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किरण ३] भात्मा, चेतना या जीवन
[८१ और श्रृंखलाबद्ध समाधान संसारके सामने बड़े प्राचीन रहना बड़ाही हानिकारक है। सुज्ञान या सही ज्ञानसे कालसे रखा है-परन्तु धार्मिक कट्टरता द्वेष-विद्वेष, ही व्यक्तिकी और मानवताकी सच्ची उन्नत्ति हो
सकती है। छोटे बड़ेकी भावना तथा सुज्ञानकी कमी और तरह तरहके दूसरे कारणोंसे यह शुद्ध ज्ञान कुछही लोगों तक सीमित जो कुछ हम इस विश्व या संसारमें देखते या पाते
हैं उस सबका अस्तित्व (Existance) है। यह अस्तित्व रह गया तथा संसारमें फैल नहीं सका। अब इस तर्क
वह प्रत्यक्ष सत्य है जिसका निराकरण करना या जिसे बुद्धि-सत्यके युगमें इस शुद्ध, सही सुज्ञानको स्वकल्याण और मानव कल्याणके लिए विशद रूपसे विश्व में फैलाना
नहीं मानना भ्रम तथा गलती है। कुछ नहीं (शून्य, हमारा कर्तव्य है।
Vacum) से कोई वस्तु (Matter) न उत्पन्न हो सकती
है न बन या बनाई जा सकती है। मिट्ठीसे ही घड़ा विविध स्थानों, समयों, वातावरणोंमें पैदा होने
बनाया जा सकता है या बन सकता है बिना वस्तुके पलने और रहनेके कारण मनुष्य की प्रवृत्तियोमें महान्
आधारके वस्तु या वास्तविक कुछ नहीं हो सकता। संसार विभेद और अन्तर तथा विभिन्नताएँ रहती हैं। योग्यता,
में जो कुछ है वह सर्वदासे था और सर्वदा रहेगा-यही शिक्षा और ज्ञानकी कमी-बेशीभी सभी जगह सभी
वैज्ञानिक, सुतर्कपूर्ण और बुद्धियुक्त सत्य है। इसके विपव्यक्तियोंमें रहती ही हैं। इन विविध कारणोंसे विचार धर्म
रीत कोईभी दूसरी धारणा ग़लत है। वस्तुओंके रूप और दर्शनकी विविधता होना भी स्वाभाविक ही है । यदि
परिवर्तित होते या अदलते बदलते रहते हैं । मिट्टीके ये स्वयं स्वाभाविकरूपमें ही विकसित होते तो कोई हर्ज
कणोंको इकट्ठा कर पानीकी सहायतासे निर्माण योग्य नहीं था-अंतमें विकासके चरमोत्कर्षपर सब जाकर एक
बनाकर घड़े का उत्पादन होता है और पुन: घड़ा टूट फूट जगह अवश्य मिल जाते, पर सांसारिक निम्न स्वार्थ और
कर ठिकरों या कणों इत्यादिमें बदल जाता है। हो सकता अहंकारने ऐसा होने नहीं दिया-यही विडम्बना है।
है कि यह हमारा संसार (पृथ्वी) किसी समय बर्तमान करीब करीब सभी अपनेको सही और दूसरेको कमवेश
जलते सूर्य की तरह ही कोई जलता गोला रहा हो या धूलग़लत कहते हैं। एक दूसरेकी बात समझ कर एक दूसरेसे
कणों और गैसों का 'लोन्दा' रहा हो और बादमें इनमें मिलजुल कर एक निश्चित अंतिम मार्ग निकालना लोग
शक्लें बनती गई हों, तरह तरहके रूप होते गए हों। पसन्द नहीं करते-संसारकी दुर्दशाओंका जनक और
शकलों और रूपोंका बनना बिगड़ना तो अबभी लगा हो मुख्य स्रोत विरोधाभास रहा है। सारा संसार एक बहुत
हुआ है । उस 'गोले' या 'लोन्दे' में जीव और अजीव बड़े परिवारकी तरह एक है और मानवमात्र एक दूसरेसे
दोनोंही सूक्ष्म या स्थूल रूपमें रहे ही होंगे । वस्तुओंके संबन्धित निकटतम रूपसे उस परिवारके सदस्य हैं । अब
सूचम और स्थूल रूप एक दूसरेके संगठनऔर विघटनसे तो विज्ञानके बहुव्यापी विकास और यातायातके साधनोंकी
बनते बिगड़ते रहते हैं। सर्वथा नया कुछभी पैदा नहीं उन्नतिके कारण मानवमात्र और अधिक एक दूसरेके
हो सकता न पुरानेका सर्वथा नाश हो सकता है संयोग, निकट आ गये हैं और आते जाते हैं। हर एकका कल्याण
वियोग, संघठन विघठम और परिवर्तन इत्यादि द्वारा ही हर एक दूसरे और सबके कल्याणमें ही सन्निहित है।
हम कुछ नया उत्पन्न हुआ देखते या पाते हैं और पुरानेका अब तो मानवमात्रके कल्याण द्वाराही अपना कल्याण
विनाश हुआ सा दीखता है । पर वास्तव में उसका होना समझकर सबको विरोधों और अज्ञान तथा कुज्ञानको
विनाश नहीं होता, वह अपनी सत्ताको सदा कायम रखता जहांतक भी संभव हो सके दूर करना ही पहला कर्तव्य
है इसीसे वह ध्र व भी कहलाता है। प्रत्येक पदार्थ बाह्य होना चाहिए।
परिण मनसे अपने स्वाभाविक गुणको नहीं छोड़ता, किंतु तर्क और बुद्धि की कसौटी पर कसकर जो सिद्धांत वह ज्यों का त्यों बना रहता है । यदि उसके अस्तित्वसे ठीक, सही और सत्य जंचे उसेही स्वीकार करना और इन्कार भी किया जाय तो फिर पदार्थोकी इयत्ता बाकीको भ्रमपूर्ण या मिथ्या घोषित करके छोड़नाही बुद्धि- (मर्यादा) कायम नहीं रहती। चेतम, अचेतन पदार्थ अपने
कहा जा सकता है-अन्यथा केवल रूढ़ियोंको पकड़े अपने अस्तित्वसे सदाकाल रहे हैं और रहेंगे।
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