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________________ किरण ३ ] इतिहास है। अकबरके प्रधान सभासद् और ऐतिहासिक agar लिखा है कि मुसलमान आगमनले पूर्व फजल ने १३३२ वर्षों से यह भूमि भि २ स्वाधीन राजवंशोंक शासनाधीन थी । अर्थात् एक दिन गौद व कायस्थ अनेकान्त प्रधान स्थान था । राजकीय लेख्यविभागमें जो पुरुषानुक्रमसे नियोजित होते रहे हैं. समय पाकर उन्होंने ही 'कायस्थाख्या ' प्राप्त की थी। सामान्य नकखनवीसी किरानी (Clerk ) के कार्यसे लगाकर राजाधिकरणका राज सभा संवि विग्रहकादिका कार्य पुरुषानुक्रममें जिनकी एकांत वृत्ति हो गई थी वे ही कायस्थ कहलाने लगे " प्राचीन लेखमाला में यह जाति लाजू कया राजूफ, श्री करण, कणिक, कायस्थ ठकुर और श्री करणिक ठकुर इत्यादि संज्ञा अभिहित हुई है। मोयंसम्राट अशोककी दिल्ली अलाहाबाद रचिया, मनिया और रामपुर इत्यादि स्थानोंसे प्राप्त अशोकस्तम्नोंमें उस्को धर्म सिपिमें राज्कोंका परिचय है-उसका अनुवाद निम्नलिखित है:देवगणोंके प्रिय प्रियदशिराजा इस प्रकार कहते हैं-मेरे अभिषेक के पविंशति वर्ष पश्चात् यह धर्मलिपी ( मेरे श्रादेशसे ) लिपिबद्ध हुई । मेरे राजूकगण बहुलोगोंके मध्य में शतसहस्त्र गणिके मध्य में शासन कर्तृरूपसे प्रतिष्ठित हुए हैं उनको पुरस्कार और दंडहैं। उनकी पुरस्कार और दंडविधान करनेकी पूर्ण स्वाधीनता मैंने दी है । क्यों ? जिससे राजुकमया निर्विघ्नता और निर्भयता से अपना कार्य कर सकें, जनपद के प्रजा साधारणाके हित और सुख विधान कर सकें एवं अनुग्रह कर सकें। किस प्रकार प्रजागण सुखी एवं दुखी होगी यह वे जानते हैं । वे जन श्रौर जनपदको धर्मानुसार उपदेश करेंगे। क्यों ? इस कार्य से वे इस लोक और परलोक में परम सुख लाभ कर सकेंगे । राजू सदा ही मेरी सेवा करनेके अभिलाषी है मेरे अपर (अन्य ) कर्मचारीगण भी. जो मेरे अभिप्रायको जानते हैं, मेरे कार्य करेंगे और वे भी प्रजागणको इस प्रकार आदेश देंगे कि जिससे राजूकगण मेरे अनुग्रह लाभ में समर्थ हो सकें । जिस प्रकार कोई व्यक्ति उपयुक्त धात्तीके हाथमें शिशुको व्यस्त कर शान्ति बोध करता है और मन वंगेर जातीय इतिहास - श्री नगेन्द्रनाथ वसु विश्वकोष संकलयिता प्राच्य विद्या महार्णव- सिद्धान्त वारिधि प्रणीत - राजन्यकाण्ड, कायस्थकाण्ड, प्रथमांश । ( Jain Education International 7 [ १०४ ही मन में सोचता है कि धात्री मेरे शिशुको भली प्रकार रखेगी में भी उसी प्रकार जानपद्गणके मंगल और सुखके जिथे शकों कार्य करवाता है। निर्मलता एवं शान्ति योध कर विमम न होकर वे अपने कामको कर सकेंगे। इसी लिए मैंने पुरस्कार और दण्डविधान में राजूकगणोंको सम्पूर्ण स्वाधीनता प्रदान की है। मेरा अभिप्राय क्या है ? वह यह है कि राजकीय कार्य में वे समता दिखायेंगे, दण्डविधान में भी समता दिखायेंगे।" राजूकगणोंका किस प्रकार प्रभाव था, अशोक लिपिसे उसका स्पष्ट आभास मिल जाता है। दूश्टर साहबने राजुक गणको “कायस्थ” माना है । मेदिनीपुर वासी एक श्रेणी के कायस्थ आज भी "राजू" नामसे कहे जाते हैं। प्रोफेसर जेकोबीके जैन प्राकृतमें लाजूक या राजूक सूचक रज्जू शब्द कल्पसूत्र में मिला है जिसका अर्थ है लेखक किराणी (Clerk ) । राजूक और कायस्थ दोनों ही शब्द प्राचीन शास्त्रोंमें एकार्थवाची हैं। सुप्रसिद्ध बूतहर साहबने लिखा है कि अशोकको उपरोक स्तम्भ लिपि जब प्रचारित हुई थी उस समय प्रियदर्शीने बौद्ध धर्म ग्रहण नहीं किया था । और तब वे ब्राह्मण, बौद्ध, श्रौर जैनोंको समभावसे देखते थे। ऐसी अवस्था में राजूकगणों को जो सम्मान और अधिकार प्रदान किया था वह पूर्व प्रथाका ही अनुवर्तन था । पर्वत पर खोदित अशोकके तृतीय अनुशासनसे जाना जाता है कि राजूकगण केवल शासन वा राजस्व विभाग में ही सर्वेसर्वा नहीं थे किन्तु धर्मविभाग में भी उनका विशेष हाथ आ गया था (जब अशांक यौद्ध धर्मानुयायी हो गया था) और वे सम्राट अशोकद्वारा धर्म महामात्यपद अधिष्ठित हो गये थे। अधिक सम्भव है कि जिस दिनसे राजूकगण कराध्यक्ष से धर्माध्यक्ष हुए उसी दिन से ब्राह्मण शास्त्रकारगणोंकी विषदृष्टिमें पड़ गये और इसी कारण सारे पुराण में ( श्रध्याय १६ ) राजोपसेवक धर्माचार्य कायस्थगण अपांक्त य बना दिये गये (अध्याय १९ ) । विद्वानोंके मलसे मौर्य सम्राट् अशोक वृद्धावस्था में यद्यपि कट्टर धर्मानुयायी थे तो भी सब धर्मोके प्रति समभावसे सम्मान प्रदर्शन करते थे और प्रजाको धर्मसम्बन्धमें पूर्ण स्वाधीनता थी। साधारण प्रजाप अशोकके व्यवहारसे सन्तुष्ट होने पर भी ब्राह्मण धर्मके नेता ब्राह्मणगण कभी सन्तुष्ट नहीं हो सकते थे। कारण स्मरणातीत For Personal & Private Use Only • www.jainelibrary.org
SR No.527317
Book TitleAnekant 1953 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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