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________________ ६६ ] भी होता था, इस अवसर पर कई देशोंके साधु संघ एक स्थान पर एकत्र होकर प्रतिक्रमणके अतिरिक्त तस्य सम्बंधी तथा श्राचार-विचार-सम्बन्धी तथा लोक कल्याणकी समस्याओं पर विचार किया करते थे १ । अनेकान्त [ किरण ३ किया है। आयुर्वेदिक ग्रन्थोंमें 'अपान' का अर्थ है वह गन्दी वायु, जो श्वास आदि द्वारा शरीरसे बाहर जाती है। इन सात अपानोंमें पहले तीन अपान कालसूचक हैं और शेष अन्तिम चार अपान चर्या सूचक हैं। इस सूक्तका बुद्धिगम्य अर्थ यही है किं- पौर्णमासी, अष्टमी और अमावास्या वाले दिन वात्य लोगों में पर्व दिन माने जाते थे और वे इन दिनोंमें श्रद्धा (धर्मोपदेश) दीक्षा (धर्मदीक्षा) यज्ञ (धत, उपवास, प्रतिक्रमण वन्दना-स्तवन) धीर ( दक्षिणादान दक्षिणा ) द्वारा धर्मकी विशेष साधना आत्म शुद्धि किया करते थे। वृह उप १. ५. १४ में श्रमावस्याके दिन सब प्रकारका हिंसा कर्म वर्जित बतलाया गया है । इस राज्य की ओर संकेत करते हुए विनयपिटकमें लिखा है कि एक समय बुद्ध भगवान राजगृहके दर पर्वत पर रहते थे उस समय दूसरे मतवाले परिवाजक चतुर्दशी, पूर्णमासी, और अष्टमीको इकट्ठा होकर मपदेश किया करते थे । इन अवसरों पर नगर और ग्रामोंके स्त्री पुरुष धर्म सुननेके लिए उनके पास जाया करते थे । जिससे कि वे दूसरे मतवाले परिव्राजकों के प्रति प्रेम और अदा करने लग जाते थे और दूसरे मतवाले परिवाजक अपने लिये अनुयायी पाते थे। यह देख बुद्ध भगवानने भी अपने मिट्टयोंको अष्टमी, चतुर्दशी और पूर्णमासीको एकत्र होने, धर्मोपदेश देने, उपोसह करने और प्रतिम प्रतिक्रमणपाठ करने की अनुमति दे दी थी १। इन व्रात्य लोगोंकी ( व्रतधारी श्रमण लोग ) उपर्युक्त जीवनचर्या को ही दृष्टिमें रख कर ब्राह्मण ऋषियोंने अथर्ववेद - व्रात्यकाण्ड १५ सूक्त १६ में प्रात्योंके निम्न सात अपानका वर्णन किया है १. पूर्णमासी, २. अष्टमी, ३. श्रमावश्या, ४ श्रद्धा, २. 'दीक्षा, ६. यज्ञ. ७. दक्षिणा । इस सूक्तमें ऋषिवरको 'व्रात्योंके उन साधनों का वर्णन करना अभीष्ट मालूम होता है जिनके द्वारा वे अपने भीतरी दोषोंकी निवृति किया करते थे । इसीलिये ऋषिवरने इन दोष निवृत्तिमूलक साधनोंको सर्वसाधारणाकी परिभाषामें 'अपान' संज्ञा अंगपश्यात्ति प्रकीर्णक श्लोक २८ इन्द्रनन्दी कृत - श्रुतावतार ॥ ८७ जिनसेन कृत - आदिपुराण पर्व ३८ श्लोक २६-३४ त्रिलोकसार - ॥ ६७६ ॥ शाधर कृत- सागार धर्मामृत २. २६ जयसेनकृत - प्रतिष्ठापाठ ॥ १२-१८ ॥ पुनः अध्याय १०६ श्लोक १५ से लेकर श्लोक ३० तक अगहन, पौष माघ फागुन, चैत्र आदि द्वादश महीनोंके क्रमसे उपवासका फल वर्णन किया गया है इन उपयुक्त उपवास खीक सुख और स्वर्ग सुख मिलते T १ व्याख्या प्रज्ञप्ति १२. १. १३. ६ ॥ उत्तराध्ययन सूत्र हैं । पुनः अध्याय १०६ श्लोक ३० से अध्याय के अन्त तक ५. ६७. २२ तथा अध्याय १०७ में विविध प्रकार के उपवासोंका फल बतलाते हुए कहा है कि इन उपवासको यदि मांस, मदिरा, मधु त्याग कर ब्रह्मचर्य अहिंसा सत्यवादिता और सर्वभूतहितकी भावनासे किया जावे तो मनुष्यको अग्निष्टोम वाजपेय, अश्वमेध. गोमेध, विश्वजित प्रतिरात्र, द्वादशार, बहुसुवर्ण, सर्वमेध देवसन्त्र, राजसूय २. विनय पिटक—उपोसथ स्कन्धक | Jain Education International इसी प्रकार महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय १०६ और 100 में पर्यके दिनोंमें साधुयों व गृहस्थीजन द्वारा किये जाने वाले व्रत उपवासोंकी महिमा भीष्म बुधिष्ठिर संवाद द्वारा यों वर्णन की गई है- भीष्मं युधिष्ठिरको कहते हैं कि उपवासोंकी जो विधि मैने उपस्वी अंगिरासे सुनी है वही मैं तुझे बताता हूँ- जो मनुष्य जितेन्द्रय होकर पंचमी अष्टमी और पूर्णिमाको केवल एक बार भोजन करता है वह चमायुक्त, रूपवान और शास्त्रज्ञ हो जाता है। जो मनुष्य अष्टमी और कृष्णपचकी चतुर्दशीको उपवास करता है वह निरोग और बलबान होता है। अध्याय १०६ श्लोक ४-२० ) 4 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527317
Book TitleAnekant 1953 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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