Book Title: Anekant 1953 08
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 6
________________ ७८१ जैन राज्य छोड़कर अन्यत्र भाग गये। भट्टारकजीको राज धानीसे अलग कर दिया। यही कारण है कि उन्हें दूसरे स्थान पर मठ बनवाना पड़ा। वही वर्तमान मठ कहा जाता है । थोड़े समय के बाद एक दिन राजा सख्त वीमार हो गया । बचनेकी श्राशा कम दिखाई दी । उसकी रानीने जो कट्टर जैन धर्मानुयायी रही, यह प्रतिज्ञा की कि इस कष्ट - साध्य बीमारीसे अगर राजा बच गया तो मैं अपने सौभाग्य चिन्ह नासिकाभूषणको बेचकर एक जैन मन्दिर बनवा दूंगी। राजा स्वस्थ हो गया। सुना है कि बादमें रानीने प्रतिज्ञानुसार इस मन्दिरका निर्माण कराया था। साथ-ही-साथ सामनेका तालाब भी । इसलिये इस सरो यरका नाम मुतिनकेरे प्रसिद्ध हुआ। क्योंकि नासिकाभूषण मोतियोंका बना हुआ था । | पूर्वोक मन्दिरके बगखमें एक विशाल शिवाय दूसरा मन्दिर है । इस समय यह वैष्णवोंके वश में है । यह मूलमें जैन मन्दिर ही रहा होगा। इसके सामने मानस्तम्भ मौजूद है। मन्दिरके ऊपर सामने कीर्तिमुख भी मटके श्रास-पास इमारत के बहुतसे पत्थर पड़े हुए हैं। ये सब प्राचीन स्मारकोंके ही मालूम होते हैं। वर्तमान भट्टारक जी भद्रपरिणामी अध्ययनशील व्यवहारकुशल त्यागी हैं । यहाँ पर ताड़पत्रके ग्रन्थोंका संग्रह भी है। पर इसमें कोई अप्रकाशित महत्वपूर्ण प्रन्ध नहीं मिला । प्रन्यान्य स्थानोंके शिलालेखोंकी तरह सोदेके शिलालेख भी बम्बई सरकारकी श्रोरसे प्रकाशित हो चुके हैं। , -- (३ गेरुसोप्पे - इसका प्राचीन नाम महातकीपुर है । होनावरसे पूर्व अठारह मील पर शरावतीके किनारे यह गाँव है । प्रसिद्ध जांग जलपात से भी इतनी ही दूर है । ई० सन् १४०६ से १६१० तक यह गेरुसोप्पेके जैन राजाओंकी राजधानी थी। स्थानीय लोगोंका विश्वास है कि अपने महत्वके दिनों में यहाँ पर एक लाख घर और चौरासी मन्दिर विद्यमान थे । जन श्रुति है कि विजयनगर के राजाओं ( ई• सन् १३३६ - १५५५ ) ने ही गेरुसोप्पेके जैन राजवंशको उन्नत बनाया था । १२वीं शताब्दी के प्रारम्भसे यहाँका राजस्व प्रायः स्त्रियोंके हाथमें ही रहा क्योंकि १६वीं और 10वीं शताब्दी के प्रथम भागके प्राक सभी लेखक गेरुसोप्पे या भटकलकी महारानीका नाम लेते हैं। १७वीं शताब्दी के प्रारम्भमें गेरुसोप्पेकी अन्तिम महारानी भैरादेवी पर विदनूरके वेंकट नायकने हमला Jain Education International अनेकान्त किरण ३ 1 I किया था । इस लड़ाई में वह हार गई। स्थानीय समाचारके अनुसार भैरादेवी १६०८ में मरी ई० सन् १९२३ में इटलीका पात्री लावेले (Denavalle) इस नगरको एक प्रसिद्ध नगर लिखता है। हाँ, उस समय नगर और राजमहल नष्ट हो गये थे। यह नगर काली मिर्च के लिए इतना प्रसिद्ध था कि पुर्तगालियोंने सोयेकी रानीको Pepper queen लिखा है वर्तमान गवसे प्राचीन नगरका ध्वंशावशेष डेढ़ मील पर हैं। इस समय यहाँ पर सिर्फ पाँच जैन मन्दिर हैं वे भी सघन जंगलके बीचमें । उपर्युक्त पाँच मन्दिर पार्श्वनाथं, वर्धमान, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ पद्मावती और चतुर्मुख । इनमें चतुर्मुख बढ़ा सुन्दर है । पद्मावती मन्दिर में पद्मावती तथा अम्बिकाकी मूर्तियाँ और नेमिनाथ मन्दिरमें नेमिनाथकी मूर्ति सर्वथा दर्शनीय है। शेष मूर्तियाँ भी कंलाकी दृष्टि से कम सुन्दर नहीं हैं । चतुमुख मन्दिर बाहरके द्वारखे भीतर के द्वार तक ६३ फुट खम्बा है। मन्दिर २२ वर्ग फुट है। बाहर २४ फुट है । मण्डप और मन्दिरके तरफ द्वारपाल मुकुट सहित वर्तमान हैं । मन्दिर भूरे पाषाणका है। इसके चार बड़े मोठे गोल खम्भे देखने लायक यहाँ है के शिक्षालेख भी प्रकाशित हो चुके हैं। इसमें सन्देह नहीं है कि 'गेरुसोप्पे' एक प्राचीन दर्शनीय स्थान है। द्वारों पर हर 9 '3 ( ४ ) हाडहलि— इसका प्राचीन नाम संर्ग तपुर है । हाडहल्लि भटकलसे उत्तर पूर्व ११ मील पर है यहाँ पर भी तीनों मन्दिरोंके सिवा दर्शनीय वस्तु और कुछ नहीं है। हाँ, जहाँ-तहाँ भग्नावशेष अवश्य दृष्टिगत होते हैं । इन सबसे सिद्ध होता है कि एक जमाने में यह एक वैभवशाली नगर रहा है भग्नावशेषों में मन्दिर, मकान और किला आदि हैं। पर अब अवशिष्ट ये चीजें भी जंगल में विलीन होती जा रही है। इस समय यहाँ पर चारों ओर सघन जंगलका ही एकाधिपत्य है तीन मन्दिरों में से शिलामन एक मन्दिर अधिक सुन्दर है परन्तु साथ ही साथ जीर्ण भी। दूसरा एक मन्दिर भी शिलामय अवश्य है, पर कलाकी दृष्टिसे यह सामान्य है I तीसरा मंदिर मामूली मृणमय है हाँ इसमें विराजमान २४ तीर्थंकरोंकी शिखामय मूर्तियों अवश्य अवलोकनीय है। इसमें बची पद्मावती की मूर्ति भी है, जिसे जैन जैनेसर बड़ी भक्ति से पूजते है। शेष दो मंदिरोंकी मूर्तियाँ भी For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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