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________________ ८४] अनेकान्त [किरण अब भी हैं और वे ही आगे भी सर्वदा रहेंगे । गुण भी एक पशु शरीरसे नहीं हो सकते। एक पशु-शरीरके कार्य बस्तुके परिवर्तनके साथ ही बदल सकते हैं अन्यथा नहीं। एक पक्षी-शरीरसे नहीं हो सकते । एक पक्षीके कार्य कृमिवस्तुकी शुद्ध अवस्थाके गुण वस्तुकी शुद्ध अवस्थामें कीट शरीर धारियोंसे नहीं हो सकते इत्यादि । जीवात्मा सर्वदा एक समान ही पाए जायेंगे कभी भी कमवेश नहीं। शरीरके साथ एक मेक रहकर शरीरको चेतना मात्र प्रदान जब वस्तुओंका सम्मिश्रण होता है तब उनके गुणोंका करता है पर उसकी शरीरकी कार्य क्षमताको बदल नहीं समन्वय होकर नए गुण परिलक्षित होते हैं पर मूल वस्तु- सकता । के मूलगुण सर्वदा मूलवस्तुमें पूर्ण रूपसे सन्निहित "जीव" (आत्मा) की चेतना भी शरीरकी बनावट रहते हैं-न अलग हो सकते हैं न कमवेश । एवं सूक्ष्मता स्थूलताके अनुसार कमवेश रहती है। सूक्ष्म आत्माका गुण चेतना और जड़ वस्तुओंका गुण जड़त्व एकेन्द्रिय जीवोंमें ज्ञानचेतना इतनी कम रहती है कि हम (अचेतना) भी अनादिकालसे उनके साथ हैं और रहेंगे। उन्हें जड़तुल्य ही मान लेते हैं। जैसे जैसे शारीरिक दोनोंमें संयोग होनेके कारण उनके गुणोंका समन्वय होकर क्रमोन्नति रूपमें (Evolution by stages) होता जीवधारियोंके गुण विभिन्न रूपोंमें हम पाते हैं पर हर जाता है आत्माकी चेतनाका बाह्य विकास भी उसी अनुसमय आत्माके गुण आत्मामें ही रहते हैं और शरीरको रूप बढ़ता जाता है। एकेन्द्रियमें भी कितनी ही किस्में हैं. बनाने वाली जड़ वस्तुओं और रसायनोंके गुण जड़ वस्तुओं जिनमें एक शरीरसे दूसरे शरीर में ज्ञान चेतनाकी उत्तरोत्तर और रसायनोंके कारणों और संघोंमें ही रहते हैं। संयोगके वृद्धि पाई जाती है। एकेन्द्रियसे द्वीइन्द्रिय इत्यादि करके कारण न तो आत्माका चेतनगुण जड़ वस्तुओंमें चला उत्तरोत्तर पंचेन्द्रियोंमें सबसे अधिक आत्मचेतना बाह्य जाता है न जड़ वस्तुका गुण (जड़त्व) आत्मामें और रूपमें परिलक्षित होती है। उनमें भी मन वाले जीवों में और जब भी दोनों अलग अलग होते हैं अपना अपना पूराका सर्वोपरि मानवोंमें चेतना अधिकसे अधिक उन्नत अवस्थामें पूरा गुण लिए हुए ही अलग होते हैं। मिलती है इसे अंग्रेजी में विकाशवाद ( Evolution) विभिन्न जीवधारियोंके कार्य कलाप उनके शरीरकी कहते हैं जिसकी हम अपने जैनशास्त्रों में वर्णित 'उध्द बनावटके अनुसार ही होते हैं और हो सकते हैं । एक गति' से तुलना लगा सकते हैं। (अगले अंकमें समाप्त.।) गाय गायके ही काम कर सकती है, एक चींटी चींटीके इस विषयकी थोड़ी अधिक जानकारीके लिए मेरा ही काम कर सकती है-एक सिंह सिंहके ही काम कर लेख "शरीरका रूप और कर्म" देखें जो ट्रैक्टरूपमें सकता है-अन्यथा होना कठिन और असंभव एवं अस्वा- अमूल्य अखिल विश्व जैनमिशन, पो. अलीगंज, जि. भाविक है। एक मानव-शरीरसे जो कार्य हो सकते हैं वे एटा, उत्तर प्रदेशसे मिल सकता है। सूचना अनेकान्त जैन समाजका साहित्य और ऐतिहासिक पत्र है उसका एक एक अंक संग्रहकी वस्तु है। उसके खोजपूर्ण लेख पढ़नेकी वस्तु हैं। अनेकान्त वर्ष ४ से ११वें वर्ष तककी कुछ फाइलें अवशिष्ट हैं, जो प्रचारकी दृष्टिसे लागत मूल्यमें दी जायेंगी। पोस्टेज रजिस्ट्री खर्च अलग देना होगा। देर करनेसे फिर फाइलें प्रयत्न करने पर भी प्राप्त न होंगी। अतः तुरन्त प्राडर दीजिये। मैनेजर-'अनेकान्त' १ दरियागंज, देहली जैनसमाजका ५० वर्षका इतिहास बाबू दीपचन्द्रजी जैन संपादक वर्धमान ११०१ से १६५० तकका तैयार कर रहे है। जिन भाइयोंके पास इस सम्बन्धमें जो सामग्री हो वह कृपया उनके पास निम्न पते पर तुरन्त भेजनेकी कृपा करें। बाबू दीपचन्द जैन, सम्पादक वर्धमान, तेलीवाड़ा, देहली. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527317
Book TitleAnekant 1953 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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