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________________ ८२] अनेकान्त [किरण ३ अचेतन जड़ पदार्थोंसे कुर्सी, मेज, तख्त, किवाड़, सत्ता' का नहीं रहना ही है और चेतना रहने यां पाए छड़ी, खड़ाऊँ, डेक्स, सन्दूक-आदि विविध वस्तुएं बनाये जाने का अर्थ उस 'सत्ता' का रहना ही है इसी 'सत्ता जाने पर भी उनकी जड़ता और पुद्गलपने (Matter) को-जिसका गुण चेतना है या जिसके विद्यमान रहनेसे का प्रभाव नहीं होता, प्रत्यत बह सदाकाल ज्योंका त्यों किसी शरीरमें चेतना रहती है भारतीय दार्शनिकोंने बना रहता है। इससे ही उसके सदाकाल अस्तित्वका I n 'आत्मा' या 'जीव' कहा है श्रास्माका ही अपना गुण पता चलता है । चेतना जड़ वस्तुओं का गुण नहीं चेतना है । जहाँ श्रात्मा होगा वहाँ चेतना होगी नहाँ है किन्त वह तो जीवका असाधारण धर्म जो उसे भात्मा नहीं रहेगा वहाँ चेतना नहीं होगी। पर यह चेतना नपा नावारीमानका भी किसी शरीर या किसी रूपी वस्तुमें (जिसे हम शरीर अस्तित्व जुदा जुदा है। अतः अचेतनके अस्तित्व कहते हैं) ही पाई जाती है कि बिना शरीरके कहीं भी (existance) के समान उसका भी 'अस्तित्व' चेतना यों ही अपने श्राप परिलक्षित नहीं होती। इसका है और सर्वदासे था तथा सर्वदा रहेगा। अचेतन वस्तुओं अर्थ यह होता है कि संसार में बिना किसी प्रकारके शरीरके और चेतन देहधारियों (वस्तुओं) में इतना बड़ा विभेद आधारके आत्मा या चेतनाका होना या पाया जाना सिद्ध प्रत्यक्ष रूप से हम पाते हैं कि यह मानना ही पड़ता है कि नहीं होता। चेतना और वस्तु शरीरका संयुक्तरूपही हम 'चेतना' कोई ऐसा गुण है जो जड़-वस्तुओंका अपना जीवधारी के रूपमें पाते हैं। परन्तु चूंकि चेतना निकल गुण नहीं हो सकता-क्योंकि यदि जड़ वस्तुओंमें चेतना- जाने पर भी शरीर ज्योंका त्या बना रहता है. उसका का गुण स्वयं रहता तो हर एक सूक्ष्म या स्थूल जड़ विघटन नहीं होता है इससे हम मानते हैं कि चेतनाका वस्तुमें चेतना और अनुभूति,ज्ञान थोड़ा या अधिक अवश्य आधार कोई अलग 'सत्ता' है जो वस्तुके साथ रहते हुए रहता या पाया जाता . पर ऐसी बात नहीं है। इससे भी उससे अलग होती है या हो सकती है। इस तरह हमको मानना पड़ता है कि चेतनाका, प्राधार या कारण जड़ वस्तुकी और भात्माकी अलग अलम अवस्थिति जो कुछ भी हो उसका एक अपना अस्तित्व है और चेतना (existence) और 'सत्ताएँ' मानी गई। उसका स्वाभाविक गुण है जो केवल मात्र जड़में सर्वश हर एक वस्तुके गुण उस वस्तुके साथ सर्वदा उसमें अदृश्य या अनुपस्थित (Absent) है। किसी भी रहते हैं-गुण वस्तुको कभी भी छोड़ते नहीं । दो वस्तुयें जीवधारीको लीजिये-उसका जन्म होता है और मृत्यु मिलकर कोई तीसरी वस्तु जब्र बनती है तब उस तीसरी होती है। मृत्युके समय हम यह पाते हैं कि जीवधारीका वस्तुके गुणभी उन दोनों वस्तुओंके गुणोंके संयोग और शरोर या बाह्य रूप तो ज्यों का त्यों रहता है पर चेतना सम्मिश्रणके फलस्वरूपही होते हैं-बाहरसे उसमें नये लुप्त हो गई होती है । शरीरके चेतना रहित हो जानेको गुण नहीं आते । इतनाही नहीं पुनः जब वह तीसरी ही लोकभाषामें मृत्यु कहते हैं। जब तक किसी शरीरमें वस्तु विघटित होकर दोनों मूल वस्तुओं या धातुषोंमें चेतना रहती है उसे जीवित या जीवनमुक्त कहते हैं। परिणत हो जाती है तो उन मूल वस्तुओंके गुणभी शरीर तो वस्तुओं या विभिन्न धातुओंसे बना रहता है अलग अलग उन वस्तुओंमें ज्योंके त्यो संयोगसे पहले और यदि चेतना शरीरको बनाने वाले धातुओंका गुण जैसे थे वैसेही पाए जाते हैं-न उनमें जरासी भी कमी रहता तो शरीरसे चेतना कभी भी लुप्त नहीं होती-पर होती है न किसी प्रकारकी वृद्धि ही । यही वस्तुका स्वभाव चूकि हम यह बात प्रत्यक्ष रूपसे देखते या पाते हैं इससे या धर्म है और सृष्टिका स्वतःस्वाभाविक नियम । इसमें हमें मानना पड़ता है कि चेतना शरीरका निर्माण करने विपरीतता न कभी पाई गई न कभी पाई जायगी। की वस्तुओं या धातुओं का अपना गुण नहीं हो सकता। दो एक रसायनिक पदार्थोंका उदारहण इस शाश्वत तब चेतनाका माधार या श्रोत क्या है या वह कौनसी 'सत्य' को अधिक खुलासा करनेमें सहायक होगा। तूतिया 'सत्ता' है जो जब तक शरीरमें विद्यमान रहती है तब तक (नीला थोथा Copper Sulphate या Cuson) उसमें चेतना रहती है और वह सत्ता हट जाने पर में तांग, गंधक और प्राक्सिजन निश्चित परिणामोंमें चेतना नहीं रहती-अथवा चेतना नहीं रहनेका अर्थ उस मिल्ने रहते हैं। तूतियाके गुण इन मिश्रणवाली मूल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527317
Book TitleAnekant 1953 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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