्ञता ( १२ ) वाणिज्य चतुरता (१६अधिकार रक्षण (१७) परम्परा पालन, आदि लोकोत्तर गुण साहित्य र कलाकी ही देन हैं। बड़े श्राश्चर्य की बात है कि जैन समाजको अभीतक सब स्थानोंके विषय में इस कलाके प्रतीक मंदिर मूर्ति आदिका सम्पूर्ण परिचय नहीं है। इस परिचयके अभाव में ही आये दिन पवित्र मंदिर, मूर्ति आदिके विषय में अनेक दुर्घटनायें सुनने में खाती हैं, जब वे किसी अन्य धर्मावलम्बी या सरकारके अधिकारमें चली जाती हैं तब दौड़धूप, मुकदमाबाजी, प्रार्थनायें आदिमें बहुत कुछ समय, शक्ति और द्रव्य लग कर भी पूरी सफलता मुश्किल से मिलती है परिचय के श्रभाव में ऐतिहासिक प्रमाण उपस्थित करने में भी कठिनता घावी है। इसलिये साहित्य और कलाकी सभी वस्तुओंका सभी स्थानोंसे पूरा पूरा परिचय प्राप्त करना तत्सम्बन्धी वर्तमान अवस्थाका ज्ञान प्राप्त करनेके लिये प्रथमावश्यक मंण्डल हम्यं शिखर कलश इन्द्र व यच मूर्ति ध्वजा देवमूर्ति और अनिवार्य है। इसमें किसी दूसरे प्रभावकी अपेक्षा यक्ष । | तीर्थ मंदिर गुफा स्तंभ स्तूप वेदी सिहासन द्वार तोरथ 1 | किरण] प्रतिका ज्ञान भी सम्पूर्ण स्थानोंकी सूची प्राप्त होने पर ही हो सकता है । एक स्थानकी आवश्यकता अनावश्यकताका ज्ञान भी सम्पूर्ण स्थानोंकी सूचीके बिना प्राप्त नहीं किया जा सकता है तथा जीर्ण ग्रंथोंका उद्धार भी तब तक असंभव बना रहता है अपूर्ण प्रम्धों की पूर्तिभी सम्पूर्ण स्थानोंकी सूची प्राप्त होने पर अनायास और सहज ही हो सकती है। अतएव सभी दृष्टियोंसे सूचीका कार्य पूरा करना सबसे अधिक महत्वपूर्ण है तथा प्राथमिक श्रावश्यकताका विषय है। इसी प्रकार कलाभी अत्यन्त चिन्तनीय स्थितिमें है। कलाके कई भेद हैं, यथा कला खनन, वास्तु, शिल्प, लेखन, चित्र, सूची, नृत्य, अनुष्ठान ध्यान आदि । इसके प्रतीक : । । I तपोमूर्ति चरण यंत्र शिलालेख ताम्रपत्र यह रथ पालकी T T कृत्रिम पशु पालन चंदोवा वेष्टन उपकरण, आदि । समाजकी उदासीनता ही देरीके लिये जिम्मेदार है । यदि समाज लगनसे काम ले, व्यवस्थित रीति से कार्य सम्पा दन करना आरम्भ करे तो बरसोंका काम दिनों में पूरा हो सकता है अन्यथा मोटी मोटी रकमें खर्च करके भी दिनोंका काम बरसों में पूरा नहीं हो सकेगा जैसा कि आज तक का इतिहास बतलाता है । नक्काशी, पञ्चीकारी. सुघड़ता, निर्माण, हड़ता सुन्दरता, भव्यता आदि अनेक दृष्टियोंसे जैन समाजकी ये वस्तुयें अपना सानी नहीं रखतीं और प्राचीन सभ्यता के स्मारक स्वरूप इन वस्तुओंकी गणना संसारकी अलभ्य और अद्वितीय वस्तुओं में है। इनमेंसे अगणित वस्तुयें अब तक भी भूगर्भ में छिपी हुई हैं जिनका उद्धार श्रवश्यमेव करना चाहिये । इन वस्तुओंके निर्माण में जैन समाजकी असंख्य धनराशि लगी है व अबभी लगती या रही है। न जाने कितने बंधुयोंका इसके निर्माण और रक्षा में समय और शक्तिका ही नहीं किन्तु जीवन तकका बलिदान हुआ है। साहित्य और कलाके आधार पर ही समाजकी संस्कृतिका निर्माण होता है। वगैर योजनाके, वगैर क्रमिक उन्नतिशील व्यवस्था के, कोई भी महान कार्य सम्पादित नहीं हो सकता है । कहना नहीं होगा कि हमारी समाजका साहित्य और कलाका क्षेत्र लगभग अखण्ड भारतके क्षेत्र जितना ही वितीय है । प्रत्येक स्थानसे इन विषयोंका वास्तविक परिचय प्राप्त करनेका कार्य कहने में जितना सरल है करने में उतना सरल नहीं है। परन्तु कार्यकी महानतासे भय खाकर उदासीन और निश्चेष्ट होना कोई बुद्धिमानी नहीं। आज जो रेगिस्तानोंको सरसा किया जा रहा है. दुर्गम पहाड़ और बीहड़ जंगलोंको आवागमन और खेती यांग्य बनाया जा रहा है, वह क्या कोई साधारण काम है ? (1) नित्यमित्तिक धार्मिक कर्म (२) धार्मिक परन्तु निरन्तर के प्रयास टढ़वा, स्वावलंबन सहयोग आदिअनुष्ठान (३) श्रात्माचिंतन ( ४ ) तत्व विचार ( 2 ) श्रहिंसा के सहारे इन महान कार्यों में सफलता मिलती आ रही है। धान जीवन (५) सत्यता (७) नैतिकता (८) सदसद् भारत भरका बालिग मताधिकार निर्वाचन क्षेत्रोंके द्वारा For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] अनेकान्त [किरण ३ प्रदान किया जा चुका है यह देखते हुए यह कार्य कोई शिलालेखादि पुरातत्व सामग्रीका संक्षिप्त परिचय । कठिन नहीं है यदि सुव्यवस्थित रीतिसे किया जाय। मंदिरकी वार्षिक स्थायी प्राय और खर्चके अंक । मन्दिर वह रीति यह है कि प्रथम प्रारम्भिक परिचय प्राप्त सम्बन्धी स्थायी जायदादका संक्षिप्त परिचय | मन्दिरकी कर लिया जाय । प्रारम्भिक परिचय प्राप्त करनेके बाद अस्थायी सम्पत्तिका अनुमानिक मूल्यांकन । पूतन प्रक्षाल विस्तृत परिचयके लिये सभी सुविधाओंका मार्ग उन्मुक्त नियमित रूपसे करने वालोंकी संख्या । मन्दिर सम्बन्धी और प्रशस्त हो जायगा। पंचायतीकी घर संख्या व जन संख्या । पंचायती मुखिया इस प्रारम्भिक परिचय प्राप्तिका कार्य एक निदिष्ट या कार्यकर्ताका नाम व पता । जीर्णोद्धार आदिकी श्रावफॉर्म पर होना चाहिये कि जिससे अपने आप इन दोनों श्यकता क्या है और उसमें कितना व्यय होनेका अनुमान विषयकी डिरेक्टरी तैयार हो जाय, आगामी पत्रव्यवहारके है। श्रादि । पुरातत्व सम्बन्धी संस्थाओं तीर्थक्षेत्र कमेटियों लिये सब स्थानोंके नाम पते प्राप्त हो जाय,वीरसेवा मंदिर और सरस्वती भवनोंके अतिरिक्त अन्य सदाशयी महानुकी ओरसे प्रचारक भेजकर शास्त्रभंडारोंके निरीक्षणका भावोंको भी उपरोक्त दोनों फार्मोंका ढाँचा विचार पूर्वक कार्य प्रारम्भ हुआ है उसके लिये प्रत्येक स्थानका प्रोग्राम निश्चित कर लेना चाहिये और फार्म छपवाकर उसकी पहलेसे ही इस प्रकारका निश्चित कर लिया जाय कि खानापूर्ति के लिए यह कार्य व्यवस्थित रूपमें तत्काल चालू उस दिशामें और उस लाइनमें कोई महत्वका स्थान छूटने होकर शीघ्रतया सम्पादित हो जाना चाहिए। . . . से न पावे और जिन स्थानोंकी शास्त्र सूची किसी सरस्वती हालकी मदुमशुमारीके विस्तृत आंकड़े प्रकाशित भवनमें या किसी अन्य स्थान पर पहलेसे आई हुई हो होने पर इस अनुमानकी पुष्टि ही होगी कि छोटे गाँवकी तो उसे प्रचारक साथमें लेते जावें कि जिसको मिलान करके जनता बड़े गाँव और नगरोंकी ओर आकृष्ट होती आ रही पूरी करनेका कार्य सहज और शीघ्र हो जाय । है जिसके कारण छोटे गांवोंकी आबादीमें इतनी तेजीसे - ये फॉर्म प्रत्येक शास्त्र भंडार और प्रत्येक धर्मस्थानके कमी हो रही है कि वहाँ के मन्दिरों व अन्य सार्वजनिक लिये अलग अलग हों, छोटे आकारके पुष्ठ कागज पर कागज पर स्थानोंके साथ वहांके शास्त्रभंडारोंकी दशा भी चिन्तनीय छपाये जावें और Loose leaf फाइलिंगके लिये पहले हो उठी है। धर्मादेके द्रव्य और धर्मादा जायदादके विषयमें से ही छेद (Punch) करा दिये जावें.। इनमें पूछताछके राजनीतिक हलचलसे समाज परिचित है। पंचवर्षीय विषय इस प्रकारके रखे जायें: योजनामें आर्थिक समस्या सुलझानेके लिए धर्मादेकी साहित्य सम्बन्धी फार्म-भंडार किसके अधिकार सम्पत्ति प्राप्त करनेका प्रस्ताव नेताओं द्वारा रखा जा में है। किस स्थान पर है । सुरक्षाको दृष्टिसे वह स्थान चुका है। देखभाल और जीर्णोद्धार आदिकी त्रुटिके कारण ठीक है या नहीं । हस्तलिखित ग्रन्थोंकी कुल संख्या । उनके महत्वपूर्ण स्थानों पर सरकारके पुरातत्व विभागने सांगपत्रादि प्रन्योंकी संख्या । वर्षमें १, २ बार वेष्टन खोल कब्जा कर लिया है । प्रमाणाभावमें अनेक अनिष्ट घटकर ग्रन्थ देखे जाते हैं या नहीं । ग्रन्थोंकी सूची तैयार है नायें अब तक मंदिरों,तीर्थक्षेत्रों आदिके सम्बन्धमें घटित हो या नहीं । अतिशय प्राचीन ग्रन्थोंका नाम व संख्या। चुकी हैं श्रतएव मात्र साहित्य, कला और पुरातत्वकी दृष्टि मरम्मत योग्य ग्रन्थोंका नाम व संख्या । ग्रंथोंके देन लेनका से ही नहीं किन्तु आर्थिक दृष्टि व अन्य बहुसंख्यक कारणों लेखा रखा जाता है या नहीं । भंडारके कार्यकर्ताका नाम से भी वर्तमानमें यह अत्यन्त आवश्यक है कि सब स्थानों व पता वहाँकी जनता किस विषयोंके ग्रन्थोंका पठन पाठन से प्रस्तावित फार्म भरकर पाजावें और उनसे बिना किसी करती है और किस विषयके ग्रन्थोंका वहाँ उपयोग नहीं अतिरिक्त श्रमके डायरेक्टरी तैयार होकर भविष्यके लिये हो रहा है। किन विषयोंके या कौन कौन ग्रन्थ मंगवाने भलीभाँति सोच समझकर रक्षात्मक व्यवस्थाकी जाय। की वहाँ अावश्यकता है। आदि। . किसी अनिष्ट घटनाके पश्चात् की गई प्रार्थना, मुकधर्मस्थान सम्बन्धी फार्म:-मन्दिर या धर्मस्थान दमेबाजी और पश्चातापकी अपेक्षा वर्तमान परिस्थितका किस पंचायत या व्यक्ति के अधिकारमें है। किस स्थान पर स . समुचित ज्ञान प्राप्त कर संभावित अनिष्टसे बचनेका प्रयत्न करना विशेष प्रयोजनीय है। है। मंदिर में मूर्तियोंकी संख्या, प्राचीन मूर्तियोंकी संख्या आशा है कि समाज इस प्राथमिक आवश्यकताके और उन पर अंकित हो तो सम्वत् । प्राचीन यन्त्र और प्रति उदासीन न रहकर कार्यक्षेत्र में अग्रसर होगी। For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारी तीर्थयात्राके संस्मरण (गत किरण १ से आगे) सोनिजी का परिवार एक धार्मिक परिवार है उन्होंने हैं। यहांके युवकोंकी रणासे मुख्तार साहब को मुझे समय समय पर अपनी कमाईका सदुपयोग किया और पं० बाबूलालजी जमादार को ठहरना पड़ा। है विद्वानोंका समादर करते हैं संयम और त्याग शामको चार बजेके करीब हम लोग किरायेकी एक मार्गका अनुसरण करते रहते हैं। सोनिजी स्वयं एक टैक्सी में यहाँसे हिन्दुओंके तीर्थस्थान पुष्कर देखने गए धर्मनिष्ठ व्यक्ति हैं । और गृहस्थोचित षट्कर्मोका जो अजमेरसे ७ मीलकी दूरी पर अवस्थित है । रास्ता यथेष्टरीत्या पालन करते हैं। पहाड़ी और सावधानीसे चलनेका है; चलते समय दृश्य २ नसिया गोधाजीकी, ३ नसिया बड़ा धड़ाकी, ४ बड़ा ही सुहावना प्रतीत होता है। जहाँ ब्रह्माजीका मंदिर नसिया छोटा धड़ाकी, ५ नसिया नया धड़ाकी । इन पांचों सुन्दर है। वहां भगवान महावीर स्वामीकी विशाल मूर्तिनसियोंमें दो व्यक्तिगत हैं और तीन नसिया तीन विभिन्न का दर्शनकर चित्तमें बड़ी प्रसन्नता हुई। पुष्करमें सन् धड़ोंकी हैं जो उनके नामोंसे प्रसिद्ध हैं। जिनसे स्पष्ट प्रतीत १६२. में मस्तक रहित एक दिगम्बर जैन मूर्तिका अवशेष होता है कि अजमेरके जैनियोंमें किसी समय फिरकावन्दी मिला था जिसके लेखसे स्पष्ट है कि वह सं० ११६५ में रही है। शान्तिपुरा मन्दिरजी, दौलतबागसे क्रश्चिय- प्राचार्य गोतानन्दीके शिष्य पंडित गुणचन्द्र द्वारा प्रतिन गंजमें है। ये सब धार्मिक स्थान सेठजीकी धर्मशाला से ठित हई थी। कार्तिकके महीने में यहाँ मेला भरता है । दो फागकी दूरी पर हैं। धर्मशाला मुहल्ला सरावगी ३ पुष्करकी सीमाके भीतर कोई जीव हिंसा नहीं कर सकता। फल गकी दूरी पर है, और शान्तिपुराका वह मन्दिर इन पुष्करसे वापिस आकर हम लोगोंने हीराचन्द्रजी बोहराके धर्मशालाओंसे डेढ़ मील दूर है। ७ तेरहपंथी बड़ा मंदिर यहाँ भोजन किया। रात्रिको सेठजीकी नसियांमें सेठ जी, सरावगी मुहल्ले में, खजांचीकी गली में है भागचंद्रजी की अध्यक्षतामें एक सभा हुई जिसमें मुख्तार सेठजीका नया चैत्यालय-मन्दिरके सामने । साहब बाबूलाल जमादार और मेरा भाषण हुआ। इसके .. ६ चैत्यालय पिंकरियोंका, १० मन्दिरजी नयाधड़ा, बाद केशरगंज होते हुए हमलोग कार द्वारा रातको ११ मन्दिर गोधाजीका, १२ पद्मावती मन्दिर, १३ बड़ा १ बजे व्यावर पहुँचे । मन्दिरजी, १४ छोटा धड़ा मन्दिरजी सरावगी मुहल्लेमें व्यावरमें हम लोग ला० बसन्तलालजीके मकानमें धीपड़ीकी ओर जाते हुये सामने । १५ गोधा गुवाड़ी ठहरे, उन्होंने पहलेसे ही हम लोगोंके ठहरनेकी म्यवस्था मन्दिर लाल बाजार में है, जिसमें सरावगी मुहल्लेसे कर रक्खी थी । ला• बसन्तलालजी ला फिरोजीलालजी अजमेरी धड़ागलीमें होकर जाना होता है दो फागकी और लाला राजकृष्णजीके देहली भतीजे हैं। वे बड़े ही दूरी पर अवस्थित है। १६ उतार घसेटी मन्दिरजी, मिलनसार और सज्जन हैं। उन्होंने सबका आतिथ्य किया १७ डिग्गीका मन्दिर, इसमें उक्त घसेटो मुहल्ले से जाना और भोजनादिकी सब व्यवस्था की । व्यावरका स्थान होता है। श्राब हवाकी दृष्टिसे अच्छा है। परन्तु गर्मी के दिनोंमें यहां केसरगंज-धर्मशालासे ४-५ फलौंगकी दरी पर पानीकी दिक्कत रहती है। नशियांजीके शान्त वातावरण में स्टेशन रोड पर मटिन्डल पुलके सामने गली में अवस्थित व्रती त्यागियोंके ठहरनेका अच्छा सुभीता है। प्रतःकाल है। 15 पल्ली वालोंका मन्दिर केसरगंजके मंदिरके होते ही नैमित्तिक क्रियाओंसे निवृत होकर स्वर्गीय सेठ समीप तीनमंजिले मकान पर स्थित है। चम्पालालजी रानी वालोंकी नशियांजीमें दर्शन किये, और वीरसेवामन्दिरके अधिष्ठाता प्राचार्य जुगलकिशोरजी संवत् ११६५ श्रागण (अगहन) सुदी ३ प्राचार्य से स्थानीय प्रायः सभी सजन मिलनेके लिए आए । यहाँ गोतानन्दी शिष्य पंडित गुणचन्द्रेण शान्तिनाथ प्रतिमा प्रमुख कार्यकर्ता हीराचन्द्रजी बोहरा सेठ सा. के सेक्रेटरी कारिता । For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] वहीं ऐलक पनालाल दिगम्बर जैन सरस्वती भवनको देखा। पंपालालजी सोनी उसके सुयोग्य व्यवस्थापक हैं। उन्होंने भवनकी सब व्यवस्थासे अवगत कराया। चूँकि वहांसे जल्दी ही उदयपुरको प्रस्थान करना था, इसीसे समयकी कमी के कारण भवन के जिन हस्तलिखित ग्रन्थोंको देख कर नोट लेना चाहते थे वह कार्य शीघ्रता में सम्पन्न नहीं हो सका व्यावरसे हम लोग ठीक 8 बजे सवेरे से १३० मीलका पहाड़ी रास्ता तय कर रात्रिको १०॥ बजेके करीब उदयपुर पहुँचे। रास्ते में हिन्दुओं के प्रसिद्ध तीर्थ नाथद्वारेको भी देखा और शामका वहीं भोजनादि कर सड़क पहाड़ी विषम रास्तेको तय कर तथा प्राकृतिक दृश्योंका अवलोकन करते हुए उदयपुरके प्रसिद्ध 'फतेसिंह मेमोरियल' में ठहरे। यह स्थान बड़ा सुन्दर और साफ रहता है, सभी शिक्षित और श्रीमानोंके ठहरनेकी इसमें व्यवस्था है । मैनेजर योग्य श्रादमी हैं । यद्यपि यहाँ ठहरनेका विचार नहीं था, परन्तु मोटरके कुछ खराब हो जानेके कारण ठहरना पड़ा। 1 अनेकान्त उदयपुर एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान है। राजपूताने ( राजस्थान ) में उसकी अधिक प्रसिद्धि रही है। उदयपुर राज्यका प्राचीन नाम 'शिविदेश' था, जिसकी राजधानी महिमा या मध्यमिका नगरी थी, जिसके खण्डहर इस समय उक्त नगरीके नामसे प्रसिद्ध हैं और जो चित्तौडसे ७ मील उत्तरमें अवस्थित हैं । उदयपुर मेवाड़का ही भूषण नहीं है किन्तु भारतीय गौरवका प्रतीक है । यह राजपूतानेकी वह वीर भूमि है जिसमें भारतकी दासता श्रथवा गुलामीको कोई स्थान नहीं है। महाराणा प्रतापने मुसलमानोंकी दासता स्वीकार न कर अपनी धानको रक्षामें सर्वस्व अर्पण कर दिया, और अनेक विपतियोंका सामना करके भारतीय गौरवको अनुय बनाये रखनेका यान किया है । उदयपुरको महाराणा उदयसिंहने सन् १५५६ में बसाया था, जब मुगल सम्राट् अकबरने चित्तौड़गढ़ फतह किया। उस समय उदयसिंहने अपनी रक्षाके निर्मित इस नगरको बसानेका यत्न किया था। उदयपुर स्टेटमें जैन पुरातत्वकी कमी नहीं है। उदयपुर और आसपासके स्थानोंमें, तथा भूगर्भ में कितनी ही महत्वकी पुरान सामग्री दो पड़ी है। बिजोलियाका पार्श्वनाथका * देखो, नागरी प्रचारिणी पत्रिका भाग २ ० २२७ [ किरण ३ दिगम्बर जैन मन्दिर, चित्रकूटका जैन कीर्तिस्तम्भ, और चितौड़ के पुरातन मन्दिर एवं मूर्तियों और भट्टारकीय गद्दीका इतिवृत्त इस समय सामने नहीं है। चुलेव (केशरिया जी ) का आदिनाथका पुरातन दि० जैन मन्दिर जैनधर्मकी उज्वल कीर्तिके पु ́ज है, परन्तु यह सब उपलब्ध पुरातन सामग्री विक्रमकी १० वीं शताब्दी के बाद की देन है । उदयपुर में इस समय शिखरचन्द मन्दिर और चैत्यालय हैं। हम सब लोगोंने सानन्द बन्दना की। उदयपुरके पार्श्वनाथ के एक मन्दिरमें मूलनायक की मूर्ति सुमतिनाथकी है, किन्तु उसके पीछे भगवान पार्श्वनाथकी सं० १२४८ वैशाख सुदी १३ की भट्टारक जिनचन्द द्वारा प्रतिष्ठित मूर्ति भी विराजमान है समय कम होनेसे मूर्तिलेख नहीं लिये जा सके, पर वहाँ १२ वीं १३ वीं शताब्दीकी भी मूर्तियाँ विराजमान हैं। वसवा निवासी श्रानन्दराम के पुत्र पं० दौलतरामजी काशलीवाल, जो जयपुरके राजा जयसिंह के मन्त्री थे यहाँ कई वर्ष रहे हैं। और वहाँ रह कर उन्होंने ज़ैनधर्मका प्रचार किया, वसुनन्दि श्रावकाचारकी सं० १८०८ में टब्वा टीका वहांके सेठ जी अनुरोधसे बनाई। इतना ही नहीं, किन्तु. संवत् १७६५ में क्रियाकोषकी रचना की । और संवत् १७६८ में अध्यात्म बारहखड़ी बना कर समाप्त की x । इस ग्रन्थकी अन्तिम प्रशस्तिमें वह के अनेक साधर्मी सज्जनोंका नामोल्लेख किया गया है जिनकी प्रेरणासे उक्त ग्रन्थकी रचना की गई है उनके नाम इस प्रकार हैंपृथ्वीराज, चतुर्भुजं मनोहरदास, हरिदास वखतावरदास, कदास और पण्डित चीमा । x संवत् सहसाब, फागुन मास प्रसिद्धा । शुक्लपक्ष पक्ष दुतिया उजयारा, भायो जगपति सिद्धा ॥३० जब उत्तरा भाद्र नखत्ता, शुकल जोग शुभ कारी । बालव नाम करण तब वरतै, गायो ज्ञान विहारी ॥ ३१ एक महूरत दिन जब चढ़ियो, मीन लगन तब सिद्धा । भगवमान त्रिभुवन राजाकी भेंट करी परसिद्धा ॥ ३२ * उदियापुरमें रुचिधरा, कैथक जीव सुजीव । पृथ्वीराज चतुर्भुजा, श्रद्धा धरहिं श्रतीव ॥ ५ दास मनोहर श्रर हरी, द्वै वखतावर कर्ण । केवल केवल रूपकों, राम्रै एकहि सर्वं ॥ ६ चीमा पंडित आदि से मनमें चरित विचार । 1 For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] हमारी तीर्थयात्रा संस्मरण यहाँ अनेक ग्रन्थ लिखे गए हैं, शास्त्रभण्डार भी मण्डपमें लगे हुए शिलालेखसे सिर्फ इतना ही ध्वनित होता अच्छा है। संवत् १७०१ और १७०२ में भट्टारक सकल- है कि इस मन्दिरका संवत् १४३१में वैशाख सुदि ३ अक्षय कीर्तिके कनिष्ट भ्राता ब्रह्मजिनदासके हरिवंशपुराणकी तृतीया बुधवारके दिन खडवाला नगरमें बागद प्रान्तमें प्रतिलिपि की गई, तथा सं० १७६ में त्रिलोक दर्पण' स्थित काष्ठासंघके भट्टारक धर्मकीर्तिगुरुके उपदेशसे शाह नामका ग्रन्थ लिखा गया है। ज्ञान भण्डारमें अनेक ग्रन्थ बीजाके पुत्र हरदातकी पत्नी हारू और उसकेपुत्रों-पूजा इससे भी पूर्वके लिखे हुये हैं, परन्तु अवकाशाभावसे और कोता द्वारा -आदिनाथके इस मन्दिरका जीर्णोद्धार उनका अवलोकन नहीं किया जा सका। मन्दिरोंके दर्शन । कराया गया था । प्रस्तुत धर्मकीर्ति काष्ठासंघ और लाल करनेके बाद हम सब लोग उदयपुरके राजमहल देखने बागड़ संघके भट्टारक त्रिभुवनकीर्तिके शिष्य और भ. गए और महागणा भूपालसिंहजीसे दीवान खासभाममें पद्मसेनके प्रशिष्य थे भ० धर्मकीर्तिके शिष्य मलयकीर्तिने मिले । महाराणाने बाहुवलीको परोक्ष नमस्कार किया। संवत् १४६३में भ०सकलकीर्तिके मूलाचारप्रदीपकी प्रशस्ति उदयसागर भी देखा, यहाँ एक जैन विद्यालय है. ब्र. लिखी थी। इस मन्दिरमें विराजमान भगवान आदिनाथकी चाँदमलजी उसके प्राण हैं। उनके वहाँ न होने से मिलना यह सातिशय मूर्ति बड़ौदा बटपक के दिगम्बर जैनमन्दिर नहीं हो सका। विद्यालयके प्रधानाध्यापकजीने २ छात्र से लाकर विराजमान की गई है। मूर्ति कलापूर्ण और काले दिये, जिससे हम लोगोंको मन्दिरोंके दर्शन करने में सुविधा पाषाणकी है वह अपनी अक्षुण्य शान्तिके द्वारा जगतके रही, इसके लिए हम उनके अाभारी हैं । उदयपुरसे हम जीवोंकी अशान्तिको दूर करनेमें समर्थ है। मूर्ति मनोग्य लोग ३॥ बजेके करीब ४० मील चलकर ६॥ बजे केश और स्थापत्यकलाकी दृष्टिसे भी महत्वपूर्ण है। ऐसी रियाजी पहुंचे । मार्गभीलोंकी १ चौकियाँ पड़ी, उन्हें कलापूर्ण मूर्तियाँ कम ही पाई जाती हैं। खेद इस बातका एक पाना सवारीके हिसाबसे टैक्स दिया गया। यह है कि जैन दर्शनार्थी उनके दर्शन करनेके लिये चातककी भील अपने उस एरिया में यात्रियोंके जानमालके रक्षक होते भांति तरसता रहता है पर उसे समय पर मूर्तिका दर्शन हैं। यदि कोई दुर्घटना हो जाय तो उसका सब भार उन्हीं नहीं मिल पाता। केवल सुबह ७ बजे से ८ बजे तक लोगों पर रहता है । साधु त्यागियोंसे वे कोई टैक्स नहीं दिगम्बर जैनोंको १ घंटेके लिये दर्शन पूजनकी सुविधा मिलती हैं। शेष समयमें वह मूर्ति श्वेताम्बर तथा सारे लेते । यह लोग बड़े ईमानदार जान पड़ते थे। दिन व रातमें हिन्दुधर्मकी बनाकर पूजी जाती है और केशरिया अतिशयक्षेत्रके दर्शनोंकी बहुत दिनों से अभिलाषा थी, क्योंकि इस अतिशय क्षेत्रकी प्रसिद्धि एवं १ ......... [येन स्वयं बोध मयेन] महत्ता दि. जैन महावीर अतिशय क्षेत्रके समान ही लोक २ लोका आश्वासिता केचन वित्त कार्ये [प्रबोधिता केच-] में विश्रुत है । यह मगवान आदिनाथका मन्दिर है, इस न मोक्षमा ग्रे (गें तमादिमाथं प्रणामामि नि [त्यम] [श्री विक्रमन्दिरमें केशर अधिक चढ़ाई जाती है यहां तक कि बच्चोंके ४ दित्य संवत् १४३१ वर्षे वैशाख सुदि अक्षय [तृतिया] तोलकी केशर चढ़ाने और बोलकबूल करनेका रिवाज प्रच ५ तिथौ बुध दिना गुरुवद्यहा वापी कूप प्र.. लित है इसीसे इसका नाम केशरियाजी या केशरियानाथ ६ सरि सरोवरालंकृति खडवाला पत्तने । राजश्री • ... प्रसिदिको प्राप्त हुआ है । यह मन्दिर मूलतः दिगम्बर ७ विजयराज्य पालयंति सति उदयराज सेल पा'..... सम्प्रदायका है, कब बना यह अभी अज्ञात है, परन्तु खेला सभी मज्जिनेकाय धन तत्पर पंचूली बागड प्रतिपात्राश्री बारहखड़ी हो भक्तिमय, ज्ञानरूप अविकार ॥७ है [का] ष्ठा संघे भट्टारक श्री धर्मकीर्ति गुरोपदेशेना वा भाषा छन्दनि मांहि जो, तर मात्रा लेय । १. ये साध रहा बीजासुत हरदात भार्या हारू तदंपत्योः प्रमुके नाम बखानिये, समुझे बहुत सुनेय ॥ ८ ११ पुजा कोताभ्यां श्री [ना] मे (मे) श्वर पासादस्य यह विचारकर सब जना, उर धर प्रभुकी भक्ति । जीर्णोद्धार [कृतं] १२ श्री नाभिराज वरवंसकृता वतरि कल्पद...... बोले दौलतरामसौं, करि सनेह रस व्यक्ति ॥ ६ १३ महासेवनेसुः यस्भिन सुरघ्रगणाः कि बारहखड़ी करिये भया, भक्ति प्ररूप अनूप । १४ ...."भोज स यूगादि जिनश्वरोवः ॥१॥...... अध्यातमरसकी भरी, चर्चारूप सुरूप ॥१० . (इस लेखका यह पद्य अशुद्ध एवं स्खलित है) For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अनेकान्त १२] [किरण ३ प्रातःकाल होते ही उसके सिंदूर आदिको पण्डे बुहारियोंसे कभी प्रकाश डाला जावेगा। नागौरीजीकी कल्पनाओंका साफ करते हैं, यह मूर्तिकी घोर अवज्ञा है साथही उससे खण्डन श्री लक्ष्मीसहाय माथुर विशारदने किया है । मूर्तिके कितने ही अवययोंके घिस जानेका भी डर है। पाठक उसे अवश्य पढ़ें। राजस्थान इतिहासके प्रसिद्ध मन्दिरमें यह दि०मूर्ति जब अपने स्वकीय दि०रूपमें आई विद्वान महामना स्वर्गीय गौरीशंकर हीराचंदजी ओझा तो उसी समय सब लोगोंके हृदय भक्तिभावसे भर गए, भी अपने राजपूतानेके इतिहासमें इस मन्दिरको दिगम्बरोंऔर मूर्तिको निनिमेष दृष्टि से देखने लगे। मन्दिर भगवान का बतलाते हैं और शिलालेखोंसे यह बात स्वतः सिद्ध आदिनाथकी जय ध्वनिसे गूंज उठा, उस समय जो आन- है। फिरभी श्वेतांबर समाज इसे बलात् अपने अधिकार में न्दातिरेक हुआ वह कल्पनाका विषय नहीं है। मन्दिरके लेना चाहती है यह नैतिक पतनकी पराकाष्ठा है.. चारों तरफ दिगम्बर मूर्तियां विराजमान हैं। मन्दिर बड़ा श्वेताम्बर समाजने इसी तरह कितने ही दिगम्बर ही कलापूर्ण है। आजके समयमें ऐसे मन्दिरका निर्माण तीर्थ क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया, यह बात उसके लिये होना कठिन है। शोभनीक नहीं कही जा सकती। मन्दिर का सभी मंडप और नौचौकी सं० १५७२ में पिछले ध्वजादण्डके समय साम्प्रदायिकताके नंगे काष्ठा संघके अनुयायी काछलू गोत्रीय कड़िया पोइया नाचने कितना अनर्थ ढाया, यह कल्पना की वस्तु नहीं, और उसकी पत्नी भरमीके पुत्र हांसाने धुलेवमें ऋषवदेवको यहाँ तक कि कई दिगम्बरियोंको अपनी वली चढ़ानी पड़ी। प्रणामकर भव्यशः कीर्तिके समय बनवाय।। इससे स्पष्ट है कि मन्दिरका गर्भगृह निज मन्दिर उसके प्रागेका खेला और अब मूर्तियां व लेख तोड़े गए. जिसके सम्बन्धमें मंडप तथा एक अन्य मंडप १४३१ और १९७२ में राजस्थान सरकारसे जांच करनेकी प्राथना की गई। अस्तु । वनें । अन्यदेव कुलकाएं पीछे बनी हैं। जैन होते हुए भी वहां सारे दिन हिन्दुत्वका ही प्रदर्शन रहता है। ___ भगवान महावीरके अनुयायियोंमें यह कैसा दुर्भाव, यद्यपि मूर्तिकी पूजा करनेका हम विरोध नहीं करते, __ जो दूसरेकी वस्तुको बलात् अपना बनानेका प्रयत्न किया उस प्रान्तके प्रायःसभी लोग पूजन करते हैं। और उन पर जाता है। ऐसी विषमतामें एकता और प्रेमका अभि संचार श्रद्धा रखते हैं परन्तु उसके प्राकृतिक स्वरूपको छोड़कर कैसे हो जा सकता है ? दिगम्बर श्वेताम्बर समाजका अन्य अप्राकृतिक रूपोंको बनाकर उसकी पूजा करना कोई कर्तव्य है कि वे दोनों समयकी गतिको पहचानें, और श्रेयस्कर नहीं कहा जा सकता। यहां इस बातका उल्लेख अपनी सम्पदायिक मनोवृत्ति को दूर रखते हुए परस्पर में कर देना भी श्रावश्यक जान पड़ता है कि श्रीचन्दनलालजी एकता और प्रेमकी अभिवृद्धि करनेका प्रयत्न करें । एक नागौरीने 'केसरियाजी का जो इतिहास लिखा है और ही धर्मके अनुयायियोंकी यह विषमता अधिक खटकती जिसके दो संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। उसमें साम्प्र- ह । है। अाशा है उभय समाजके नेतागण इस पर दायिक व्यामोहवश कितनी ही काल्पनिक बातें, पट्ट एवं विचार करेंगे। शिलालेख दिये हैं जो जाली हैं और जिनकी भाषा उस इसमें कोई सन्देह नहीं है कि केशरियाजीका मन्दिर समयके पट्ट परवानोंसे जरा भी मेल नहीं खाती। उसमें दि० सम्प्रदायका है । इससे इंकार नहीं किया जा कुछ ऐसी कल्पनाएं भी की गई हैं जो ग़लत फहमीको सकता। परन्तु वहां जैन संस्कृतिके विरुद्ध जो कुछ हो फैलाने वाली हैं जैसे मरुदेवीके पास सिद्धिचन्द्र के चरण रहा है उसे देखते हुए दुःख और आश्चर्य जरूर होता चिन्होंको, तथा सं० १६८८ के लेखका बतलाया जाना है। मन्दिरका समस्त वातावरण हिन्दुधर्म की क्रियाओंमे जबकि वहां हाथीके होदेपर वि० सं० १७११ का दिगम्बर श्रोत-प्रोत है। अशिक्षित पण्डे वहां पर पुजारी हैं, वे ही सम्पदायका लेख है और भी अनेक बातें हैं जिन पर फिर वहांका चढ़ावा लेते हैं। आशा है उभय समाज अपने संवत् १७११ वर्षे वैशाख सुदि ३ सोमे श्री मूलसंधे प्रयत्न द्वारा प्रयत्न द्वारा अपन अधिकारोंका यथेष्ट संरक्षण करते हुए सरस्वती गच्छे बलात्कार मणे श्रीभट्टारक......मललेखन मन्दिरका असली रूप अव्य क न होने देंगे। क्रमशः(यह लेख मरुदेवीके हाथी पर वाई ओर है। -परमानन्द जैन, For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत देश योगियों का देश है ( ले० – बा० जयभगवान जी एडवोकेट ) ( गत किरणसे आगे ) भारतीय योगियोंके अनेक संघ और सम्प्रदाय इन इतिवृत्तों से पता लगता है, कि यह श्रमणगण प्राचीनतम समय से काल, क्षेत्रकी विभिन्न २ परिस्थिति से उत्पन्न होने वाले तत्वज्ञान व आचार व्यवहार सम्बन्धी भेदप्रभेदोंके कारण – अनेक संघ और सम्प्रदायोंमें बटे हुए थे । इन्हीं में शैव, पाशुपत और जैन श्रमण भी शामिल थे। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि महावीरकाल में थोड़े थोड़े से तत्व और आचार सम्बन्धी भेदोंके कारण श्रमण संघ कई भेदोंमें बटा हुआ था— पारसनाथ सन्तानीय साधुओंका हृकेश सम्प्रदाय वाला सचेलकसंघ, मस्करी गोशालक वाला आजीवक संघ जामालि वाला बहुरतसंघ, अपनेको तीर्थङ्कर कहने वाले सज्जय, श्रजितकेश कम्बली, प्रकुद्ध कात्यायन पूर्ण कश्यप आदि श्राचायोंके श्रमण संघ भगवान बुद्धका बौद्धसंघ | महावीर उपरान्त काल में स्वयं उन द्वारा स्थापित संघभी दिगम्बर श्वेताम्बर संघों में और उसके पीछे ये संघभी गोपिच्छुक, काष्ठा, द्राविड़, यापनीय, माथुर आदि पचासों उत्तर गण गच्छों में विभक्त हो गया था । ऐसी दशामें भारतकी विशालता और समयकी प्राचीनताको देखते हुये महावीर पूर्व कालीन भारत में अनेक प्रकारके श्रमणसंघांका रहना स्वाभाविक ही है, परन्तु आज इन सब संघोंके इतिहास और दार्शनिक सिद्धान्तों का पता लगाना बहुत कठिन है । इस सम्बन्ध में जो जैन अनुश्रु ति हम तक पहुँची है। उससे तो ऐसा ज्ञात होता है कि इस युगके श्रादि धर्मप्रवर्तक ऋषभ भगवानके जमाने में ही बहुतसे श्रमण जिन्होंने उनके पास जाकर दीक्षा ली थी, इन्दिय संयम व्रत उपवास तपस्या और परिषहजयके कठोर नियमोंसे - घबराकर शिथिलाचारी हो गये । इन्होंने भगवान् ऋषभके मार्गको छोड़कर अपने स्वतन्त्र योग साधनाके सम्प्रदाय स्थापितकर लिये । इनमेंसे कितनोंने दिगम्बरस्वको भी छोड़ दिया, किसीने अपनी नग्नताको लुपानके लिए पेड़ोंकी छाल धारण करली. किसीने मृगछाल ढकली, किसीने भस्मसे ही शरीरका विलेपन कर लिया किसीने कौपीन पहिन ली और किसीने दण्ड धारण कर लिया । ये लोग वनमें ही! छोटे छोटे पत्तोंके झोंपड़े बनाकर रहने लगे और वनमें उत्पन्न होने वाले फलफूल, कन्दमूल आदि लाकर जीवनका निर्वाह करने लगे । इन विचलित साधुश्रोंमें मारीच ऋषि भी शामिल था जो जैनश्रनुश्रुति अनुसार स्वयं भगवान ऋषभका पौत्र था । इस अनुश्रुतिका पूरा विवरण जैन पौराणिक साहित्य में मौजूद है १ । पीछेसे बढ़ते बढ़ते यह सम्प्रदाय भगवान महावीर काल में ३६३ की संख्या तक पहुंच गये इस गणनामें पाशुपत, शैव, शाक्त, तापस चार्वाक, बौद्ध, श्राजीवक, श्रवधूत तथा कपिल पातञ्जल, वादरायण जैमिनी कणाद, गौतम श्रादि भारतीय षड् दर्शनकार भी शामिल हैं । जैन शास्त्रकारोंने इन विभिन्न मतोंकी तात्त्विक मान्यताओंका उल्लेख करते हुए इन्हें चार मुख्य श्रेणियों में विभक्त किया है— क्रियावादी, श्रक्रियावादी, श्रज्ञानबादी और विनयवादी २ । बौद्धमतके पिटक ग्रन्थोंमें भी इन विभिन्न धर्मोकी मान्यताओंका उल्लेख मिलता है वैदिक साहित्यमें भी इन विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तोंके अंकुर मौजूद हैं। X इन सभी दार्शनिकोंका ज्ञातव्य विषय आत्मा व बूझ था। इन सभीकी समस्या यह थी कि इस श्रात्माका १. (अ) आदि पुराण १८-१-६१ ( ईसाकी 5वीं सदी) ( श्रा हरिवंश पुराण ६. १००-११४. ." " " (इ) पद्मचरित ३ २८६ - ३०५ ( ईसाकी ७वीं सदी) २ (अ) षट् खण्डागम-धवला टीका-पुस्तक १ - श्रमरावती, १७३६. १०७–१११ / ईसाकी ८वीं सदी के प्रारम्भ में धवला टीका लिखा गया) (घा) भावप्राभृत - १३५, (१४० ईसाकी पहिली सदी) (इ) गोम्मटसार- कर्मकाण्ड ८७६-८७५. ( ईसाकी नवीं सदी) * (अ) सुत्तपिटक - दीर्घनिकाय ब्रह्मजाल सुत्त, पहला, दूसरा सिरा, चौथा और ७६ वां सुत्त. (आ) मज्झिमनिकाय ३० व ३५ वां और ७६वां सुत्त । x श्वे० उप० १-१-४ For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त किरण ३ मूल कारण क्या है-हम कहाँ से पैदा होते हैं, किसके मनुष्य भव, सद्धर्म उपदेश, सद्भद्धा और मोक्ष सहारे जीते हैं। हमारा संचालन कौन करता है। कौन पुरुषार्थ, यह बात सोचकर मनुष्यको चाहिये कि संयमहमारे सुख दुःखोंकी व्यवस्था करता है। का पालन करे, ताकि वह कर्मोंका नाश कर सिद्ध अवस्था इन अनेक प्रकारके दार्शनिक योगियोंका बाह्यरूप को पा सके।। विभिन्न परिस्थिति और प्रभाकोंके कारण कुछ भी रहा हो, काल बराबर बीत रहा है, शरीर प्रतिक्षण सीण हो परन्तु यह निर्विवाद है कि इन सबकी आत्मा एक ही थी रहा है.इसलिए प्रमादको छोड़ और जाग, यह मत सोच जो श्रमणसंस्कृतिसे ओत-प्रोत थी। यह सभी श्रमण प्रायः कि जो श्राज करना है यह कल हो जायगा। चूकि सांसा अध्यात्मवादी थे । ये अपने त्यागबल, तपोबल, ज्ञानबल रिक जीवन अनित्य है न मालूम इसका कब अन्त हो जाय, और आचारबलके कारण सभी भारतीय जनता द्वारा इसलिए शरीर छिन्न भिन्न होनेसे पहले इसे प्रात्मसाधना विनय और पूजाके योग्य माने जाते थे और तो और में लगाना चाहिये । देवलोग भी सदा उन जैसा ही बननेकी उस्कृट अभिलाषा शरीरसे विदा होनेके दो मार्ग हैं, एक अपनी इच्छाके रखते थे। विरुद्ध और दूसरा अपनी इच्छाके अनुकूल । पहला मार्ग ___ इस प्रकारके परिव्राजक मुनि इस देशकी स्थायी मूढ मनुष्योंका है और इसका बार बार अनुभव करना सम्पत्ति थे। यवन यात्री मैगस्थनीजसे लेकर-जो ई० पड़ता है। दूसरा मार्ग पण्डित लोगोंका है जो शीघ्र ही पूर्वकी चौथी सदीमें यहाँ आया था और जिसने जिनो- मृत्युका अन्त कर देता है३ । सोफिस्ट (Gymno Sophist) अर्थात् जैन फिला- जो आदमी विषम वासनामोंमें लिप्त हैं, जो वर्तमान सफरके नामसे इनको इंगित किया है-जितने भी विदेशी जीवनको ही जीवन मानते हैं, जो मोहग्रस्तहुए पाप पुण्य यात्री और अभ्यागत यहाँ आये सभीने इन योगियोंके के फलोंको नहीं निहारते जो स्वार्थसिद्धि, विषयपूर्ति, विशुद्ध और चमत्कारिक जीवन तथा इनके उदार धनोपार्जन, सुख शीलताके लिए हिंसा, अनीति पापका सिद्धान्तोंका उल्लेख किया है। प्राजभी यह देश इस व्यवहार करते हैं, वे मृत्युके समय दुख शोकको प्राप्त होते प्रकारके योगियोंसे सर्वथा खाली नहीं है और प्राजभी हैं, उन्हें मृत्यु भयानक दिखाई देती है। वे उससे कांपते अनेक विदेशी उनकी खोज में यहां पाते रहते हैं। महर्षि हैं। उनकी मृत्यु उनके इच्छाके विरुद्ध है। रमन और महर्षि अरविन्दघोष अभी हाल में ही भारतके जो आत्मनिष्ठ हैं, आत्म संयमी हैं, प्रमाद रहित हैं, महायोगी हो गुजरे हैं। आत्म साधनामें पुरुषार्थी हैं जो मासके दोनों पक्षोंके पर्व__ भारतीय योगियोंकी शिक्षाएं दिनों में प्रोषधोपवास करते हैं, वे मृत्युके समय शोक विषाद को प्राप्त महीं होते, वे उसका स्वागत करते हुए सहर्ष ये योगिजन गाँव गाँव और नगर नगरमें विचरते हुए शरीरका त्याग कर देते हैं. यह पण्डित मरण है । जिन शिक्षाओं द्वारा लोक जीवनको उन्नत, स्वतन्त्र, और जब सिंह मृगको श्रा पकड़ता है तो कोई उसका सुख सम्पन्न बनाते थे, उनका अनुमान निम्न उदाहरणोंसे सहायक नहीं होता, वैसे ही जब मृत्यु अचानक पाकर किया जा सकता है। मनुष्यको पकड़ लेती है तब कोई किमीका सहायक नहीं जीव अजर अमर है, ज्ञान धन है, आनन्दमय है, होता। माता, पिता, स्वजन, परिजन, पुत्र कलत्र बन्धुजन अमृत मय है और यह लोक परिवर्तनशील और अवित्य सब हाहाकार करते ही रह जाते हैं। संसारमें ये चार पदार्थ पाना बहुत दुर्लभ है-. १. उत्तराध्ययन सूत्र +दश वैकालिक सूत्र १.१. *अरब और भारतके सम्बन्ध, हिन्दुस्तानी ऐकैडमी प्रयाग पृ. १७८-१८८. ® डा. पालब्रटन-गुप्त भारतकी खोज, अनुवादक-श्री ५.१७-२२ वेंकटेश्वर शर्मा शास्त्री वि० सम्वत् १९६६. For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३ ] इन्द्रिय सुखं नित्य नहीं है, वे मनुष्यके पास आते हैं पुण्य व्यतीत होने पर वे उसे छोड़ कर जैसे पक्षी फल विहीन वृक्षको छोड़ कर सुख दुखकी खान हैं७ । ऐसे चले जाते हैं चले जाते हैं ये जो निर्ममत्व हैं वे वायुके समान, पक्षी के समान, अविछिन्न गति से गमन करते हैं। सुखी वही है जो किसी वस्तुको अपनी नहीं समझता, जब किसी वस्तुका हरण व नाश हो जाता है तो वह यह समझकर कि उसकी किसी वस्तुका नाश व हरण नहीं हुश्रा, सम भाव बना रहता है । यदि धन धान्यके ढेर कैलाश पर्वतके समान ऊँचे मिल जायें तो भी तृप्ति नहीं होती, लोभ आकाश समान अनन्त है और धन परमित है, अतः सन्तोष धन ही महान धन है १० । सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता इसीलिए साधु जन कभी किसी प्राणीका बात नहीं करते, प्रायोंका घात महापाप है११ । प्राथियोंका घात चाहे देवी देवताओंके लिये किया जावे, चाहे अतिथि सेवा व गुरु भक्ति के लिये किया जावे चाहे उदरपूर्ति अथवा मनोविनोदके लिये किया जावे उसका फल सदा अशुभ है, इसीलिये हिंसाको पाप और दयाको धर्म माना गया है१२ समझानेके लिये तो पापको पाँच प्रकारका बतलाया जाता है-हिंसा, झूठ, चोरी. कुशील और परिग्रह, परन्तु वास्तव में ये सब हिंसा रूप ही हैं क्योंकि ये सब श्रात्माकी साम्यदृष्टि और साम्यवृत्तिका घात करने वाले हैं.३ । भारतदेश योगियों का देश दे उत्तराध्ययन सूत्र " 99 33 धर्मका मूल दया है, दयाका सूख अहिंसा है और अहिंसाका मूल जीवन साम्यता है, इसलिये जो सभी जीवोंको अपने समान प्रिय समझता है, श्रेय समझता है। वही धर्मात्मा है । " 29 ६-१४ ६-४८-४६ १० 19 ६.६ १२ कार्तिकेयानुप्रेक्षा ॥ ४०२ ॥ १२ श्राचार्य अमृतचन्द्र पुरुषार्थसिद्धयुपाय ॥ ४२ ॥ "" 39 १३-१६-३१ १४-४४ [i मिध्यात्म, अज्ञान, प्रमाद, कषाय, अविरति, राग-द्वेष, मोह-माया, अहंकार आदि जितने भी विपरीत भाव हैं, वे सभी धमाके सुख शान्ति सौन्दर्य रूप स्वभावके घातक हैं । इसलिये ये सभी हिंसा हैं और इनका अभाव अहिंसा १४ । प्राणियोंका घात होनेसे श्रात्माका ही घात होता है । आत्मघात हित नहीं है इसलिए बुद्धिमान लोगोंको प्राणियोंका घात नहीं करना चाहिये १५ । rorataist चाहिये कि वह प्रमाद छोड़ कर दूसरे प्राणियोंके साथ बन्धु समान व्यवहार करें १५ । अहिंसा ही जगतकी रक्षा करने वाली माता है। अहिंसा ही चानन्दको बढ़ाने वाली पद्धति है, अहिंसा ही उत्तम गति है, अहिंसा ही सदा रहने वाली लक्ष्मी १७ । श्रमण संस्कृतिके पर्व और धर्मकी प्रभावना ये योगीजन प्रत्येक दिन सन्ध्या समय अर्थात् - प्रातमध्यान्ह और सायंकालमें सामायिक करते थे। प्रत्येक पक्ष के पर्व के दिनों में अर्थात् पंचमी, अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णमासी एवं श्रमावाश्याको ये पोसह (उपवास) करते थे, तथा ज्ञान व अज्ञानवश किये हुये दोपोंकी निवृत्तिके अर्थ प्रायश्चित करनेके लिये प्रतिक्रमण पाठ अथवा प्रतिमोक्ष पाठ पढ़ते थे और एक स्थानमें एकत्र हो सर्वसाधारणको धर्मोपदेश देते थे। इन पाक्षिकपर्वोके अतिरिक्त हर साक्ष वर्षाऋतु चतुर्मासमें अपार सुदि एकमसे कार्तिक बदी पन्दरस तक साधु सन्तोक एकजगह ठहरनेके कारण लोगोंमें खूब सत्संग रहता था इन चतुर्मासमें धर्म-साधना प्रोषध-उपवास, वन्दना-स्तवन, प्रतिक्रमणादि धार्मिक साधनायें सविशेष करनेके लिये उपासक जन साधुनोंके समागममें एक स्थानमें एकत्र होते थे । इन मेलोंकी एक विशेषता यह होती थी कि इस अवसर पर एकत्रित हुए जन एक दूसरे से अपने दोषोंकी क्षमा मांगा करते थे । इनके अतिरिक्त प्रत्येक वर्ष एक साम्बरसरिक सम्मेलन १४ प्राचार्य अमृतचन्द्र- पुरुषार्थसिद्धयुपाय ॥ ४४ ॥ बकेर आचार्य कृत मूळाचार ॥ २१ ॥ १२ शुभचन्द्रकृत ज्ञानार्णव ११, "" १६ १७ For Personal & Private Use Only "" ॥ ३२ ॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ] भी होता था, इस अवसर पर कई देशोंके साधु संघ एक स्थान पर एकत्र होकर प्रतिक्रमणके अतिरिक्त तस्य सम्बंधी तथा श्राचार-विचार-सम्बन्धी तथा लोक कल्याणकी समस्याओं पर विचार किया करते थे १ । अनेकान्त [ किरण ३ किया है। आयुर्वेदिक ग्रन्थोंमें 'अपान' का अर्थ है वह गन्दी वायु, जो श्वास आदि द्वारा शरीरसे बाहर जाती है। इन सात अपानोंमें पहले तीन अपान कालसूचक हैं और शेष अन्तिम चार अपान चर्या सूचक हैं। इस सूक्तका बुद्धिगम्य अर्थ यही है किं- पौर्णमासी, अष्टमी और अमावास्या वाले दिन वात्य लोगों में पर्व दिन माने जाते थे और वे इन दिनोंमें श्रद्धा (धर्मोपदेश) दीक्षा (धर्मदीक्षा) यज्ञ (धत, उपवास, प्रतिक्रमण वन्दना-स्तवन) धीर ( दक्षिणादान दक्षिणा ) द्वारा धर्मकी विशेष साधना आत्म शुद्धि किया करते थे। वृह उप १. ५. १४ में श्रमावस्याके दिन सब प्रकारका हिंसा कर्म वर्जित बतलाया गया है । इस राज्य की ओर संकेत करते हुए विनयपिटकमें लिखा है कि एक समय बुद्ध भगवान राजगृहके दर पर्वत पर रहते थे उस समय दूसरे मतवाले परिवाजक चतुर्दशी, पूर्णमासी, और अष्टमीको इकट्ठा होकर मपदेश किया करते थे । इन अवसरों पर नगर और ग्रामोंके स्त्री पुरुष धर्म सुननेके लिए उनके पास जाया करते थे । जिससे कि वे दूसरे मतवाले परिव्राजकों के प्रति प्रेम और अदा करने लग जाते थे और दूसरे मतवाले परिवाजक अपने लिये अनुयायी पाते थे। यह देख बुद्ध भगवानने भी अपने मिट्टयोंको अष्टमी, चतुर्दशी और पूर्णमासीको एकत्र होने, धर्मोपदेश देने, उपोसह करने और प्रतिम प्रतिक्रमणपाठ करने की अनुमति दे दी थी १। इन व्रात्य लोगोंकी ( व्रतधारी श्रमण लोग ) उपर्युक्त जीवनचर्या को ही दृष्टिमें रख कर ब्राह्मण ऋषियोंने अथर्ववेद - व्रात्यकाण्ड १५ सूक्त १६ में प्रात्योंके निम्न सात अपानका वर्णन किया है १. पूर्णमासी, २. अष्टमी, ३. श्रमावश्या, ४ श्रद्धा, २. 'दीक्षा, ६. यज्ञ. ७. दक्षिणा । इस सूक्तमें ऋषिवरको 'व्रात्योंके उन साधनों का वर्णन करना अभीष्ट मालूम होता है जिनके द्वारा वे अपने भीतरी दोषोंकी निवृति किया करते थे । इसीलिये ऋषिवरने इन दोष निवृत्तिमूलक साधनोंको सर्वसाधारणाकी परिभाषामें 'अपान' संज्ञा अंगपश्यात्ति प्रकीर्णक श्लोक २८ इन्द्रनन्दी कृत - श्रुतावतार ॥ ८७ जिनसेन कृत - आदिपुराण पर्व ३८ श्लोक २६-३४ त्रिलोकसार - ॥ ६७६ ॥ शाधर कृत- सागार धर्मामृत २. २६ जयसेनकृत - प्रतिष्ठापाठ ॥ १२-१८ ॥ पुनः अध्याय १०६ श्लोक १५ से लेकर श्लोक ३० तक अगहन, पौष माघ फागुन, चैत्र आदि द्वादश महीनोंके क्रमसे उपवासका फल वर्णन किया गया है इन उपयुक्त उपवास खीक सुख और स्वर्ग सुख मिलते T १ व्याख्या प्रज्ञप्ति १२. १. १३. ६ ॥ उत्तराध्ययन सूत्र हैं । पुनः अध्याय १०६ श्लोक ३० से अध्याय के अन्त तक ५. ६७. २२ तथा अध्याय १०७ में विविध प्रकार के उपवासोंका फल बतलाते हुए कहा है कि इन उपवासको यदि मांस, मदिरा, मधु त्याग कर ब्रह्मचर्य अहिंसा सत्यवादिता और सर्वभूतहितकी भावनासे किया जावे तो मनुष्यको अग्निष्टोम वाजपेय, अश्वमेध. गोमेध, विश्वजित प्रतिरात्र, द्वादशार, बहुसुवर्ण, सर्वमेध देवसन्त्र, राजसूय २. विनय पिटक—उपोसथ स्कन्धक | इसी प्रकार महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय १०६ और 100 में पर्यके दिनोंमें साधुयों व गृहस्थीजन द्वारा किये जाने वाले व्रत उपवासोंकी महिमा भीष्म बुधिष्ठिर संवाद द्वारा यों वर्णन की गई है- भीष्मं युधिष्ठिरको कहते हैं कि उपवासोंकी जो विधि मैने उपस्वी अंगिरासे सुनी है वही मैं तुझे बताता हूँ- जो मनुष्य जितेन्द्रय होकर पंचमी अष्टमी और पूर्णिमाको केवल एक बार भोजन करता है वह चमायुक्त, रूपवान और शास्त्रज्ञ हो जाता है। जो मनुष्य अष्टमी और कृष्णपचकी चतुर्दशीको उपवास करता है वह निरोग और बलबान होता है। अध्याय १०६ श्लोक ४-२० ) 4 For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] सोमपदा आदि विविध यज्ञोंके सम्पादन द्वारा जो ऐहिक और स्वर्गिक सुख मिलते हैं, उनमे भी सैकड़ों और हजारों गुण सुख इन उपवासोंके करनेसे मिलता है जैसे वेदले । श्रेष्ठ कोई शास्त्र नहीं हैं, मातासे श्रेष्ठ कोई गुरु नहीं है, धर्मसे श्रेष्ठ कोई लाभ नहीं है वैसे ही उपवास श्रेष्ठ कोई तप नहीं है । उपवासके प्रभावसे ही देवता स्वर्गके अधिकारी हुए हैं और उपवासके प्रभावसे ही ऋषियोंने सिद्धि हासिल की है। महर्षि विश्वामित्रने सहस मह्मष तक एक बार भोजन किया था इसीके प्रभाव से वह ब्राह्मण हुए है। महषि व्यवन जमदग्नि, वसिष्ठ गौतम और भृगु इन क्षमाशील महात्मा श्रोंने उपवासके ही प्रभावसे स्वर्गलोक प्राप्त किया है जो मनुष्य दूसरोंको उपवासव्रतकी शिक्षा देता है उसे कभी कोई दुख नहीं मिलता है। हे युधिष्ठिर ! जो मनुष्य अंगिराकी बतलायी हुई इस उपवास विधिको पड़ता या सुनता है उसके सब पाप नष्ट हो जाते हैं । 1 उपरोक्त पर्वके दिनों में व्रत उपवास रखने, दान दीक्षा देने और क्षमा व प्रायश्चित करनेकी प्रथा श्राजतक भी जैन साधुओं और गृहस्थोंमें तो प्रचलित है ही, परन्तु सर्वसाधारण हिन्दू जनता में भी किसी न किसी रूप में जारी है। ये पर्व और इनसे किये जाने वाले धार्मिक अनुष्ठान निरसन्देह भारतीय संस्कृतिके बहुमूल्य अंग हैं। भारत देश योगियोंका देश है उपरोक्त पर्वके दिनों में उपोसथ रखनेकी प्रथा प्राचीन बेबीलोनिया (ईराक देशके लोगोंमें भी प्रचलित थी । बालके सम्राट् सुरवनीपाल ( ६६६ से ६२६ ई० पूर्व ) के पुस्तकालय से एक लेख मिला है, जिसमें लिखा है कि हर चन्द्रमासकी सातवीं चौदहवीं इक्कीसवीं और अट्ठाईसवीं तिथियोंके दिन बावलके लोग सांसारिक कामोंसे हटकर, देव आराधना में लगे रहते थे। इन दिनोंको सम् (Sabbath ) दिवस कहते थे 'सम्यतु का अर्थ बाबली भाषामै हृदयके विश्रामका दिन है । 1 ईसाई धर्मकी अनुमति अनुसार जो बाईबल जेनेसिस अध्याय १ में सुरक्षित है, प्रजापति परमेश्वरने अपलोक ( संस्तर) की तम अवस्था ( अज्ञान दशा ) में से छह दिन तक विसृष्टि विज्ञान का उद्धार करके सातवें दिन [ ६७ सब प्रकार के कमों में विरक्त होकर विश्राम किया था, ईसाई लोग इस सात दिन (रविवार) को Sabbath दिन मानते है और सांसारिक कार्योंसे विरुद्ध होकर धर्म साधना में लगाते हैं। सम्बतु और उपोसथके शब्द साम्य और भावसाम्पको देखकर अनुमानित होता है कि किसी दूर काल में भारतीय संस्कृतिके ही मध्य ऐशिया में फैलकर वहां भगवानका उद्धार किया था । उपसंहार 3 इस तरह प्राचीन भारतमें ये पर्व ( त्यौहार ) भोग उपभोगकी वृद्धिके लिए नहीं बल्कि जनताके सदाचार और संयमको उनके ज्ञान और त्याग यलको बढ़ाने के लिये काम आते थे । आत्मज्ञान, हिंसा संयम, तप, त्याग, मूलक भारतीय संस्कृतिको कायम रखने और देश विदेशों में जगह जगह भ्रमण कर उसका प्रसार करनेका एकमात्र श्रेय इन्हीं व्यागी तपस्वी भ्रमण लोगोंका है यह उन्हीं की भूत अनुकम्पा, सद्भा वना, सहनशीलता, धर्मदेशना और लोक कल्याणार्थ सतत् परिभ्रमणका फल है कि भारत इतने राष्ट्र विष्जनों मेंसे गुजरने के बाद भी इतने विजातीय और सांस्कृतिक संघर्षोंके बाद भी भाषा भूषा, आचार-व्यवहार की रहोबदलके बावजूद भी अध्यात्मवादी और धर्मपरायण बना हुआ है। ये महात्मा जन ही सदा यहाँ राजशासकोंक भी शाशक रहे हैं। समय समय पर धर्म अनुरूप उनके राजकीम ग्योंका निर्देश करते रहे हैं। वे सदा उन्हें विमूढता, निष्क्रियता विषयलालसा और स्वार्थता के अधम मार्गों से हटा कर धर्ममार्ग पर लगाते रहे हैं। भारतका कोई सफल राजवंश ऐसा नहीं है जिसके ऊपर किसी महान् योगीका वरद हाथ न रहा हो - जिसने उनकी मंत्रणा और विचारणासे आत्मबल न पाया हो। आजके स्वतन्त्र भारतका नेतृत्व भी इस युगके महायोगी महात्मागांधी के हाथ में रहा है, तभी इतने वर्षकी खोई हुई स्वतन्त्रता पुनः वापिस पाने में भारत सफल हो पाया है । वास्तव में भारतीय संस्कृतिको बनाने वाले और अपने तप, त्याग तथा सहन बलसे उसे कायम रखने वाले ये योगी जन ही हैं । For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के अजायबघरों और कला भवनोंकी सूची भारत सरकारने हाल में 'इण्डिया टूरिस्ट इन्फार्मेशन नामकी एक पुस्तिका प्रकाशित की है. जो भारतका टूर (परिभ्रमण) करने वालोंको कितनी ही श्रावश्यक सूचनाएँ देती है । उसमें यह सूचित करते हुए कि भारतवर्ष म्यूजिमों (अजायबघरों श्रद्भुतालयों) और आर्टगेलेरीज (कलाभवनों आदि) की दृष्टिसे समृद्ध है, उन सबकी एक सूची दी है, जिसे अनेकान्तके पाठकोंकी जानकारीके लिये यहाँ प्रकाशित किया जाता है : (क) भारत सरकार द्वारा पलित पोषित (Maintained) १. नेशनल आरचिन्ज प्रोफ इण्डिया, न्यू देहली । २. देहली फोर्ट म्युजियम प्रोफ श्राक्योंलाजी, देहली । ३. सेन्ट्रल एशियन एन्टीक्युटीज म्युजियम न्यू देहली ४. श्राक्र्योलाजिकल म्युजियम, नालन्दा । ५. थायोलाजिकल म्युजियम, सारनाथ । ६. श्राक्योंलाजिकल म्युजियम, नगरजूनी कोयडा ७. फोर्ट सेंट जार्ज म्युजियम, मदरास । ८. राजपूताना म्युजियम, अजमेर । ६. इन्डियन म्युजियम, कलकत्ता । १०. विक्टोरिया मेमोरियलहॉल, कलकत्ता । (ख) रियासती सरकारों द्वारा पालित पोषित १. स्टेट म्युजियम, भुवनेश्वर (उड़ीसा) २. स्टेट म्युजियम, लखनऊ । ३. गवर्नमेंट म्युजियम मदरास । ४. कर्जन म्युजियम ओफ आक्र्योलाजी मथुरा । ५. सेन्ट्रल म्युजियम, नागपुर। ६. पटना म्युजियम, पटना । ७. स्टेट म्युजियम गोहाटी (आसाम) ८. पैलेस कोलेक्सन, औंध । ६. मैसूर गवर्नमेंट म्युजियम, बैंगलोर । १०. बड़ीपाद म्युजियम, मयूरगंज (उड़ीसा) ११. खिविंग म्युजियम, मयूरगंज रियासत १२. बड़ौदा रटेट म्युजियम, एण्ड पिक्चर गैलेरी बड़ौदा | १३. बर्टन म्युजियम, भावनगर ( काठिया ) १४. भूरी सिंह म्युजियम, चम्बा (हिमाचल प्रदेश) १५. श्राक्लाजिकल म्युजियम हिम्मतनगर (ईडर) १६. आक्यलाजिकल म्युजियम ग्वालियर | १७. हैदराबाद म्युजियम, हैदराबाद । १८. इन्दौर म्युजियम इन्दौर | १६. अलबर्ट म्युजियम, जयपुर । २०. सरदार म्युजियम, जोधपुर २१. जरडाईन म्युजियम, खजराहो, छतरपुर ( विध्यप्रदेश) २२. पदुकोट्टाइ म्युजियम पदुकोट्टाइ (मदरास ) २३. वैटसन म्युजियम प्रोफ एण्टीक्यूटीज राजकोट (काठियावाड़) २४. म्युजियम प्रोफ श्राक्र्योलाजी, सांची (भोपाल) २५. •टेट म्युजियम त्रिचुर ( कोचीन ) २६. गवर्नमेंट (नेपियर्स) म्युजियम, त्रिवेन्द्रम् (ट्रावनकोर) २७. विक्टोरिया हॉल म्युजियम, उदयपुर राजपूताना ) २८. जूनागढ़ म्युजियम जूनागढ़ सौराष्ट ) २६. नवानगर म्युजियम, नवानगर (सौराष्ठ) (ग) ट्रस्टों द्वारा पालित-पोषित । १. प्रिंस ऑफ वेल्स म्युजियम श्रॉफ वैस्टर्न इण्डिया, बम्बई | २. लार्डरिए महाराष्ट्र इन्डस्ट्रीयल म्युजियम, पूना । (घ) प्राइवेट रूप से पालित-पोषित । १. भारत कला भवन, बनारस यू०पी० ) २. सैन्ट वीयर्स कालेल म्युजियम, बम्बई । ३. म्युजियम प्रोफ बंगीय साहित्यपरिषद्, कलकत्ता । ४. आशुतोष म्युजियम, कलकता यूनिवर्सिटी, कलकत्ता । ५. भारत इतिहास संशोधक मंडल, पूना । (ङ) म्युनिस्पिलटी द्वारा पालित पोषित । १. इलाहाबाद म्युनिस्पिल्ल म्युजियम, इलाहाबाद । २. विक्टोरिया जुबिली म्युजियम, बेजवाडा | ३. आयलाजिकल म्युजियम, बीजापुर (बम्बई) ४. विक्टोरिया एण्ड अलबर्ट म्युजियम, बम्बई ५. रायपुर म्युजियम, रायपुर (मध्यप्रदेश ) आशा है पुरातत्त्व तथा इतिहासादिके विद्वान इस सूची से लाभ उठाएंगे। पन्नालाल जैन अग्रवाल For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंगीय जैन पुरावृत्त (श्री बाबू छोटेलालजी जैन कलकत्ता ) (गत किरण से आगे) विभिन्न जातियाँ महाभारत, मनुस्मृति, देवलस्मृति, ब्रह्मवैवर्तपुराण विष्णुपुराण आदि ग्रंथोंमें प्रक्षिप्त श्लोक लगाकर या उन्हें परिवर्तित या परिवर्द्धित कर ब्राह्मणोंने जैन और बोद्धोंके प्रति अपना विद्वेष खूब साधन किया है और जो जो जातियाँ जैन और बौद्धधर्मकी अनुयायी थीं उनको वृषत्व और शूद्र भावापन्न घोषित कर दिया है इसे सभी इतिहास लेखक स्वीकार कर चुके हैं । भारतवर्ष में कितनी ही जातियाँ ऐसी हैं जिनका अतीत गौरवान्वित है और हीन न होते हुए भी वे अपने को हीन समझने लगी हैं किन्तु ज्यों २ पुरातत्व प्रकाश में श्राता जाता है ये जातियाँ अपनी महानताको ज्ञातकर अपने विलुप्त उच्च स्थानको प्राप्त कर रही हैं। + महात्मा बुद्धके बहुत पहले बंगाल में वेदविरोधी जैनधर्मका प्रभाव बहुत बढ़ चुका था । २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ ई० पू० ८७७ अब्दमें जन्मे थे । इन्होंने वैदिक कर्मा और पंचाग्नि-साधन प्रभृति की निन्दा की थी । काशीसे मानभूम पर्यंत सुविस्तृत प्रदेश में अनेक लोग उनके धर्मोपदेश से विमुग्ध हो उनके वशीभूत हो गये थे । पार्श्वनाथ के पूर्ववर्ती २२ तीर्थकरोंने राजगृह, चम्पा राड़की राजधानी सिहपुर और सम्मेदशिखर में याज्ञकोंके विरुद्ध जैनधर्मका प्रचार किया था। अंतिम तीर्थंकर श्रीमहावीरस्वामी बुद्धदेवके प्रायः समसामयिक या अल्प पूर्ववर्ती थे । इन्होंने १२ वर्ष राढ़देशमें रहकर असभ्य जङ्गली जातियोंमें धर्मोपदेश प्रदान किया था। उस समय वेद विरोधी जैन और बौद्धमतोंने पौंड्रदेश में और तत्पार्श्ववर्ती देशों में विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त की थी ! सम्राट् चिम्बरसारके समयसे मौर्यवंशके शेष राजा बृहद्रथके समय पर्यंत साढ़े तीनसौ वर्षों तक मगध पौंड्र बंगादि जनपद समूह बौद्ध और जैन प्रभावान्वि हो रहे थे। तत्पश्चात् गुप्तों के प्रभाव - कालमें हिन्दू धर्मका पुनरभ्युदय हुआ । ऐतिहासिक मने स्थिर किया है कि अष्टादश पुराणोंमें अनेकोंकी + बंगे क्षत्रिय पुण्ड्जाति-श्री मुरारीमोहन सरकार पृ०६४ रचना इसी समय हुई थी। ब्राह्मणोंने वेदविरोधी जातियों की उत्पत्तिके सम्बन्ध में कल्पनासम्मत नाना कथाएँ रचकर ग्रन्थोंमें प्रक्षिप्त कर दी। गुप्त नृपति बौद्ध और जैनधर्मके विद्वेषी नहीं थे। इसी समय वज्रयान, सहजयान, मन्त्रयान प्रभृति तांत्रिक बौद्धधर्मका प्रवर्तन हुआ और वंगदेश के जनसाधारण में इनका विशेष प्रचार हुआ। यह तांत्रिक बौद्ध धर्मका श्रभ्युदय, बौद्ध और हिन्दूधर्मके समन्वयका फल मालुम होता है । महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्रीने लिखा है कि भारतवर्ष में पूर्वाङ्गामें ही बौद्धधर्मने सर्वापेक्षा अधिक प्राधान्य लाभ किया था । हुयेनत्सांगने सप्तम शताब्दी के प्रथमार्द्ध में वंगदेश में ८-७ संघारामों में १५००० भिन्तु देखे थे । एतद्भिन्न जैनधर्मके भिक्षु भी थे । भिक्षुत्रोंके लिये नियम था कि तीन घरोंमें जानेके बाद चतुर्थगृह में नहीं जा सकते हैं। और एक बार जिस घर में भिक्षा पा चुके हैं. उसमें फिर एक मास तक नहीं जा सकते हैं । सुतरां एक यतिका प्रतिपालन करनेके लिये अन्ततः १०० घर गृहस्थोंके होना चाहिये। इस हिसाब से तत्कालीन बंग देशवर्ती । नगरोंमें ही एक कोटि बौद्ध संख्या हो जाती है तब सारे बंगदेश में तो और भी अधिक होंगे इसमें सन्देह नहीं है। अतः इनकी प्रधानता इससे स्पष्ट हो जाती है । बंगलार पुरावृत्त ( पृष्ठ १५६ में लिखा है कि 'ईस्वी चतुद्दश शताब्दी में भी बंगदेश में बौद्ध और जैनोंका अत्यन्त प्रभाव थ। ।' यही कारण है किं अंग वंग, कलिंग सौराष्ट्र और मगधदेश में तीर्थयात्रा व्यतीत अन्य उद्देश्यसे गमन करने पर पुनः संस्कार अर्थात् प्रायश्चित्त कर्तव्य. मनुसंहिता + में लिखा गया। इसी प्रकार शूलपाणि और देवल स्मृतियों Discovery of Living Buddhism in Bengal. + अंग वंगकलिंगेषु स्रौर ट्र े मगधेषु च तीर्थयात्रा विना गच्छन् - पुनः संस्कारमर्हति ॥ For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ] में भी यही आज्ञा दी है । इन स्मृतियोंके उद्धरणोंसे स्पष्ट हो जाता है कि अन्यान्य देशोंमें हिन्दुगण दीर्घकालसे जैन बौद्ध प्लावित देश समूहके संस्पर्श में आनेका सुयोग पाकर कहीं उन धर्मोंको ग्रहण न कर लें । पाठक देखें कि बौद्ध और जैनगण हिन्दुओंकी श्रांखोंमें किस प्रकार हेय हो गए। यहाँ तक कि जैन और बौद्ध धर्मानुराग प्रदर्शन के अपराध से बंगालकी ब्राह्मणेतर तावत्-हिन्दुजाति मात्र शूद्र पर्यायान्तर्गत घोषित हो गई थी । यह उशनसंहिताके निम्नलिखित श्लोक से स्पष्ट प्रतीयमान होता है बुद्धश्रावनिगूढाः पञ्चरात्रो विदोजनाः कापालिकाः पाशुपताः पाषंडाश्चव तद्विधा यश्नन्ति हविष्येते दुरात्मानन्न तामसाः ४।२४-२५ :― अर्थात् बौद्ध श्रावक, निगूद (दिगम्बर जैन ) पंचरा त्रिवित, कापालिक, पाशुपत इत्यादि जितने पाखण्ड हैं वे सब दुरात्मा तामस व्यक्ति जिसके श्राद्धमें भोजन करते हैं उनका श्राद्ध श्रसिद्ध है । यह विद्वेष और स्वार्थ यहाँ तक बढ़ा कि बंगाली ब्राह्मण समाज, ब्राह्मण भिन्न क्षत्रिय और वैश्य द्विजातिद्वयका श्रास्तिव बंगाल में स्वीकार ही नहीं करते हैं - सभीको शूद्र पर्यायमें ढकेल दिया है और उनकी उत्पत्ति भी नानारूप शंकरोंसे कल्पित करली है और जैनप्राधान्यकाल में यह सब निषेधात्मक श्लोकावली प्रसिद्ध की गई है। अनेकान्त वेद में लिखा है - अन्नान वः प्रजा भक्षीस्यैति । त एते अन्धाः पुण्ड्राः शराः पुलिन्दाः मुतिवाः इत्युदन्तो बहवो भवन्ति । ये वैश्वामित्रा दस्युनां भृचिष्ठाः ऐतरेय ७। १८ ) - श्रर्थात् श्रन्ध्र, पुण्ड़, शबर, पुलिन्द, मुतिघ प्रभृति जातियाँ विश्वामित्रकी सन्तान है एवं ये दस्यु अर्थात् म्लेच्छ हैं। मनुने दस्यु शब्दकी यह संज्ञा निर्देश की है - ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्यादि जो जातियाँ बाह्य जातिके भावको प्राप्त हो गई हैं, वे म्लेच्छभाषी वा आर्यभाषी जो भी हों सब दस्यु हैं (मनु - १० - ४५ ) इसी प्रकार विष्णुपुराण में 'भविष्य - मगधराजवंश प्रसङ्गमें लिखा है कि विश्व स्फाटिक नामक एक राजा होगा, वह अन्य वर्ण प्रवर्तित करेगा और ब्राह्मण धर्मके विरोधी कैवर्त, कड़ और सिन्धु- सौवीर- सौराष्ट्रांस्तथा प्रत्यान्तिवासिनः अंग-वंग-कलिंगौडान् गत्वा संस्कारमर्हति ॥ [ किरण ३ पुलिंद गणोंको राज्य में स्थापित करेगा ( वि० पु० ४ अंश, २४ अध्याय ) ब्राह्मणधर्म विरोधी या भिन्नधर्मीजनसमूहको ब्राह्मण शास्त्रों में दस्यु, म्लेच्छ, इत्यादि विशेषणोंसे अभिहित किया 1 श्रतएव ब्राह्मणोंने जिन प्राचीन जातियोंको भ्रष्ट, दस्यु, अनार्य वगैरह सम्बोधन करके घृणा प्रकट की है, उनका पता लगाया जाय तो उनमेंसे सर्व नहीं तो अनेक अवश्य जैनधर्मावलम्बी थीं ऐसा प्रगट होगा । बङ्गाल में इस समय कई जातियों ऐसी हैं जो एक समय ज्ञानगुण शिक्षा और कर्मसे सभ्यताके उच्चतम सोपानपर अधिरूढ़ थीं किन्तु आज वे ही ब्राह्मणोंके विद्वेष के कारण अपने अतीत गौरवसे विस्मृत हो दीन हीन अवस्थामें हैं। इन जातियां में से अब यहाँ पुण्ड्र, पुलिन्द, सातशती सराक श्रादि कतिपय जातियों पर विचार करना है । बङ्गाल में तीन प्रकारके जैनी हैं-एक तो वे जो यहाँ के श्रादि श्रधिवासी हैं और जिनमें कितनोंको तो ब्राह्मण विद्वेषके कारण अपना धर्म परिवर्तन करना पड़ा, कितने ही धर्मी शूद्र-संज्ञा-भुक्त हुए और कितने ही त्याचारों से पिस हुए अन्तमें मुसलमान हो गए। दूसरे वे जो प्राचीन प्रवासी पश्चात् निवासी हैं जैसे सराक। श्रौर तीसरे वे जो नूतन प्रवासी श्रर्थात् जिनका यहाँ गत तीन चारसो बर्षो से प्रवास है । सप्तशती (ब्राह्मण) प्राच्यविद्या - महार्णव, विश्वकोष प्रणेता, श्री नगेन्द्रनाथ वसुने अपने बंगेर जातीय इतिहासं (प्रथम भागमें लिखा है कि: 'बंगालके नाना स्थानों में सप्तशती नामक एक श्रेणी ब्राह्मण वास करते हैं । उनमें अधिकांश बंगवासी श्रादि ब्रह्मणोंके वंशधर हैं। जिस प्रकार मानवका शैशव यौवन और वार्द्धक्य यथाक्रम से श्राकर स्वस्थान अधिकार करता हैं उत्थान, पतन, विकाश अथवा विनाश जिस प्रकार प्रत्येक जीवनका श्रवश्यम्भावी फल है, प्रत्येक समाजका भी उसी प्रकार क्रमिक परिणाम परिदृष्ट होता है । सप्तशती समाज भी कालचक्र के श्रावर्तन में यथाक्रमसे शैशव, यौवन, श्रतिक्रम कर जराजीर्णं वार्द्धक्य में उपनीत हुआ है इसीसे यह प्राचीन समाज आज निस्तब्ध निश्चल और मुझमान For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] वंगीय जैन पुरावृत्त । १०१ है अनेकों धर्मसंघर्ष में कितने ही विभिन्न सम्प्रदायोंके प्रबल इन सब महात्माओंके प्रयाससे सहस्रों लोग जैनधर्ममें अाक्रमणोंसे यह समाज आक्रांत हुआ है. और कितने दीक्षित हुए थे। और इन्हींके प्रभावसे यहांके ब्राह्मणांके विषम शेलोंसे इसका वक्षस्थल घायल हुआ है। आज हृदयमें कर्मकांडोंके प्रति आस्था कम होती गई । कर्मकांडोंयह कौन जानता है। का आदर कम होने पर ब्राह्मणेतर विधर्मीगण कर्मकांडका वर्तमान ऐतिहासिकगण घोषणा करेंगे कि इस समाज अनादर और निंदा करने लगे। उत्साहके अभावमें और निर्वातस्थानमें अग्निकी तरह साग्निक ब्राह्मणगण निराका जो अधःपतन हुआ है उसका मूल है बौद्ध विप्लव । किन्तु हम कहेंगे कि केवल बौद्धोंसे इस समाजका विशेष ग्निक हो गये । इसी समय उन ब्राह्मणोंकी स्व-सामाजिक अनिष्ट साधित नहीं हुआ है। जिस प्रकार बहु सहस्रवर्षों और धर्मनैतिक अवनतिका सूत्रपात हुआ। उसके बाद पूर्व से इस समाजका अभ्युत्थान हुआ था उसी प्रकार सम्राट अशोककी अनुशासन लिपिमें 'अहिंसाका माहात्म्य बौद्धधर्म प्रचारके पहले ही इनका पतनारम्भ हुश्रा है।। सर्वत्र प्रचारित हुआ और जनसाधारणका मन उससे पहले ये ब्रह्मण वेदमार्ग परिभ्रष्ट नहीं थे और वेदविद् विचलित हुश्रा । यहाँ के अधिकांश ब्राह्मणोंने वैदिकाचारका और साग्निक ब्राह्मण कहे जाते थे। किन्तु यहाँ (वंग) परित्याग किया। जिन्होंने पहले ब्राह्मणधर्म परित्याग नहीं किया वे वैदिकी पूजा विसर्जन कर पौराणिक देवकी जलवायुका ऐसा गुण है कि सब कोई नित्यनूतनके पक्षपाती हैं और पुरातनके साथ नूतनको मिलानेके लिए पूजामें अनुरक्त हो गये । पौराणिक देव पूजाका प्रभाव तत्पर रहते हैं । इस प्रावहवामें पुरातन वैदिक मार्गके बंग वासियों पर हुआ । जिस समय बंगालमें पौराणिक ऊपर भी अभिनव साम्प्रदायिकोंकी भीषण झटिका प्रवाहित देवपूजाका प्रसार हो रहा था उस समय धीरे धीरे उसके हुई थी । उसीके फलसे गौड (वंग) देशमें जैनधर्मादिका अभ्यन्तरमें बौद्धमत प्रवेश कर रहा था । पौराणिक और बौद्धगणोंके संघर्ष में बौद्धधर्मने जय लाभ किया। जैन अभ्युदय हुआ । जब भगवान् शाक्य बुद्ध ने जन्म ग्रहण नहीं किया था उसके पहलेसे ही गौडदेशमें शैव, कोमार, और प्रभृति अन्य प्रबल मत भी क्रमसे उसके अनुवर्ती होने जैनमत प्रवर्तित थे। जैनोंके धर्म-नैतिक इतिहाससे पता. लगे । इसी समय गौड मंडल में तांत्रिकताकी सूचना प्रारम्भ चलता है कि शाक्यबुद्ध से बहुत पहले बंगालमें जैन प्रभाव हुई । वैदिकोंका प्रभाव तो पहिले ही तिरोहित हो चुका विस्तृत हो गया था। जैनोंके चौबीसों तीर्थंकर शाक्यबुद्ध था । अब पौराणिक भी नतमस्तक हो गये। के पूर्ववर्ती हैं और इनमें २१ तीर्थकरोंके साथ बंगालका खुष्टीय ( ईसवी) अष्टम शताब्दिमें गौडमें फिर संस्त्राव है इनमें १२ वें तीर्थंकर वसुपूज्यने भागलपुरके ब्राह्मणधर्मका पुनरभ्युदय हुा । इसी समय गौडेश्वरने निकटवर्ती चम्पापुरीमें जन्म ग्रहण किया और मोक्ष लाभ कान्यकुब्जसे पंच साग्निक ब्राह्मणोंको आमन्त्रण कर किया। और द्वितीयसे १७३१३ वें से २१ वें और २३ वें बुलाया । इसी समय गौडीय ब्राह्मणोंने 'सप्तशती' आख्या श्री पार्श्वनाथ इन २० तीर्थकरोंने मानभूम जिलास्थ सम्मेद- प्राप्तकी। उस समय गौडमें ७०० घर उन प्राचीन शिखर वर्तमान पाश्वनाथ पर्वत पर मुक्त हुए । पार्श्वनाथका ब्राह्मणोंके थे जिनको वेदाधिकार नहीं था। कन्नोजागत पंच निर्वाण ७७७ खुष्ट पूर्वाब्दमें हुआ था । इन्होंने वैदिक ब्राह्मणोंसे ७०० ब्राह्मणोंके पार्थक्य या भिन्नता रखनेके कर्मकाण्ड और पंचाग्निसाधन प्रभृतिकी विशेष निंदा की लिये सप्तशती' आख्याकी सृष्टि हुई । दूसरा अभिमत थी। उस समय वैदिकाचार और पंचाग्निसाधनादि अनेक यह है कि सरस्वती नदीके तीरवासी सारस्वत ब्राह्मण ही कर्मकाण्ड प्रचलित थे । पार्श्वनाथकी जीवनीसे इनका सर्वप्रथम गौडदेशमें आये थे और राढ़ देशके पूर्वांशमें अनेक आभास मिलता है । तीर्थंकरगण कर्मकाण्ड सप्तशतिका ( वर्तमान सातसइका) नामक जनपदमें वास विद्वेषी होने पर भी ब्राह्मण विद्वेषी कोई न थे । सभी करनेके कारण सप्तशती या सातशती नामसे कहे जाने माझवोंकी यथोचित भक्ति श्रद्धा करते थे अब भी जैन लगे । इस सप्तशतिका जनपदका कितना ही अंश अब वर्द्धसमाजमें उसका पालन है। मान जिलेमें सातशतका या सातसइका परगनामें परिणत हो For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ किरण ३ क्षत्रिय कहकर उल्लेख किया है X | इस जातिमें अभी तक जैनधर्मके संस्कार के फलस्वरूप ममांसादिकका प्रचलन बिल्कुल नहीं है और श्राचारविचार बहुत शुद्ध हैं । यदि ये लोग बौद्ध मतावलम्बी होते तो इनमें भी मांसका प्रचलन अवश्य रहता, फर मत्स्यान्न भक्षी प्रधान मंगदेशमें और खासकर तांत्रिक युगमेंसे निकलकर भी अब निरामिष भोजी रहना इनके जैनत्व को और भी पुष्ट करता है। किन्तु अब ये लोग देष्णवधर्मालम्बी है। - यवसाय वाणिज्य आदि करनेसे अब इनकी वैश्यवृत्ति हो गई है। उपरोक्त चारों जिलोंमें इस पुण्डो ( पुराडू) जातिके अधिकांश जन रहते है। मध्य बंगके नदिया, दक्षिण बंगके यशोहर और पूर्व वंग के पचना जिलोंमें भी अल्प संख्या में ये पाये जाते हैं। विहार जिलेके संधान परमनेके पाकूर अंचल में भी इनका वास है उड़ीसाके बाद स्टेटमें भी इस जाति के लोग पाये जाते हैं और वहाँ पुण्डरी नामसे सत् शूद्र श्रेणी के अन्तर्गत है । डोज बंगाल के उत्तर पश्चिमांश में मालदा, राजशाही, वीरभूम, मुर्शिदाबाद, जिलोंमें पुरंड़ो-पुण्डा पौड्रा- पुण्डरी, पुण्डरीक, नामसे परिचित एक जाति वास करती है। ये अपनेको क्षत्रिय पुरुहूगोके वंशधर बताते है। शास्त्रोंमें (पुण्डू) शब्द देश और जातिवाचक रूपसे व्यवहृत हुआ है। पुण्ड्रदेश में रहने के कारण ये लोग पुण्ड्र कहे जाने लगे राज्याधिकारच्युत हो जानेके कारण पुण्ड्रा जातिके और पुत्र या पौरा शब्द अपभ्रष्ट उच्चारणसे पुण्डो, लोग कृषि और शिल्प कौशलसे जीविकार्जन करते आ रहे पुण्डरी आदि शब्द बन गये हैं। प्रसिद्ध मालदह नगरसे हैं। इनमें सगोत्र विवाह निषिद्ध है । पुण्ड्र जाति में विश्वा दो कोश उत्तरपूर्व और गौड नगरसे ८ कोश उत्तर में विवाह भी प्रचलित नहीं है। इनमें २० गोत्र हैं जैसे फिरोजाबाद नामक एक अति प्राचीन स्थान है । स्थानीय काश्यप, श्रग्नि वैश्व, कन्व कर्ण, अवट विद चान्द्रमास, लोग इस स्थानको पोंडोबा या पु'डावा कहते हैं । इस मालापन, मौदगल्य मापून तामिड मुदगल, वैयाघ्रपद स्थानसे १ कोश उतर-पश्चिममें और मालदह २३ कोसलौटि शालिमन, चिकित; कुशिक येशु, आलम्यायन " 3 उत्तरमें वारदीवारी - पुण्डोव के भग्नावशेष हैं । इस पुण्ड्रजाति कमसे कम दर वर्ष पहले वर्तमान बंगदेश के उत्तर पश्चिम भाग अर्थात्पौगदेश या पुराइदेशमें अपने नामानुसार उपनिवेश स्थापनकर राज्य किया और ये लोग जैन धर्मानुयायी थे । अत एंव इस क्षत्रिय पुण्ड्रजातिको भी ब्राह्मणोंने क्रोधके कारण शास्त्रोंमें प्रक्षेपण द्वारा वृषन या भ्रष्ट • जैन धर्मप्रवर्तक पार्श्वनाथ और महावीरस्वामी एवं 'अहिंसा परमो धर्म' मन्यके ऋषि और धर्मके संस्थापक भगवान बुद्धने एक समय अपनी पदपूजिसे पौ वनको पवित्र किया था । शालाक्ष, लौक, वारक्य, सौम्य, भलन्दन कांसलायन शाfरहस्य, मोडवायन, पराशर लोहायन, और शंख इनमें कच्ची (सिद्धान्न) और पक्की ( पक्वान्न ) प्रथाकी कट्टरता और जाति-पांतिका प्रचलन है पीयदेशमें पहले जैनोंका ही प्रभाव था । अतः विद्व ेषके कारण इस जैनपुण्डजा को ब्राह्मणोंने शूद्र संज्ञा दे दी है। वैष्णवधर्मको अपना लेनेके कारण इन पर इतनी कृपा कर दी कि इन्हें सत्-शूद्रों में गर्भित कर लिया है । १०२ ] गया है ! इसकी वर्तमान सीमा उत्तर में ब्राह्मणी नदी, दक्षिण-पूर्व सीमा भागीरथी (नंगा) और पश्चिम में शाहबाद परगना है । उपरोक्त विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन कालमें ये सप्तशती ब्राह्मण भी जैनधर्मानुवायी थे। पहाड़पुरके गुप्तकालीन ताम्रशासन में भी नाथशर्मा और उनकी भार्या रामीका उल्लेख हुआ है जिससे यह सिद्ध हो जाता है कि पंचम शताब्दि तक बंगाल जैन ब्राह्मण थे । ( देखो बंगे क्षत्रिय पुण्ड्रजाति -श्री मुरारी मोहन सरकार ) X मोकळा, दाविडा, खाटा, पौगड़ा कोराब शिरस्तथा, शौडिका दरदा दश्योरा किराता पवना श्चैवस्तथा पत्रियजातयः । वृषत्यमनुप्राप्त ब्राह्मणानामर्पयात् ॥ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय ३५ * यह ऊपर लिखा जा चुका है कि बंगाल में मात्र दो ही जाति या वर्ण हैं । ब्राह्मण और शूद्र । For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३ ] पोदजाति बंगालके उत्तर पश्चिमांश जिलोंमें पुराडो जातिके सम्बन्धमें ऊपर लिखा जा चुका है। उन्हीं जिलों में से मालदा, राजशाही मुर्शिदाबाद और पीर वूम में एक पोद नामक जाति भी निवास करती है पोद और पुण्डो ( पुनरोसे) दोनों ही की मूल जाति एक है। किन्तु निवास स्थानकी दूरीके कारण उनका परस्पर संम्बन्ध भंग ही नहीं हो गया किन्तु वे एक दूसरे को अपने से हीन समझने लगे हैं। बंगीय जैन पुरावृत • कुलतंत्र विश्वकोष और मदुम सुमारी ( Censur Report से पता लगता है कि पौद्र पत्रियकि चार विभाग हैं - जिनमें पुनरो तो उत्तर राढीय और दक्षिण राीय इस प्रकार दो रादो विभागोंको और पोद बंगज्ञ और ओज (उडिया विभागोंको प्रदर्शित करते हैं। पश्चिम बंग अधिकांश भागमें और खासकर चौबीसपरगना, खुलना और मिदनापुर जिलों में इनका निवास है । और वड़ा, हुगली, नदिया और जेसोर (यशोहर ) जिलों में भी ये अल्पसंख्या में पाये जाते हैं। बंगोपसागरके सनिहित प्रदेश समूहमें इस जातिके अधिकांश लोग वास करते हैं । ये पांद, पोदराज, पद्मराज पद्यराज इन सब नामसे परिचित है। ये लोग अपनेको प्राचीन पुराणोंके वंशवर बताते है। महामहोपाध्याय पं० हरप्रसाद शास्त्रीके मतानुसार x महाभारत पुराण और वेद प्रभृति शास्त्रों में जिस पुदि नामक धनार्थ जातिका उल्लेख हुआ है उसीसे समुत्पन्न यह पोद जाति है । श्रमरकाश में पुलिंदों को म्लेच्छ संज्ञा दी गई है। कवि ने अपने घंडी काव्य में (सन् १२०० ) तदानीन्तन वंगदेशवास्त्री जातियोंके साथ पुलिंदगखोंको किरात, कोलादि म्लेच्छों में रखा है "पुलिन्द किरात, कोलादि हाटेने वाजा चढोल ।" किन्तु पुलिंद शब्दका अपभ्रंश पोद किसी भी नियम के अनुसार बन नहीं सकता है । वर्तमान में इनकी हीनावस्था है और आचार व्यवहार मी निकृष्ट है। तो भी इनमें कर्णवेध, अन्नप्राशन, छोचाचार आदि उच्च जातियोंके धार्मिक अनुष्ठान प्रच x History of India by H. P. Shastri P. 32. [ १०३ लित हैं । इनमें विधवा विवाह वर्जित है और तलाक भो नहीं है। इनके गोत्र १ सांगिरस घालण्याल, धानेश्री, सांडिल्य, काश्यप, भरद्वाज कौशिक, मोद्गल्य, मधुकूल और हंसन इत्यादि । वैवाहिक नियम भी इनमें उच्चजातियों की तरह के हैं । कुशण्डिका, व्यतीत विवाह के पत्र चंग से पालन करते हैं पर सम्प्रदानको विवाहका प्रधान श्रंग ये मानते हैं। अब इनकी गणना सत् शूद्रों में की जाती है। पोद जाती खांटी कृषक जाति है। 3 प्रोफेसर पंचानन मित्र एम० ए० पी० ० एस ने लिखा है कि "यह सम्भव है कि बंगाल के पोद मूलतः जैनी होनेके कारण इति प्रस्त हुए हैं। क्षति पोढ़ ( पुनरो ) जाति पन्ना और पद्मरागकी खानोंसे धन संचय कर चुके हैं। दक्खनका 'पदिपूर' नामक स्थान इन्हीं पोदगणोंके नामसे प्रसिद्ध हुआ मालुम होता है । पन्ना पद्मराज खनिज रत्नोंके नामोंसे भी इस जातिके नाम मिलते जुलते हैं । प्राचीन काल में पट्ट शब्दसे सनके वस्त्र समझे जाते थे । विश्वकोश में पुण्ड और पट्ट वस्त्र के समानावाची शब्द है। इससे मालूम होता है कि पुढो घर पोद जाति भी वस्त्र व्यवसायी थी। एक ओर पौड्रादि जातियोंके ऊपर ब्राह्मयोंका अत्याचार बढ़ा और दूसरी और मुसलमानोंने भी इन्हें तन करना प्रारम्भ किया इससे इन जातियोंके लाखों मनुष्य इसलाम धर्मानुयायी बन गये । पोद जातिके कुछ लोग हुगली जिलेके पाण्डुश्राके आस पास भी पाये जाते हैं और बे मछुए (धीवर) हैं किन्तु अन्य पोद गणोंसे इनका किसी प्रकारका सम्बन्ध नहीं है । कायस्थ जाति गौवंग के सामाजिक, राजनैतिक, धर्मसाम्प्रादायिक इतिहास में कायस्थ जातिने सर्वप्रधान स्थान अधिकार किया था। ज्ञान-गुण दया दाक्षिण्य, शक्ति-सामयं धर्म कर्म सभी विषय यहाँका कायस्थ समाज एक दिन उन्नतिकी पराकाष्ठा पर पहुँच चुका था इसीसे गौड़ वंगका प्रकृत इतिहासका प्रधान श्रंश ही कायस्थ समाजका The Cultivating Pods by Mahendr Nath Karan - History of Gour by K. K. Chakravarty. For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३ ] इतिहास है। अकबरके प्रधान सभासद् और ऐतिहासिक agar लिखा है कि मुसलमान आगमनले पूर्व फजल ने १३३२ वर्षों से यह भूमि भि २ स्वाधीन राजवंशोंक शासनाधीन थी । अर्थात् एक दिन गौद व कायस्थ अनेकान्त प्रधान स्थान था । राजकीय लेख्यविभागमें जो पुरुषानुक्रमसे नियोजित होते रहे हैं. समय पाकर उन्होंने ही 'कायस्थाख्या ' प्राप्त की थी। सामान्य नकखनवीसी किरानी (Clerk ) के कार्यसे लगाकर राजाधिकरणका राज सभा संवि विग्रहकादिका कार्य पुरुषानुक्रममें जिनकी एकांत वृत्ति हो गई थी वे ही कायस्थ कहलाने लगे " प्राचीन लेखमाला में यह जाति लाजू कया राजूफ, श्री करण, कणिक, कायस्थ ठकुर और श्री करणिक ठकुर इत्यादि संज्ञा अभिहित हुई है। मोयंसम्राट अशोककी दिल्ली अलाहाबाद रचिया, मनिया और रामपुर इत्यादि स्थानोंसे प्राप्त अशोकस्तम्नोंमें उस्को धर्म सिपिमें राज्कोंका परिचय है-उसका अनुवाद निम्नलिखित है:देवगणोंके प्रिय प्रियदशिराजा इस प्रकार कहते हैं-मेरे अभिषेक के पविंशति वर्ष पश्चात् यह धर्मलिपी ( मेरे श्रादेशसे ) लिपिबद्ध हुई । मेरे राजूकगण बहुलोगोंके मध्य में शतसहस्त्र गणिके मध्य में शासन कर्तृरूपसे प्रतिष्ठित हुए हैं उनको पुरस्कार और दंडहैं। उनकी पुरस्कार और दंडविधान करनेकी पूर्ण स्वाधीनता मैंने दी है । क्यों ? जिससे राजुकमया निर्विघ्नता और निर्भयता से अपना कार्य कर सकें, जनपद के प्रजा साधारणाके हित और सुख विधान कर सकें एवं अनुग्रह कर सकें। किस प्रकार प्रजागण सुखी एवं दुखी होगी यह वे जानते हैं । वे जन श्रौर जनपदको धर्मानुसार उपदेश करेंगे। क्यों ? इस कार्य से वे इस लोक और परलोक में परम सुख लाभ कर सकेंगे । राजू सदा ही मेरी सेवा करनेके अभिलाषी है मेरे अपर (अन्य ) कर्मचारीगण भी. जो मेरे अभिप्रायको जानते हैं, मेरे कार्य करेंगे और वे भी प्रजागणको इस प्रकार आदेश देंगे कि जिससे राजूकगण मेरे अनुग्रह लाभ में समर्थ हो सकें । जिस प्रकार कोई व्यक्ति उपयुक्त धात्तीके हाथमें शिशुको व्यस्त कर शान्ति बोध करता है और मन वंगेर जातीय इतिहास - श्री नगेन्द्रनाथ वसु विश्वकोष संकलयिता प्राच्य विद्या महार्णव- सिद्धान्त वारिधि प्रणीत - राजन्यकाण्ड, कायस्थकाण्ड, प्रथमांश । ( 7 [ १०४ ही मन में सोचता है कि धात्री मेरे शिशुको भली प्रकार रखेगी में भी उसी प्रकार जानपद्गणके मंगल और सुखके जिथे शकों कार्य करवाता है। निर्मलता एवं शान्ति योध कर विमम न होकर वे अपने कामको कर सकेंगे। इसी लिए मैंने पुरस्कार और दण्डविधान में राजूकगणोंको सम्पूर्ण स्वाधीनता प्रदान की है। मेरा अभिप्राय क्या है ? वह यह है कि राजकीय कार्य में वे समता दिखायेंगे, दण्डविधान में भी समता दिखायेंगे।" राजूकगणोंका किस प्रकार प्रभाव था, अशोक लिपिसे उसका स्पष्ट आभास मिल जाता है। दूश्टर साहबने राजुक गणको “कायस्थ” माना है । मेदिनीपुर वासी एक श्रेणी के कायस्थ आज भी "राजू" नामसे कहे जाते हैं। प्रोफेसर जेकोबीके जैन प्राकृतमें लाजूक या राजूक सूचक रज्जू शब्द कल्पसूत्र में मिला है जिसका अर्थ है लेखक किराणी (Clerk ) । राजूक और कायस्थ दोनों ही शब्द प्राचीन शास्त्रोंमें एकार्थवाची हैं। सुप्रसिद्ध बूतहर साहबने लिखा है कि अशोकको उपरोक स्तम्भ लिपि जब प्रचारित हुई थी उस समय प्रियदर्शीने बौद्ध धर्म ग्रहण नहीं किया था । और तब वे ब्राह्मण, बौद्ध, श्रौर जैनोंको समभावसे देखते थे। ऐसी अवस्था में राजूकगणों को जो सम्मान और अधिकार प्रदान किया था वह पूर्व प्रथाका ही अनुवर्तन था । पर्वत पर खोदित अशोकके तृतीय अनुशासनसे जाना जाता है कि राजूकगण केवल शासन वा राजस्व विभाग में ही सर्वेसर्वा नहीं थे किन्तु धर्मविभाग में भी उनका विशेष हाथ आ गया था (जब अशांक यौद्ध धर्मानुयायी हो गया था) और वे सम्राट अशोकद्वारा धर्म महामात्यपद अधिष्ठित हो गये थे। अधिक सम्भव है कि जिस दिनसे राजूकगण कराध्यक्ष से धर्माध्यक्ष हुए उसी दिन से ब्राह्मण शास्त्रकारगणोंकी विषदृष्टिमें पड़ गये और इसी कारण सारे पुराण में ( श्रध्याय १६ ) राजोपसेवक धर्माचार्य कायस्थगण अपांक्त य बना दिये गये (अध्याय १९ ) । विद्वानोंके मलसे मौर्य सम्राट् अशोक वृद्धावस्था में यद्यपि कट्टर धर्मानुयायी थे तो भी सब धर्मोके प्रति समभावसे सम्मान प्रदर्शन करते थे और प्रजाको धर्मसम्बन्धमें पूर्ण स्वाधीनता थी। साधारण प्रजाप अशोकके व्यवहारसे सन्तुष्ट होने पर भी ब्राह्मण धर्मके नेता ब्राह्मणगण कभी सन्तुष्ट नहीं हो सकते थे। कारण स्मरणातीत For Personal & Private Use Only • Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३ ] बंगीय जैन पुरावृत्त [१०५ कालसे जो अविसम्बादित श्रेष्ठता वे भोग करते प्रारहे पुनः समाजक, धमक, एवं आचार-व्यवहारके नेता हो गये थे, उसके मूल में कुठाराघात हुआ-सब जातियां समान और राज्यको उपदेश देकर चलाने लगे। स्वाधीनता पाकर कौन अब उन ब्राह्मणोंको पहलेकी तरह जब शुगवंश वैदिक क्रिया-काण्ड प्रचार द्वारा सन्मान और भद्धा करेंगे । इस प्रकारकी धारणाले उनके अहिंसाधर्मका मूलोच्छेद करने में अग्रेसर हुआ तब अहिंसामनमें दारुण विद्वेषका संचार हो गया। इसके बाद मौर्य- धर्मके पृष्ठपोषक बौद्ध और जैनाचार्यगण भी निश्चिन्त, सम्राट ने जब दण्ड-समता और व्यवहार समताकी रक्षाके और निश्चेष्ट महीं थे। बौद्धधर्मानुरक्त यवन नरपति लिए विधिन्यवस्था प्रचारित करने लगे तब उस विद्वेषा- मिलिंदने शुगाधिकार पर आक्रमण किया पर वे सफल ग्निमें उपयुक्त अनिल संचार हो गया । ब्रह्मणधर्मके न हो सके । जैनधर्मी कलिंगाधिपति खारवेलने (ई पूर्व०प्राधान्य कालमें अपराधके सम्बन्धमें ब्राह्मणोंको एक प्रकारसे १७१) मगध पर आक्रमण किया और पुष्यमित्रको स्वतन्त्रता थी-ब्राह्मण चाहे जितना गर्हित अपराध करें पराजित कर पुनः जैनधर्मकी प्रतिष्ठा की। तो भी उनको कभी प्राणदण्ड नहीं मिलता था, न उनके प्रायः २३५ ई०पू० से ७८ ईस्वी पूर्वान्द पर्यंत आर्यालिये किसी प्रकारका शारीरिक दण्ड था । साक्षी (गवाही) वर्तमें शुग और कान्व वंश के अधिकार काल में ब्राह्मणोंका देनेके लिए उनको धर्माधिकरणमें उपस्थित होनेके लिये प्राधान्य अप्रतिहत था। इसके पहले बौद्ध और जैनाधिकारके बाध्य नहीं किया जा सकता था। साक्षी देने पर उनको समय जो प्रबल थे,इस समय उनकी पूर्व प्रति-पत्तिका बहुत जिरह नहीं कर सकते थे। किन्तु व्यवहार समताकी कुछ ह्वास हो गया था। उसीके साथ मालूम होता है कि प्रतिष्ठा कर अशोकने उनको इन सब चिरन्तन अधिक:- राजूकगण (कायस्थ) भी पूर्व सन्मानच्युत और ब्राह्मणोंके रोंसे वंचित कर दिया। अब तो उनको भी घृणित. अस्पृ- विद्वेष भाजन हो गये । श्य, अनार्य एवं शूद्र प्रभृतोंके साथ समान भावसे शूला- यह पहले लिखा जा चुका है कि जैनोंके प्राचीन रोहण और कारावासादि क्लेश सह्य करने पड़ेंगे। बस ग्रन्थोंसे यह मालूम होता है कि खुष्ट जन्मके ८०० वर्ष इन सब बातोंसे अशोकका वंश ब्राह्मणोंका चतुःशूल हो पूर्व २३ वें तीर्थकर पार्श्वनाथ स्वामीने पुण्डू, राढ, और गया। और उसके ध्वंसके लिए वे बद्धपरिकर हो गये। ताम्रलिप्त प्रदेशमें वैदिक-कर्मकाण्डके प्रतिकूल "चातुर्याम अशोककी मृत्युके बाद मौर्य राजाके प्रधान सेनापति पुष्य- धर्मका" प्रचार किया था और उनके पहले श्री कृष्णके मित्रको राजत्वका लोभ दिखाकर राजाके विरुद्ध ब्राह्मणोंने कुटुम्बी २२ वें तीर्थंकर नेमिनाथने अंय बंगमें भिक्षुधर्म उत्तेजित कर दिया । पुष्यमित्र परम ब्राह्मण भक्त था । एक प्रचार किया था। बुर और अंतिम तीर्थंकर महावीर'बार ग्रीक लोगोंने जब पश्चिम प्रान्त पर आक्रमण किया स्वामीने भी यथाक्रम अंग और राढ़ देश में अपने २ धर्ममत था तब पुष्यमित्र उनको पराजित कर जब पाटलीपुत्र में प्रचार किये थे। ये सभी वैदिक आर्यधर्म विरोधी थे लौटा, तब मौर्याधिप बृहद्रथने उसके अभ्यर्थनार्थ और इनके प्रभावसे प्राच्यभारतका अनेक अंश वैदिकानगरके बाहर एक विराट सैन्य-प्रदर्शनी की व्यवस्था की। चारविहीन था-इस कारणसे यहाँ अति-पूर्वकालमें ब्राह्मण उत्सवके बीचमें ही किस प्रकार किमीका एक तीर प्रभाव नहीं था। यह कहना अत्युक्ति नहीं होगा । वैदिक महाराजके ललाटमें लगा और उसी जगह उनका विप्रगण अंग बंगके प्रति अति घृणासे दृष्टिपात कर चुके देहान्त हो मया । हैं। इसी कारणसे ब्राह्मणोंके ग्रन्थोंमें अंग वंगकी सुप्राचीन ब्राह्मणधर्मके भक्त - सेवक पुष्यमित्रने इस प्रकार वार्ताको स्थान नहीं मिला और जो जैन बौद्धादिकोंने मौर्यवंशका ध्वंस साधन कर भारतके सिंहासन पर उपविष्ट लिखा था यह सब सम्भवतः ब्राह्मणाभ्युदके समय प्रयत्नाहुए और तत्काल ही पूर्वब्राह्मण-धर्मकी प्रतिक्रिया प्रारम्भ भावके कारण विलुप्त हो गया है। उसी अतीतकालकी हुई जहाँसे अहिंसाधर्म घोषित हुआ था उसी पाटली- क्षीणस्मृति प्रचलित एक दो बौद्ध और जैन ग्रन्थोंमें पुत्रके वक्षस्थल पर बैठकर पुष्यमित्रने एक विराट अश्वमेध उपलब्ध होती है। उनसे मालूम होता है कि'यज्ञका अनुष्ठान कर अहिंसाधर्मके विरुद्ध घोषणा की महावीर स्वामीने अंग देशके चम्पा नगरीमें एक कायस्थके और पुष्यमित्रके आधिपत्य विस्तारके साथ २ ब्राह्मणगण गृहमें एक बार पारणा किया था। बिम्बसारके पुत्र For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६] अनेकान्त [किरण ३ अजातशत्रने जब चम्पाको रामधानी बनाया था उस आदित्य, चन्द्र, देव, दत्त, मित्र, घोष, सेन, कुण्डु, समय वहाँ बौद्ध प्रभाव था किन्तु अपदिनों बाद पालित, भोग, भुजि नन्दी, नाग प्रभृति उपाधि प्राचीन गणधर सुधर्मस्वामीने जम्बूस्वामीके साथ चम्पामें प्राकर कालसे बंगालके कायस्थ समाजमें प्रचलित हैं। इनके जैनधर्म प्रचार किया था । इसके बाद जम्बूस्वामीके पूर्व पुरुष पश्चिम भारतसे उपरोक्त जिस २ पदवीयुक्त होकर शिष्य बत्सगोत्र सम्भूत स्वयंभव यहाँ आये और उनके आये थे. उनके वंशधर भी उसी उसी पदवीको व्यवहार निकट जैनधर्मका उपदेश श्रवण कर अनेक लोग जैनधर्ममें करते रहे हैं और आज भी वे उपाधि यहां प्रचलित हैं। दीक्षित हुए थे। इसके बाद अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहुका अंतमें वसु महाशयने लिखा है कि अति-पूर्वागत कायस्थअभ्युदय हुअा। समस्त भारतमें इनके शिष्य प्रशिष्य थे। गण इस देशकी जलवायु और साम्प्रदायिक धर्मप्रभावके इनके काश्यप गोत्रीय चार प्रधान शिष्य थे उनमें पँधान गुण से अधिकांश जैन, बौद्ध वा शैवसमाज मुक्त हो गए शिष्य गोदास थे . इन गोदाससे चार शाखाओंकी सृष्टि थे। अतः यह सिद्ध हो जाता है कि वर्तमान कायस्थोंमें हुई, इनका नाम था ताम्रलिप्तिका कोटीवर्षीया, पुण्ड- अनेक प्राचीन प्राचीन जैम धर्मावलम्बी हैं। वर्द्धनीया और दासीकवटीया । 'अतिप्राचीन काल में इन . धर्मशर्माभ्युदयके कर्त्ता महाकवि हरिश्चन्द्र जैन धर्मशर्मा चार शाखााके नामसे यह प्रतिपन्न होता है कि दक्षिण, कायस्थ थे। उन्होंने अपने वंशपरिचयमें अपनेको" उत्तर, पूर्व और पश्चिम समस्त बंगमें जैनोंकी शाखा बड़ी भारी महिमा वाख्खे और सारे जगतके अवतंसरूप प्रशाखा विस्तृत हुई थीं। इससे स्पष्ट होता है कि अति मोमकोंके वंशमें कायस्थकुल का लिखा है । "नोमकानां प्राचीनकालसे राढ, वंगमें विशेषतासे जैन प्रभाव और I वंश" पाठ अशुद्ध मालूम होता है इसकी जगह उसके साथ बौद्ध संस्रव था। " - ." "राजुकानां वंशः" पाठ होना चाहिए। उत्तर और पश्चिम वंगमें गुप्ताधिकार विस्तारके हरिश्चन्द्रने काव्यकी प्रशंसा करते हुए..."लिखा साथ वैदिक और पौराणिक मत प्रचलित होने पर भी है कि "महाहरिश्चन्द्रस्य गद्य बन्यो नृपायते" इनकी पूर्व और दक्षिण बंगमें बहुत समय तक जैन निर्ग्रन्थ दूसरी कृति 'जीव'धर चम्पू" है। जो गय पचमें लिखा और बौद्ध श्रमणोंकी लीलास्थली कही जाती थी। हुश्रा सुन्दर काव्य ग्रन्थ है।..... . जैन और बौद्ध ग्रन्थों में ब्रह्मदत्त नपतिका नाम मिलता - यशोधरचरित अथवा 'दयासुन्दर विधान काव्य' हैं। अबुल फजलकी कथाका विश्वास करनेसे उनको नामक ग्रन्यके कर्ता कवि पद्मनाम कायस्थ भी जैनधर्मके कायस्थ नृपति मानना पड़ेगा। अंग' और पश्चिम बंग प्रतिपालक थे। इन्होंने ग्वालियरके तंबरवंशी राजा वीरमउनके अधिकारसे निकलकर श्रेणिक राजाके प्राधीन हो देवके राज्यकालमें (सन् १४०१ से १४२५ के मध्यवर्ती जाने पर ब्रह्मदत्तने पूर्व वंग और दक्षिण राढ़को प्राधित समयमें) भट्टारक - गुणकीर्तिके उपदेशसे वीरमदेवके किया। उस सुप्राचीनकालसे लगाकर गुप्तशासनके पूर्व मन्त्री कुशराज जैसवालके अनुरोधसे "यशोधर चरित्रकी" पर्यन्त यहाँ के कायस्थगण या तो जैन या बौद्ध-धर्मके रचना की थी। पक्षपाती थे। बहुशत वर्षों से जिस धर्मका प्रभाव जिस समाजपर आधिपत्य विस्तार कर चुका था, वह मूलधर्म . विजयनाथ माथुर घोडे (तक्षकपुर के निवासी थे। विलुप्त होने पर भी समाजके स्तर स्तरमें प्रस्तररेखावतउसका अपना चिन्ह अवश्य रह जायेगा। इसी कारणसे श्रर श्री ज्ञानजीकी इच्छानुसार सं. १८६१ में भ० यहाँकी उस पूर्वतन कायस्थ-समाजके अनन्तर जाल सकलकीर्तिके "वद्ध मानपुराण' का दिन्दीमें पद्यानुवाद वर्तमान समाजमें भी उसकी क्षीण स्मृतिका अत्यन्ता किया था। भाव-नहीं हुआ। मशः For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेवामन्दिरके सुरुचिपूर्ण प्रकाशन (१) पुरातन - जैनवाक्य-सूची - प्राकृतके प्राचीन ६४ मूल ग्रन्थोंको पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थोंमें उद्धत दूसरे पद्योंकी भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३२३ पद्य वाक्योंकी सूची । संयोजक और सम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी की गवेषणापूर्ण महत्वकी १७० पृष्ठकी प्रस्तावनासे अलंकृत, डा० कालीदास नाग एम. ए., डी. लिट् के प्राक्कथन ( Foreword ) और डा० ए. एन. उपाध्याय एम. ए. डी. लिट् की भूमिका ( Introduction) से भूषित है, शोध-खोजके विद्वानों के लिये अतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द ( जिसकी प्रस्तावनादिका मूल्य अलग से पांच रुपये है ) १५) (२) आप्त- परीक्षा — श्रीविद्यानन्दाचार्यकी स्वोपज्ञ सटीक अपूर्वकृति आप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयके सुन्दर सरस और सजीव विवेचनको लिए हुए, न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावनादिसे युक्त, सजिल्द । 5) (३) न्यायदीपिका - न्याय-विद्याकी सुन्दर पोथी, न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी के संस्कृतटिप्पण, हिन्दी अनुवाद, विस्तृत प्रस्तावना और अनेक उपयोगी परिशिष्टोंसे अलंकृत, सजिल्द । (४) स्वयम्भू स्तोत्र – समन्तभद्रभारतीका अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद छन्दपरि चय, समन्तभद्र-परिचय और भक्तियोग, ज्ञानयोग तथा कर्मयोगका विश्लेषण करती हुई महत्वकी गवेषणापूर्ण प्रस्तावनासे सुशोभित । (५) स्तुतिविद्या - स्वामी समन्तभद्रकी अनोखी कृति, पापोंके जीतनेकी कला, सटीक, सानुवाद और श्रीजुगलकिशोर मुख्तारकी महत्वकी प्रस्तावनासे अलंकृत सुन्दर जिल्द- सहित । (६) अध्यात्मक मलमार्तण्ड - पंचाध्यायीकार कवि राजमल्लकी सुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दी अनुवाद सहित और मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी खोजपूर्ण विस्तृत प्रस्तावनासे भूषित । 911) (७) युक्त्यनुशासन - तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण समन्तभद्रकी असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिम्दी अनुवाद नहीं हुआ था। मुख्तारश्रीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादिसे अलंकृत, सजिल्द । (८) श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र - श्राचार्य विद्यानन्दरचित, महत्वकी स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । (६) शासनचतुस्त्रिशिका - ( तीर्थपरिचय ) - मुनि मदनकीतिंकी १३ वीं शताब्दीकी सुन्दर रचना, हिन्दी (11) ... m) नोट - थे सब ग्रन्थ एकसाथ लेनेवालोंको ३८||) की जगह ३१) में मिलेंगे । ... अनुवादादि सहित | (१०) सत्साधु- स्मरण - मंगलपाठ- श्रीवीर बर्द्धमान और उनके बाद के २१ महान् श्राचार्यो के १३७ पुण्य-स्मरणोंका महत्वपूर्ण संग्रह, मुख्तारश्रीके हिन्दी अनुवादादि सहित । (११) विवाह - समुद्देश्य मुख्तार श्रीका लिखा हुआ विवाहका सप्रमाण मार्मिक और तात्विक विवेचन (१२) अनेकान्त-रस-लहरी - श्रनेकान्त जैसे गृढ़ गम्भीर विषयको श्रतीव सरलतासे समझने-समझानेकी कुंजी, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर- लिखित । 1) (१३) अनित्यभावना - श्र० पद्मनन्दी की महत्वकी रचना, मुख्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित 1) (१४) तत्त्वार्थसूत्र--( प्रभाचन्द्रीय ) - मुख्तारी के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्यासे युक्त । (१५, श्रवणबेल्गोल और दक्षिण के अन्य जैनतीर्थ क्षेत्र -ला० राजकृष्ण जैनकी सुन्दर रचना भारतीय पुरातत्व विभागके डिप्टी डायरेक्टर जनरल डा० टी० एन० रामचन्द्रनकी महत्व पूर्ण प्रस्तावनासे अलंकृत ... For Personal & Private Use Only ... ... व्यवस्थापक 'वीरसेवा मन्दिर - ग्रन्थमाला' वीर सेवामन्दिर, १, दरियागंज, देहली Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. No.D. 211 SION अनेकान्तके संरक्षक और सहायक 11. 212 : संरक्षक 101) बा० मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता 1500) बा० नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता 101) बा० केदारनाथ बद्रीप्रसादजी सरावगी, 251) बा० छोटेलालजी जैन सरावगी , 101) बा० काशीनाथजी, 251) बा० सोहनलालजी जैन लमेचू, 101) या० गोपीचन्द रूपचन्दजी 251) ला० गुलजारीमल ऋषभदासजी, 101) बा.धनंजयकुमारजी 251) बा० ऋषभचन्द (B.R.C. जैन , 101) बा जीतमलजी जैन 251) या० दीनानाथजी सरावगी 101) बा० चिरंजीलालजी सरावगी 251) वा० रतनलालजी झांझरी 101) बा० रतनलाल चांदमलजी जैन, राँची बा० बल्देवदासजी जैन सरावगी 101) ला० महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली 251) सेठ गजराजजी गंगवाल 101) ला० रतनलालजी मादीपुरिया, देहली 251) सेठ सुआलालजी जैन 101) श्री फतेहपुर स्थित जैन समाज, कलकत्ता 251) या० मिश्रीलाल धर्मचन्दजी 10.) गुप्तसहायक सदर बाजार मेग्ठ ) सेठ मांगोलालजी 101) श्रीमती श्रीमालादेवी धर्मपत्नी डा० श्रीचन्द्रजी 251) सेठ शान्तिप्रसादजी जैन जैन 'संगल' एटा 251) या० विशनदयाल रामजीवनजी, पुरलिया 101) ला० मक्खनलालजी मोतीलालजी ठेकेदार, देहली 251) ला० कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर 101) बा० फूलचन्द रतनलालजी जैन कलकत्ता 251) या० जिनेन्द्रकिशोरजो जैन जौहरी, देहली 101) बा० सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्ता 251) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहजी 101) या०वंशीधर जुगलकिशोरजी जैन, कलकत्ता 251) बा० मनोहरलाल नन्हेंमलजी, देहली 101) बा०बद्रीदासजी आत्मारामजी सरावगी, २५१)ला०त्रिलोकचन्दजी सहारनपुर मारूफगज पटना सिटी 251) सेठ छदामीलालजो जैन फीरोजाबाद 101) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर 251) ला० रघुवीरसिंहजी, जैनावाच कम्पनी देहली 101) बा. महावीरप्रसादजी एडवोकेट हिसार 251) रायबहादुर सेठ हरवचन्दजी जैन रांची 101) ला० बलवन्तसिंहजो हांसी घीचन्दजी गंगवाल जयपुर 101) कुँवर यशवन्तसिहजी हांसी सहायक 101) बा० राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली 101) ला० परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी देहली 101) बा०लालचन्दजी बी० सेठी, उज्जैन 101) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता अधिष्ठाता 'वीर-सेवामन्दिर' 101) बा० लालचन्दजी जैन सरावगी , सरसावा, जि. सहारनपुर 25RRRRRRR प्रकाशक-परमानन्दजी जैन शास्त्री 1, दरियागंज देहली / मुद्रक-रूप-वाणी मिटिंग हाऊस 23, दरियागंज, देहली For PersonalsPrivate,use only upuni.lairuslibrarvadi